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Thursday 19 November 2015

जीवन दर्शन ( १९७३ -२०१३ )

जीवन दर्शन
 

केवल सच्चाई , ईमानदारी और ईश्वर पर विश्वास बस यही थी अपनी पूजा ! यही लेकर पति के घर में प्रवेश किया।न कभी अभाव महसूस किया न बहुत चाहना की न किसी के साथ की आवश्यकता समझी न कभी किसी से तुलना या समानता की. भगवान से हमेशा बुद्धि की याचना हर समय की। सिमट कर रह गयथा जीवन!  किन्तु संतोष था भरपूर !कठिनाइयाँ थी लेकिन कोई घबराहट नहीं थी ,सामना करने की ताकत थी। मालूम था घर में केवल पति ही हैं परिवार का साथ नहीं है इसलिए शिकायत या डर किसी बात का नहीं था। परंपरा -रीति-रिवाज़ के तौर पर कोई बंधन नहीं था क्योंकि घर में कोई बड़ा था ही नहीं दिशा दिखाने वाला।जो अपने घर में देखती आरही थी वो और भगवान का सच्चे दिल से स्मरण ,यही थे रीति-रिवाज़ !
            घर में हम दो थे फिर वरदान स्वरुप दो  बच्चे परिवार में दाखिल हुए। भगवान द्वारा दीगई सूझ-बूझ से और उनके आशीर्वाद से परिवार में संवर्धन होता रहा। बच्चे बड़े हुए ,आवश्यकताएँ बढ़ीं ,ईश्वर की कृपा से वे पूरी होती रहीं। बच्चों का भी पूर्ण सहयोग रहा उन्हें भी भगवान ने सही विवेक-बुद्धि दी। कभी अधिक उन्होंने माँगा नहीं। हमारी भी बच्चों के प्रति कुछ इच्छाएँ होतीं थीं पर न कभी कहा न कभी इस्रको लेकर दुखी ही हुए। भगवान ने ऐसा कभी होने नहीं दिया। लेकिन समय आने पर इतना दिया जिसको कभी सोचा न था। भगवान पर गर्व है कि  कमी को कभी महसूस नहीं होने दिया और उपलब्धि पर कभी घमण्ड नहीं होने दिया।सच्चाई-ईमानदारी व संतोष देकर शायद जीवन में की गई गलतियों को भी क्षमा कर दिया।मैंने महसूस यही किया है कि भगवान मेरे साथ सदैव रहे हैं और विश्वास के साथ कह सकती हूँ  कि मुझे उनका साक्षात्कार भी हुआ है।
          प्रार्थना है कि शेष जीवन में भी अपना वरद-हस्त  मेरे सर पर बनाये रखें। समय-समय पर सचेत करें,सहनशीलता, समर्पण,त्याग आदि सद्गुण प्रदान करें। साभार !!   

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Tuesday 27 October 2015

छोड़ दो !!

    छोड़दो !! 


" छोड़दो।"
आखिर क्यों ?
कहते हैं  " पीना " अच्छा नहीं होता।"
"ज़हर" है ,यह -
तुम्हेँ अन्दर ही अन्दर जला  रहा है।
कहते हैं,अपना भविष्य सँभालो,आगे बढ़ो -

पर मुझे तो उसके बिना कुछ भी अच्छा नहीं लगता
अधूरी लगती है ज़िन्दगी
कहते हैं,माँ भी तो यही चाहती है
पर क्यों,अगर मुझे उससे सुकून मिलता है -
तो क्यों हो किसी को एतराज़ ?
फिर मुसीबत में तो अच्छे-अच्छे साथ नहीं छोड़ते -
तो मैं क्यों छोड़ूँ ?
उन्हें नहीं पता कि उसे छोड़ने की कल्पना मुझे कितना व्यथित करती है और
उसके साथ रहने की कल्पना भी मुझे कितना रोमांचित करती है -
सहारा है वह मेरा !
सर्वस्व है वह मेरा !
फिर बुराई-दोष किसमें नहीं होते !
फिर उसकी अच्छाई क्यों नहीं दिखाई देती किसी को !
मुझे तो उसके साथ की  कल्पना से भी नींद भी अच्छी आती है,
शान्ति मिलती है ,सन्तुष्टि मिलती है और -
सुबह तरो-ताज़ा होती है।

पर कभी-कभी ये उसका भ्रम भी होता है और -
       मनुष्य ऐसे  दोराहे पर आकर अटक जाता है,अन्य-मनस्क होजाता है !!!

लेकिन ये क्या !
अचानक छोड़दो छोड़दो छोड़दो की गूँज -
एक अलग सा राहत भरा एहसास-
आँखों के सामने एक ज्योतिर्मय पथ दिखाई दिया -
लगा यही है मेरी ज़िन्दगी का रास्ता
जो मेरी ही प्रतीक्षा कर रहा था
ख़त्म हुयी अन्य मनस्कता।
छोड़ दिया उसे सदा सदा के लिये।

मानली सबकी बात ! और-
सँभाल ली अपनी ज़िंदगी !!!

                हे ईश्वर !

               कोटिशः प्रणाम !!! 
               शतशः नमन !!!


एक महात्मा का प्रभाव ( एक कहानी )

एक महात्मा का प्रभाव ( कहानी )


मनोरम वातावरण ! उन्मुक्त प्रकृति विलास ! चिड़ियों की चहचहाहट !मेमनों की मिमियाहट !कल- कल बहती नदी और झर- झर झरते प्रपात !इन सबके बीच घाटी में बसा एक गाँव !बहुत ही कम आबादी किन्तु लूट-मार, ईर्ष्या-द्वेष ,लड़ाई -झगड़ा ! पूरी तरह आतंक के साये में जी रहा गाँव !!
                 कि अचानक एक प्रातः स्वोद्भूत गुफा में एक महात्मा के दर्शन ने पूरे गाँव को चकित कर दिया।  अद्भुत अपूर्व तेज ,आकर्षक व्यक्तित्व ,न जाने कैसा था जादुई प्रभाव ! कि आपसी द्वेष ,मार-काट सब भूल गए। गाँव में कोलाहल !  "एक महात्माजी आये हैं गाँव में, समाधि ग्रस्त हैं।" उमड़ पड़ा सारा गाँव। आकर महात्माजी के चरणों में बैठ गया। समाधि टूटी तो श्रद्धालुओं ने नत मस्तक हो प्रणाम किया। धीरे-धीरे भक्त जनों की भीड़ बढ़ने लगी। उपहारों के ढेर; भोजन,वस्त्र,ओढन,बिछावन सब कुछ महात्माजी की सेवा में समर्पित !शांत और प्रसन्न मुद्रा। महात्मा जी प्रवचन करने लगे। ध्यान मग्न श्रद्धालु विभोर होगये। नित्य ही का यह क्रम बनगया। जनता आती,भगवत-चर्चा ,भजन-कीर्तन,संस्कार जनित बातें होती।  गाँव अब एक आध्यात्मिक -नगरी बन चुका था।प्रभाव इतना गंभीर कि एकदिन ग्राम-वासी एक विस्मयकारी प्रस्ताव लेकर महात्माजी के पास आये। हाथ जोड़ कर विनम्र स्वर में बोले -" इस पुण्य -भूमि में एक मंदिर बनाने का प्रस्ताव !मुग्ध हो गए महात्माजी,तुरंत बोले -उत्तम विचार ,कल एकादशी है कल का दिन श्रेष्ठ है।
       प्रसन्न-चित्त गाँव वाले दूसरे ही दिन राज-मजूर और अन्य सामग्री लेकर गन्तव्य पर पहुँच गए। किन्तु ये क्या महात्माजी की कुटिया खाली ! कहाँ गए महात्माजी !सभी स्तब्ध !हतप्रभ कौन थे ,क्यों आये ,कहाँ गए वे सन्त ? लेकिन मंदिर बना आस्था का ! लोग पूर्व-वत आते रहे ,भगवत-चर्चा होती रही, भजन-कीर्तन चलता रहा। लोग पूरी तरह धार्मिक होगये।
         एकदिन जब सत्संग,चलरहा था,तभी एक आवाज़ ने चौंकाया,अरे महात्माजी आगये -----और महात्माजी अपने समाधि स्थल पर आखड़े हुए,आभा-मण्डित,सर झुकाये।अपना नकाब हटाया--और बोले -सारे गाँव के हालात देखकर मन बहुत व्यथित था,उद्विग्न था यही सोचकर ये नकाब--- इतना कहते-कहते वहीं गिर गए
और चिर समाधि लेली। आत्मा परमात्मा में विलीन होगई----------
      सभी हकबके से,
      सर्वत्र सन्नाटा ,
      कोई हलचल नहीं ,
विस्फारित नेत्रों से एक दूसरे को देखने लगे। तभी एक आवाज़ आयी ,अरे ये ए ए ए तो ओ ओ ओ नुक्कड़ पर बैठने वा आ आ ला आ आ दीन-हीन,उपेक्षित मोची --
भक्त-जनों की आँखों से अविरल अश्रुधारा प्रवाहित होनेलगी।उन्हीं में से एक और आवाज़ ----एक मोची सारे गाँव का सुधार करगया।
         महात्माजी की जय ,महात्माजी की जय ----समस्त दिशाओं से एक ही ध्वनि गूँज उठी --
           अब मंदिर के साथ साधु महात्मा का स्मारक भी बना। न कोई झगड़ा न कोई फसाद !!केवल और केवल
भजन-कीर्तन ,सुख-शान्ति की नगरी बना गाँव !!

                                                            ------------------

  

     

            

स्वानुभव ( यथार्थ एवं रोमांचक )

जीवन में घटित कुछ चकित करने वाली घटनाओं का वर्णन --------
                                                1 

  " जो ठीक लगे वह करें।"
और अस्पताल चली गयी क्योंकि वो अस्पताल में एडमिट थे।
           सब कुछ गत-विगत हो गया। उनके जाने के बाद जैसे भी था समय बहुत ही ऊहा-पोह में व्यतीत हो रहा था।  समझ ही नहीं आरहा था कि आगे क्या होगा। आँसू बहते कभी सूखते। ऐसे में अचानक एकदिन उक्त वाक्य दिमाग में कौंधा। रोम-रोम काँप उठा,कुछ याद आया.ऐसा लगा जैसे अंदर से आवाज़ आरही हो कि अब क्यों रोरही हो तूने तो कहा था " जो ठीक लगे वो करना " .हाँ, 5 . 2 . 2013 को सुबह अस्पताल जाने से पहले भगवान के सम्मुख नतमस्तक हुई थी तब मैंने यही वाक्य बोला था और मैं चली गयी। मतलब कि क्या मुझसे किसी ने कुछ पूछा था जिसके उत्तर में मैंने ये कहा था।क्या था ये !नहीं पता। कुछ नहीं कह सकती। मन उद्विग्न हो उठा,बेचैनी सी होने लगी। थोड़ा सँभलने के बाद यह सब अपनी बहू से कहा वह तुरन्त ही बिना कुछ सोचे बोली -" ये तो संवाद है।"
                                             
                                               ******

                                                 2 

     1st.2014 अप्रेल को घटी घटना ने बुड्ढी से बूढ़ी बना दिया।सुबह पाँच बजे उठकर बाथ रूम में जाकर गरम पानी के लिए रोड की तरफ जैसे ही झुकी,हाथ बढ़ाया,कि इतने ज़ोर का धक्का लगा कि केवल दो फ़ीट की दूरी रही होगी दीवार की,उससे मेरा सर क्रिकेट बॉल की तरह ( गिरते हुए )दो बार इतने ज़ोर से टकराया कि दूसरे रूम में सो रही बहू जाग कर आई ५ मिनट तक आवाज़ देती रही  मम्मी मम्मी दरवाज़ा खोलो हमें डर लग रहा है ,क्या हुआ।मुझे बहू की कोई आवाज़ नहीं सुनाई दी,गिरते ही मैं तो किसी दूसरी ही दुनिया में थी , एकदम खुश थी, भगवान से कह रही थी हे भगवानजी,ये तो बहुत ही आसान मौत देदी।तभी बेटे की आवाज़ सुनाई दी --मम्मी मम्मी ,मैनें कहा,आई एक मिनट ( मानो अपनी  दुनिया में बापस आगयी )खिसक-खिसक कर दरवाज़े तक आई ,चिटकनी खोली,बस इसके बाद पेट की साइड में जो सीवियर पेन शुरू हुआ उसे  परिवार  ही जानता है।

    सात हफ्ते तो बिलकुल उठने की कंडीशन में नहीं थी।बहुत रोना आता था,भगवान पर  गुस्सा भी आता था  मौत देकर फिर छीनी क्यों?सोचती क्या यमराज से ही गलती होगयी या कुछ और ही था। कुछ दिन बाद पूरे शरीर से स्किन हटगई,जीभ के ऊपर के छाले या स्किन भी हटगए,हाथों के रोम भी गायब होगये ,पैर की दसो उंंगली गहरे नीले रंग की होगईं।शरीर की स्किन का कलर लाल होगया , सबकुछ मरणोपरान्त के ही लक्षण थे , ये तो पुनर्जन्म ही हुआ पर क्यों ?इस अवस्था में तो इसकी ज़रूरत भी नहीं थी।शरीर को लेकर पुनः यथावत खड़ी होगयी हूँ। न जाने कबतक के लिए।काम करती रहूँ,किसी पर भार न बनूँ ,बस यही भगवान से प्रार्थना है। 
           
            उक्त वृतान्त भले ही असहज व भ्रम-पूर्ण अविश्वसनीय प्रतीत हो किन्तु भगवान पर भरोसा है तो ये कुछ भगवान के संकेत हैं, जिन्हे समझना समझ से परे है।


                                     ***************


                                                 3 




                                                 
                 


प्रभु के संकेत


ये स्वप्न जो मुझे दिखाई दिए ,बहुत अच्छे लगे। मैंने उन्हें गम्भीरता से लिया और भगवान का आशीर्वाद माना-

17.   8.  2013
       स्वप्न में ,नींद में सुनाई देरहा था ," रथ का चक्र चलता रहे ,स्वर्ग पहुँच जाओगे।"
 16 . 8. 2013
       सोते हुए राम रक्षा स्तोत्र से श्लोक २,३,4. का मन में जप चल रहा था।
अप्रेल 2014
       स्वप्न में हनुमान चालीसा की ये पंक्तियाँ दुहरा रही थी -
      " नासे रोग हरे सब पीरा ,जपत निरन्तर हनुमत वीरा।"--और हनुमान जी का छायाभास होरहा था। तभी सीता जी ने एक मिठाई के डिब्बे में निमन्त्रण पत्र रख कर कहा ,इसे भी दे आना।

उसी दिन देखा ,विष्णु सहस्र नाम का एक श्लोक जो मुझे याद नहीं है पर उसके एक शब्द को बोलते हुए उठी। सोचती रही ये क्या है ,ढूँढा तो विष्णु सहस्र नाम के श्लोक में विष्णु जी का ही नाम बोल रही थी। श्लोक 73 -"पुण्य कीर्ति रनामय:"
१२. २. २०१४.
    एक फूल और पत्तियों की डाल और इन दोनों के बीच " श्री कृष्ण भगवान "का सुन्दर चेहरा देखा।

25. 8. 2015
   
    सुबह यह स्वप्न देखा था -कोई भक्त पूछता है "भगवन आपने अपने इतने नाम क्यों रखे हैं ?"
                                           भगवान ने उत्तर दिया " नाम मैंने नहीं रखे ,ये तो आप लोगों ने ही रखे हैं।"

              

   
 



                                                         





कुछ पौराणिक प्रसंग

           कुछ पौराणिक प्रसंग                (  १ )

  - कृष्ण भगवान स्वयं कहा है, " मैं तो होने में सहयोग करता हूँ। जो जैसा होना चाहेगा मेरा सहयोग पायेगा।  पापी को उसके पाप में सहयोग करता हूँ,उसे पाप के शिखर तक पहुँचने देता हूँ। धर्मात्मा को परमात्मा तक पहुँचने देता हूँ।मुझे जो जिस भाव से ध्याता है,उसे मैं उसी रूप में सहयोग करता हूँ। " मैं किसी की स्वतंत्रता में बाधक नहीं बनता ,जीव जैसा होना चाहता है उसको वैसा होने में मैं उसके सहयोगी की भूमिका निभाता हूँ।"

                                                       ----------------------
                                                       ( २ )
 
  -प्रश्न है कि भगवान ने गोपियों के वस्त्र क्यों चुराए ?
भगवान ने इसका उत्तर दिया -
 १ - किसी को स्नान,दान और शयन के समय निर्वस्त्र नहीं होना चाहिए। जल में गोपियाँ स्नान कर रहीं थीं ,जल के देवता वरुण हैं। और भगवान तो सर्वत्र व्याप्त हैं।
२ -एक बात महत्वपूर्ण ये कि मनुष्य के पितृ देवता सदैव उसके चारों ओर व्याप्त होते हैं ,स्नान करते समय जो जल की बूँदें गिरती हैं उन्ही से  वो अपनी प्यास बुझाते हैं अगर नग्न स्नान करेंगे तो पितृ देवता वहां से प्यासे ही चले जायेंगे।

                                                      ------------------------
                                                    ( ३ )

    -कृष्ण भगवान ने मुरली की तीन विशेषताएँ बतायीं हैं -
                               1.  वह बिना किसीके बोले बोलती नहीं है।
                               2.  वह मीठा बोलती है।
                               3. वह पोली होती है यानि उसके अंदर कोई छल नहीं होता।


                                            ----------------------
  

शिकायतें ( हास्य-व्यंग्य- एक छोटी सी सीख )


शिकायतें ( हास्य-व्यंग्य -एक छोटी  सीख )
   

   बहुत दिनों से यह चार वर्णीय " शिकायत " शब्द "भेजे" की परिक्रमा लगा रहा था। सोचा आखिर इस बहुआयामी शब्द के पोटले में है क्या !और मैंने अपनी मेज़ पर रखे हुए लेखनी के बक्से से लेखनी को निकाल कर उसीका प्रश्रय लिया। असल में इस शब्द का प्रयोग एक नहीं अनेक अर्थों में होता  रहा है। आप कभी दो व्यक्तियों का सम्वाद सुनें तो पायेंगे कि या तो वे किसी की टीका -टिप्पणी कर रहे होंगे ,या कभी किसी के उपहारों को लेकर कि वह ऐसा लाये वह वैसा लाये। और कभी किसी को प्रत्यक्ष ही कहेंगे अरे, ये सब करने की क्या ज़रुरत थी। यानि कोई करे तो क्या करे ,यहाँ तो शिकायतों का पहाड़ तैयार है।

          इसी प्रकार की शिकायतें प्रायः लोग करते ही रहते हैं ;बच्चे हैं कि पढ़ते ही नहीं हैं ,फोन पर ही लगे रहते हैं। बीवी की शिकायत कि उस पर ध्यान नहीं देता उसका पति ,घरवाली से शिकायत कि कभी समय पर तैयार नहीं होती हमेशा देर कर देती है। मतलब  कि ये "अदना" सा शब्द अपने अंदर कितना खजाना सँजोये हुए है।

                     सोचकर डब्बे से कलम निकाली ही थी कि दरवाज़े की घंटी बज गयी. अबे,अब कौन शिकायत लेकर आगया लेखनी को विराम देने। देखकर सन्तोष हुआ अपना पुराना मित्र है हँसी-ख़ुशी समय बीतेगा।पर हेलो-हाइ तो दूर खोल दिया अपना पिटारा। अरे बन्धू, तुम तो भूल ही गए, न आना न जाना न फोन, क्या करते रहते हो, कहाँ हो इतने व्यस्त ?सोचा, मौका दे तब तो बोलूँ। खैर सुनते-सुनाते दो घंटे बरबाद करके चला गया। और दिमाग तो ऐसा होगया कि कलम तो पूर्ण विराम के मूड में होगयी।

           मन किया किसी से फोन करके थोड़ा रिलैक्स फील करलूँ। और नम्बर दबा दिया, पर भैया, ये तोऔर भी बड़ी मुसीबत मोल लेली।  आवाज़ आई ओ भैया, कैसे याद आगयी इस गरीब की। मिलना-जुलना ही बन्द कर दिया तूने तो ,क्या बात है सब -ठीक -ठाक तो है किसी हैल्प की ज़रुरत हो तो बता। कोई गलती हो गयी हो तो हटा उन काले बादलों को। मिलते हैं गप-शप करते हैं ,अच्छा ऐसा कर कल आजा भाभीजी को लेकर। चल रखता हूँ देर भी बहुत होगयी है।हद होगयी, दिमाग झन-झना उठा,फोन मैंने किया और याद भी मैंने ही किया और शिकायत भी मुझीसे। कौनसे काले -पीले बादल। लगा जैसे किसी बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया हो। पर फोन-वार्ता से तो राहत मिल गई।इतना सुकून तो मिला।

         इतनी परेशानी में तो बीवी ही याद आती है तो लगादी बड़े प्यार से आवाज़ "-मैडमजी, ज़रा मिलेगी एक कप गरम-गरम चाय।" इसबार तो और महान गलती होगयी।आवाज़ आई,केवल एक छुट्टी मिलती है।( सोचा कोई बात नहीं बीवी है आगया होगा गुस्सा किसी बात पर ,चाय तो पिला ही देगी। ) लेकिन नहीं,सुनिए आगे भी। खुद ही बनालो। हर छुट्टी ऐसे ही निकल जाती है। न बाजार न शॉपिंग,न घूमना - घुमाना ,मुझे नहीं करना आज कुछ। ठीक है ,ठीक है। और कर भी क्या सकता हूँ.ठीक ही तो कह रही है।मेल करता हूँ बॉस को,कल की लीव लेता हूँ।बीवी खुश हो जाएगी।

           तुरन्त बॉस का जवाब !अरे काहेकी छुट्टी,अभी पिछले हफ्ते ही तो ली थी, काम नहीं करना है तो कल आकर रिज़ायन करदो। होगयी छुट्टी,कमाल होगया,कोई मज़ाक है क्या ! एक छुट्टी पर रिज़ायन। कलम फेंका एक तरफ। सोचा,रात भी होगयी है,सो तो सकता हूँ चैन से।

          तकिये पर सर रखा,सोने के लिए आँखों का नर्तन चल ही रहा था कि बज गयी फोन की घण्टी,बहिन का फोन-भैया ! कल राखी थी आप आये नहीं,भूखी-प्यासी शाम तक राह देखती रही और आप हैं कि न आपाने का फोन भी नहीं किया,कम से कम फोन तो कर देते। सास-ससुर,आपके बहनोई सब ही उलाहना देते रहे और फोन पर ही उसकी सुबुकियाँ शुरू। खैर,किसी तरह मनाया,गलती मानी तो उसे शांति मिली,और सबसे भी क्षमा-याचना करली। और अन्त में लेखनी को उठाया और टेबल पर रखे कलम के बक्से में ज्यों का त्यों सजाकर रख दिया।

                  तो भैया, ये शिकायतों का पुलिंदा तो जिंदगी में बढ़ता ही रहता है। ध्यान इस बात का रहे कि शिकायतों का पोटला,पुलिंदा,खज़ाना कितना भी भारी क्यों न होजाये,पर संबंधों में दरार न आने पाये।
                  सुनते रहिये,सुनते रहिये,क्योंकि जहाँ आपने अपना मुँह खोला,लेखनी नहीं बन्धुओ आपकी जिन्दगी रुक जाएगी।

                                                             -----------------






                                                         




       

Friday 2 October 2015

---------वो ओ ओ ओ माँ है ----


वो ओ ओ ओ माँ है -----

पहचानें इनमें से आपकी माँ कौनसी हैं और उनके प्रति श्रद्धान्वित होकर आशीर्वाद ग्रहण करें,इस योग्य बनें कि उनकी पहचान आपसे हो --

-     जो उनका पेट भर कर उन्हें महसूस भी नहीं होने देती कि पिछले कितने दिनों से उसका पेट खाली है ,वो माँ है।
-     जो सब कुछ सहकर मुस्कराती रहती है ,महसूस भी नहीं होने देती कि आज उसके साथ क्या बीती ,वो माँ
      है।
-     जो चुपके -चुपके रोती है और उन्हें अहसास भी नहीं होने देती कि उसकी आँखों के आँसू सूख चुके हैं ,वो माँ है।

-     जो उनसे अलग रह सकती है ,सर्व-समर्थ है किन्तु उन्हीं के साथ रहकर उनके सुख-दुःख का हिस्सा बनना
      चाहती है ,वो माँ है।
-     जो सारी कही-अनकही बातें सहन करती है क्योंकि वो उनके दोषों में भी गुण देख लेती है ,वो माँ है।
-     जो इस अलगाव के साथ ज़िम्मेदारी निभाती है कि पता भी नहीं लगने देती कि वह उनसे कितना प्यार करती है, वो माँ है।
-     जो दिन-भर जाने कैसे-कैसे काम करके दो जून की रोटी जुटाती है ,पता भी नहीं लगने देती कि वह क्या काम करती है ,वो          माँ है।
-    जो कभी-कभी अपमान की पीड़ा को सहने में असमर्थ अपने ही घर को छोड़ भी देती है ,वो माँ है।

-    जो उन्हें इस योग्य बनाती है ,कि भविष्य में पढाई-लिखाई ,नौकरी के लिए अलग होना पड़े तो बिना किसी दुख व परेशानी के         दूर जा सकें, वो माँ है।

-   जो अपनी बड़ी से बड़ी परेशानी उनके साथ शेयर न कर कभी उनकी उलझन नहीं बढाती ,वो माँ है।

                       माँ तूने और कितने रूप अपने अंक में छुपा रखे हैं ,उन्हें भी बतादे माँ उन्हें भी ----

                                                        धन्य है तू ,धन्य है तेरा जीवन !!

                                                         --------------


      

Wednesday 8 July 2015

मोक्ष --- एक अनोखी कल्पना ( हास्य )


एक अनोखी कल्पना  ( हास्य )

-- कभी - कभी व्यक्ति यथार्थ के चिन्तन में इतना खोजाता है कि वहाँ से निकलने को छटपटाने लगता है कि कैसे यहाँ से छुटकारा पाऊँ। ऐसी ही स्थिति  से जब एकबार मैं गुज़री तो मेरे शरारती मस्तिष्क ने सोचा आखिर इस चौरासी लाख योनियों से कैसे छुटकारा पाया जाय और तब एक अद्भुत कल्पना ने जन्म लिया  ----

सब  जानते हैं -
मोक्ष बड़ी मुश्किल है
जी करता है -
एलियन  बनकर लोगों की कल्पना में -
जीवन्त प्राणी बनूँ या -
एनीमेशन या कार्टून फिल्म का चरित्र बनूँ -
कभी चूहा ,कभी बिल्ला या खरगोश ,बन्दर ,मगर
जिन्हे सुख-दुःख का कोई ऐहसास नहीं
फिल्म ख़तम जीवन ख़तम
और इस तरह --
चौरासी लाख योनियों के
झंझट से मुक्ति पाकर मोक्ष पाजाऊँ !!
                                             ------------

Sunday 28 June 2015

- एक माँ का अहसास

 एक माँ का अहसास
            
 
माधवी लता सी 
वसन्त वाटिका में 
उछलती -कूदती इठलाती उस - 
मासूम ,अबोध बाला  को 
अपनी माँ के दुलार से लिपटे हुए
यौवन की देहलीज़ पर कदम रखते हुए
देखा है उसने !
प्रतीक्षारत ,मानो देख रही थी  
उसमें अपने ही यौवन को पलते हुए -

कि अचानक वह बाला ठिठकी 
वसंत वाटिका में मानों बहार सी आगई 
नहीं पता उस अज्ञात यौवना को "ये क्या है ?
क्यों होता है ?"
" क्या अर्थ होता है ?"पूछ बैठी अपनी " माँ "से -
माँ ने गले लगाया ,नेत्र सजल हुए ,मुस्कराई -
समझाया उसे -
" बेटा ,ये होता है
   ये होता है "मातृत्व का प्रतीक।"
   ये होता है " माँ बनने का अहसास। "
   और वह अल्हड़ बाला उड़ चली एक फूल बनने की चाह में -

उस वृद्धा के शरीर में सिहरन दौड़ गयी और
जर्जरित काया में होने लगा
कभी भी न समाप्त होने वाले अपने ही -------अहसास ! ! !

                                           ------









  

जीवन का मर्मस्पर्शी प्रसंग ( एक हास्य- प्रसंग )


जीवन का एक मर्मस्पर्शी प्रसंग 

जिन्दगी स्मूदली चल रही थी,
कर्त्तव्य भी ईश्वरीय - कृपा से पूरे हो चुके थे ,
बच्चों की सहायिका के रूप में जिंदगी खुशहाल थी कि
जीवन में एक अवाँछनीय बदलाव आया।

अपने फौजी बेटे के साथ जाना हुआ
तब तक मैं  " मिसेज तिवारी "और "मैम" ही थी
सब आराम ,सब सुख, एक नयी जिन्दगी नया अनुभव
नए अन्दाज़ के साथ -
कभी डाइनिंग -इन -
कभी डाइनिंग- आउट-
कभी - " टी  "तो -
कभी बड़ा खाना और
कभी विशेष कार्य- क्रम में जाना-आना।

एकबार पहाड़ों के बीच घाटियों में घूमते हुए जारहे थे
वह पल यादगार बन गया -

अचानक पीछे से एक आवाज़ आई -
"गुड-ईवनिंग "मिसेज तिवारी ",गुड-ईवनिंग"मैम -
चौंकी ,मुड़कर प्रत्युत्तर दूँ तबतक एक और आवाज़ सुनाई दी -
नमस्ते माताजी !
बहुत जल्दी ही सब कुछ समझते देर नहीं लगी -
उत्तर दिया -खुश रहो बेटा !

अभिभूत होगयी ,ओठों पर मुस्कान -
इतना बड़ा सम्मान ,गौरवान्वित होगयी
इतने सारे फौजियों की माताजी !
इसके लिए तो कोई मेहनत भी नहीं करनी पड़ी
इस "सम्बोधन "ने तो गद्गद ही कर दिया -और
एक "मधुर-सत्य "से परिचित करा दिया।

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Saturday 27 June 2015

खाली -हाथ

खाली हाथ

विपन्नता यानि -
दुःख ,कष्ट और विषादग्रस्त जीवन ,
छुटकारा पाने का एक सुनहरी मौका !
प्रयत्नरत मानव -
आशावान ,स्वप्नदृष्टा ,उत्साह से भरपूर
भविष्य को प्रकाशमय देखने की  चाह
न कोई चिन्ता ,न परेशानी
सिर्फ और सिर्फ एक लक्ष्य और -
एक दिन सपने साकार हुए और तब
केवल सुख ही सुख !
निराशा का अन्धकार दूर -
चैन की नींद , सन्तोष ही सन्तोष !!

पर मोहग्रस्त  इन्सान को चैन में चैन कहाँ !
पुनः उठा -
एक नयी जागरूकता के साथ
एक नए संकल्प के साथ
एक नए जोश के साथ
अनेक अभाव ,अनेक महत्वाकांक्षाएँ -
और सब कुछ प्राप्त !!

लेकिन न अब कोई सुनहरी स्वप्न
न उत्साह, न आशा ,न आशा की आशा -
थका हुआ ,हताश ,पैरों में लड़खड़ाहट !!
सब दूर ,सब कुछ दूर ,बहुत दूर -
आँखों से ओझल
अब अपना कुछ नहीं !!
 रह गए खाली हाथ !!

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Saturday 21 March 2015

 पौत्री के जन्म दिवस का समायोजन 


           पौत्री का जन्म दिवस था। वह दस साल की होने जारही थी। मन में बड़ी उमंगें थीं उसके। एक बड़ी पार्टी का आयोजन करने के लिए मचलने लगी। आकर कहने लगी दादी,पार्टी में क्या-क्या मैन्यू रखें। मैंने कहा बेटा,आजकल की पार्टी के बारे में मैं क्या बताऊँ ,तुम्हारे खाने भी तो उलटे-पुल्टे होते हैं मैं तो उनके नाम भी नहीं जानती,तुम अपने मम्मी-पापा से पूछो न ! सुन  कर दौड़ कर गई। मम्मी से पूछा उन्होंने एक-दो सुझाव दिए,फिर पापा से भी पूछा,एक-दो सुझाव उन्होंने भी दे दिये।लेकिन पौत्री को संतुष्टि नहीं हुई।  मुझे बताया दादी मुझे कुछ नहीं ठीक लगा आप ही  बताओ। मैंने उसे कहा बेटा ऐसा कर,तुम्हारे जो बहुत करीबी दोस्त हों उनसे मिलकर डिसाइड करो उनकी बात तुम्हें ज़रूर पसंद आएगी।  मेरी बात उसे एकदम भागई।
    अपने चार-पांच दोस्तों को समय देकर घर बुलाया और उन्हें अपनी समस्या बताई। उनसे विचार-विमर्श किया।सुनकर बच्चे बड़े खुश हुए ,बड़े उत्साहित हुए। पहले वैन्यू निश्चित किया कि जी आई पी मॉल में जन्म दिवस मनायेंगे ,उसके बाद मिलकर मैन्यू डिसाइड किया कि स्नैक्स में अमुक-अमुक चीज़ें होंगी। फिर बड़ा सा केक जिसे ऑर्डर देकर विशेष प्रकार का डिजाइनदार  बनवाया जायेगा। बलून भी रंग बिरंगे होने चाहिए। अब बारी थी कि समय क्या हो ,किसी ने कहा शाम छह बजे तो कोई बोला नहीं-नहीं ठण्ड होजायेगी तो कोई बोला शाम चार बजे ठीक रहेगा ,अचानक एक आवाज़ आई लंच का समय रखते हैं सन्डे है।सब बोले यही ठीक  रहेगा ,मम्मी -पापा को भी कोई प्रॉब्लम नहीं होगी। वे छोड़ भी जाएंगे और आराम से ले भी जायेंगे।
    तभी एक आवाज़ आई अरे भाई किसी को सॉफ्ट-ड्रिंक की भी याद है ,वह भी  होनी चाहिए। हम तो बच्चे हैं चाय-कॉफी थोड़े ही पीते हैं। सबने सहमति जताई बोले- अच्छी याद  दिलाई पर कौनसी ? एकदम शांति छागई सोचने लगे। और तभी  चारों तरफ से आवाज़ें आने लगी। कोई बोला-लिम्का तो कोई पैप्सी ,कोई स्प्राइट ,कोई थम्सअप ,कोई कोका-कोला कोई माज़ा सब अपनी-अपनी पसंद बोलने लगे। थोड़ी देर तो सोचा कि  बच्चों की पसंद है क्या करें। अचानक दिमाग में आया ऐसा करते हैं ,पर्चियां निकलबाते हैं जिस ड्रिंक के वोट ज्यादा होंगे उसी का ऑर्डर देंगे। ऑर्डर  देने में भी कोई मुश्किल नहीं होगी ,दूकान वाले को भी दिमाग नहीं लगाना पड़ेगा। सबने सहमति जताई। पर्चियाँ तैयार की गईं और एक प्लेट में डालकर एकबच्चे से उठवाई  गई और उसने वह मुझे दी और बोला लो दादी ,खोलो जो भी ड्रिंक्स का नाम इसमें निकलेगा हम सबको वही मंज़ूर होगा अब आप खोलिए। मैंने एकबार सबकी ओर देखा और फिर पर्ची को खोला ,उसमें नाम  निकला माज़ा । यानि सर्वाधिक बच्चों की पसंद थी माज़ा । सभी खुश।
 दूसरे दिन सारी तैयारियाँ बच्चों ने बड़े उत्साह के साथ कीं। ठीक लंच के समय मन पसंद केक काटा गया। बर्थ डे गीत गाया और निराले अंदाज़ में माज़ा की बॉटल खोलकर पार्टी  का प्रारम्भ हुआ। और गिफ्ट एक्सचेंज के साथ पार्टी का समापन हुआ।आशीर्वाद के साथ बच्चों को उनके अभिभावकों के साथ विदा किया। 
  उसदिन जो पार्टी का आनंद बच्चों ने उठाया हमें भी याद रहेगा।नृत्य-गान सभी ने मन को जीत लिया। 


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Thursday 5 February 2015

खट्टी -मीठी -यादें

समय गुज़र  जाता  है     ,बातें    रह जाती  हैं।
समय व्यतीत करने का साधन बन जातीं   हैं।
जो  बातें पहले कड़वी लगती थीं ,
कैसी अजीब बात है ,अब वही मीठी लगतीं हैं। अबतो सब कुछ मीठा-मीठा याद आता है वह लड़ाई-झगड़ा
अब हास्य बन याद आता है। झगड़ा तो मज़ाक ही था।झगड़ा तो प्यार ही था। झगड़ा तो अधिकार ही था --
एक दूसरे पर। साथ रहने की कहानी कुछ और थी पर अलग रहने की और भी विचित्र। खैर ----

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- मैच में जब भारत जीतता तो कहते ,ये to hokey  by dance ,criket by chance वाली  बात है। और मुस्करा
देते।सुबह उठते ही t.b. खोलने की कहते ,बोलते देखो राजे ,रात ही रात में मैच का क्या हुआ

-चुनाव के समय इतना एक्साइटमेंट कि बोलते टी बी बंद मत करना पता नहीं कौन ऊपर नींचे होजाये। असल में टी बी के बहुत शौकीन थे।

कभी- कभी गर्मी में आकर कहते अब बस अपने हाथ की गरम-गरम आधा कप चाय पिलादो।

कभी आकर कहते मैं पूरे घर में देख कर आकर कहते तू यहां बैठी है ,ऐसे मत किया कर मैं कमज़ोर दिल का आदमी हूँ ,ड र जाता हूँ।एक ही तो मेरी राजे है।

मुश्किल ही कभी घर से बाहर निकलते और घुसते ही कहते बेकार है कहीं आना-जाना जो मज़ा अपने घर में है ,कहीं नहीं। अपनी राजे के हाथ का प्यारा-प्यारा खाना खाओ। बेकार है  यहां जाओ वहां जाओ।

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kabhi kabhi kahte ,ki agar meri shadi tumse nahin hoti to mein to bhooka hi marjata

ऑफिस से लौटकर अक्सर कहते ,जैसे ही छुट्टी होती है लोग भागते हैं बस पकड़ने के लिए ,मैं उनसे कहता हूँ भाई घर जाकर चिल-पों ही ही सुननी है न ,आधा घंटे  बाद सुन लेना। इस तरह बातें करके लोगों को हँसाते जिसे लोग आज याद करते हैं।

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एक बार गुस्से में आपा तो खोते ही थे ,बोले -मैं मर जाऊँ तो रोना मत और मैंने भी बोल दिया ,बिलकुल नहीं रोऊँगी बहुत रुला लिया अबतक। अब सोचती हूँ क्या बचकानेपन की बातें होतीं थी।

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बहुदा कहते ये मकान फिफ्टी पर्सेंट मेरा है।अब कहाँ गए ख़ुद और कहाँ  गया वह फिफ्टी पर्सेंट मकान ,न  मैं उसमें न आप।   क्या था यह सब ,बकबास के अलावा।

                                                        ----------------
     
जब कभी पानी बिजली की समस्या से मैँ दुःखी होतीतो कहते देखो राजे अगर ये प्रॉब्लम सबकी है तो मैं बुरा नहीं मानता पर अगर केवल तुम्हारी है तो मैं अपनी ग़लती मान लूँगा। 

 
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ख़ुद बेकार में कभी-कभी गुस्सा होते और मैं चुप होजाती तो कहते बस होगई गुस्सा तुझे पता नहीं मेरे दिलको खोल कर देख राजे ही राजे लिखा है। मैं तो बेफ़्कूफ हूँ पता नहीं क्या-क्या बोल देता हूँ। माँफ भी कर दिया कर। और होगई बात खतम ---
                                                    .


     

मनोगत भाव

                                                            (  1 )

भगवान ने हमें दो बहुत खूबसूरत वरदान दिए ,जिनकी परवरिश में उनका पूरा सहयोग रहा ,  उनकी खशबू फैली सर्वत्र। लेकिन हमारी ओर से ही एक कमी रहगयी ,हमने उन्हें प्यार दिया ,उचित संरक्षण दिया ,लेकिन उसमें जिस लगाव एवं आसक्ति की आवश्यकता होती है ,उसे नहीं दिखा  पाये। लगाव और आसक्ति व्यक्ति को प्रायः कमज़ोर बनाती है इसलिए मैं इसे बुरा  भी नहीं मानती।पर कमी तो है ही। वैसे ये  कमी हमें अधिक महसूस होती है वह भी वृद्धावस्था में ,पर ये  कमी उनके जीवन के विकास में कभी बाधा  नहीं बनी। पर ऐसा भी नहीं है कि उन्हें कभी महसूस ही नहीं हुई हो। हमेशा होती रहेगी। ये माता -पिता का त्याग है जो कभी उनकी उन्नति में बाधा न बना, न बनेगा। इसीलिये वे पूर्णतया आत्मनिर्भर हैं। शुभकामनाओं के साथ --माँ



                                                              ---------

                                                                (  2   )

कभी -कभी आप बहुत याद आते हैं, आप पर बहुत प्यार आता है,क्योंकि साथ रहते हुए तो हमेशा आपके    अकारण क्रोध से भय-भीत रहती थी।हमेशा मानसिक तनाव में ही रहती थी। आपके जाने के बाद तनाव ख़त्म और अब केवल और केवल आपको याद करती हूँ। साथ रहते हुए तो आपके प्रति सहानुभूति, दया और आदर  के ही भाव थे और जब-तब तनातनी ही रहती थी। भर-पूर  प्यार को तो आपने कभी मौका ही नहीं दिया। साथ-साथ घूमे -फिरे पर हम दोनों ही एक प्यार का अभाव महसूस करते रहे। आपके जाने के बाद आपकी यादों को ही प्यार करती हूँ।



                                                            ------------
             
                                                                 (  3  )

कहते हैं कि व्यक्ति की आखिरी इच्छा ज़रूर पूरी करनी चाहिये।अब बताइए मेरी इच्छा कौन पूरी करेगा। आपने तो अपनी सारी इच्छाएँ पूरी करालीं लेकिन मैं ? मैंने चाहा था बच्चों की पोस्टिंग आने वाली है उनके जाने के बाद मैं आपके साथ रहकर आपके मन का खाना खिलाऊँगी तो आपका स्वास्थ्य ठीक हो जायेगा।लेकिन वैसा नहीं हुआ। क्योंकि किसी का घर में रहना,आना,दो घंटे भी टिकना पसंद नहीं था। बच्चे आपकी परमिशन लेकर आये थे ,पर आपको कुछ दिन बाद ही मुश्किल होने लगी थी लेकिन बच्चे हमारे हैं क्या करते और आप चले गए। किसी का कोई कुसूर नहीं था ,समय प्रबल था  अच्छा हुआ। पर अब आप बताइये कि मेरी इच्छा कैसे पूरी हो सकती है। आपने हमेशा अपनी इच्छा पूरी कीं और जब नहीं होपाईं तो चल दिए।भाग्य मेरा  !!!

                                                           -------------
                                                             (  ४  )


एक वर्ष बहुत दुःखी रही ,बहुत सन्तप्त रही,अपने आप से बहुत ग्लानि होती रही। पर  अचानक उत्पन्न ऊर्जा में सब कुछ भस्म होगया। वह पल जिसे मैं घातक समझ रही थी ,मेरी ज़िदगी का प्रेरक पल था ,ईश्वरीय सत्ता से प्रेरित था। इसे मैंने एक वर्ष व्यतीत होजाने पर स्वयं महसूस किया। आज मैं खुश हूँ, संतुष्ट हूँ,शान्त हूँ,मन में  शिकवा ,शिकायत नहीं है।  यह ऊर्जा ईश्वरीय प्रेरणा ही थी। हे ईश्वर !आपको कोटिशः प्रणाम !!


                                                          -------------
                                                           
                                                               ( ५  )

मैंने तो चाहा था कि मैं नॉएडा में ही रहूँ और जब-तब जैसे आपके साथ आती - जाती रहती थी वैसे ही बच्चों के पास जाती रहूँगी। लेकिन वैसा हो न पाया। बहुत से सवालों का सामना करना पड़ रहा था। आप तो चले गए ,समय तो मुझे व्यतीत करना था ,वह भी नहीं पता कितना !फिर सोचा मेरे वहाँ अकेले रहने से  अनुपम भी तो चिंतित  रहता ही होगा ,वह कुछ कहे या न कहे साथ रहने का आग्रह तो करता ही था। इसलिए सबकुछ भुला कर बच्चों के साथ ही रहने का निश्चय किया और यही ठीक भी लगा। अपनी इच्छाएँ समाप्त करो ,क्या ,क्यों बंद करो और जो है उसी में खुश रहो। बस इसके बाद तो दुःख काहेका !बल्किअनुपमके चेहरे पर जो संतोष दिखाई देता है मैं उसी में संतुष्ट हो लेती हूँ। फिर आपकी बहू और ईलू का अच्छा साथ है। ईलू बहुत अच्छी बातें कर हँसाती रहती है। अरमान ज़्यादा न रखो तो तकलीफ किस बात की !बच्चों के साथ खुश हूँ। समय व्यतीत करने में भी कोई मुश्किल नहीं होती। आपको और भगवान को याद कर कट ही रहा है,कब तक यह तो पता नहीं।

                                                     
                                                                (  6  )                        
                                                           

सुहाग के वो आखिरी पल जो  ---जुलाई २०१५।

 
    ज़िंदगी के सर्वाधिक दुखदायी थे ह्रदय- विदारक और कष्ट -पूर्ण थे ,आँखों के सामने का  वह अविस्मरणीय दृश्य ,जिसे भोगा जो विचलित करनेवाला अत्यधिक  शोक पूर्ण था , बहुत याद आता है। न जाने क्या था उन पलों में कैसा संतोष था उन दुखद पलों में भी, जो यादगार बनगया -
     चाय के दो - तीन घूँट पिलाना और -
     बीच - बीच में बिस्किट खिलाना उसके बाद
     एक सेंड विच का पीस खिलाना और फिर उनकी डाँट -
    "खिलाना है तो बिस्किट खिलादो नहीं तो रहने दो "
आखिरी उनके ये मूल्यवान शब्द ,जिसके बाद उनकी वह आवाज़ सदा - सदा के लिए शून्य में विलीन होगयी वे मर्म भेदी पल बहुत याद आते हैं पर एक संतोष के साथ !! न जाने कौनसा सन्तोष !!!
और महसूस होता है जैसे इन पलों में मेरा उनसे साक्षात्कार हो रहा है। शायद यही सन्तोष है।

                                                       ---------------
 
             
                                                           

      

Monday 2 February 2015

कसक

कसक:आन्तरिक - पीड़ा 

मैंने सदा आपका साथ दिया अपने घरवालों  भुला दिया। अपने बच्चों का भी उतना ही साथ दिया जो बहुत आवश्यक था। हमारी बेटी के साथ जो हुआ नियति का ही विधान था। उस समय को याद करती हूँ तो आज भी घबरा जाती हूँ। आप केवल चिन्ता करते थे , गुस्सा करते थे और मानसिक रूप से अस्वस्थ हुए चले जारहे थे उसको भी लेकर परेशान। हमारी बेटी का परेशान चेहरा जिस पर न जाने कितने प्रश्न। ऊपर से वह वकील जोअपना ही नहीं रहा था,हमारी तो सुन ही नहीं रहा था।और हमारी बेटी उसे पूरा पैसा दे रही थी ,उसके  परिवारके लिए भी खाना अरेन्ज करतीं ,जूस लेकर पिलाती।घर से शिकंजी या कुछ और ठंडा लेकर जाती। पूरा भरोसा करती कि सब कुछ ठीक होगा। लेकिन नतीजा ज़ीरो मिला।
      सारी उलझन का असर था कि सब परेशान और ऊपर से  आप तो आप मैं भी अपनी बेटी के साथ  अनुचित और असंगत व्यवहार कर जाती थी जिसका दुःख आज भी मुझे है। कभी आप,कभी बेटी का चेहरा !! बिलकुल अकेली पड़गयी थी मैं। तब किसी तरह बेटी को समझा-बुझाकर नेट पर लड़का ढूँढने का आग्रह किया और ईश्वर ने दया की ,उसे इस काम के लिए आज्ञा दी।सब काम को उसने कितने संतोष व धैर्य से किया आपको कोई मतलब नहीं था। विवाह होने तक आप इस पूरे मुकाम से ऐसे छिटक कर दूर रहे थे जैसे किसी और का काम होरहा है।
    उस समय मैं बेटी को समझाती रहती ,प्रोत्साहित करती उसे सहारा देती क्योंकि काम तो सारा उसे ही करना था। कभी सिटी मजिस्ट्रेट के दफ्तर, कभी नोटरी दफ्तर ,कभी कुण्डली मिलवाने पंडित के पास ,कभी  नॉएडा कोर्ट में पेपर सबमिट करने ,कभी आर्य -समाज मंदिर में ,कभी गिफ्ट देने के लिए सामान खरीदने  लिए जाना ,कभी कैटरर फिक्स करना ,इन सब कामों में आप कहाँ थे। आभारी रहूँगी आपकी कि नकारात्मकता तो दिखाई किन्तु विरोधी बनकर सामने खड़े नहीं हुए ,आगे बढ़ने से रोका नहीं। आपने  खड़े होकर परिवार के सम्मान को बनाये रखा उस पर  आंच नहीं आने दी। और काम सकुशल संपन्न हुआ।
     
                                                 ----------
         

    
                

Monday 26 January 2015

सब्स्टीट्यूशन की देवी ( godess of substitution ) ---एक हास्य रचना---


सब्सीट्यूशन की देवी  ( एक हास्य रचना )

स्कूल में पढ़ाते हुए मुझे " सब्स्टीटूशन " का काम मिला, इस काम को करते हुए मेरा जो अनुभव रहा उसे मैंने अपनी इस रचना में व्यक्त किया है -----

न  मैं किसी की   मित्र थी , न कोई  मेरा  मित्र  था
काम ही कुछ ऐसा था कि कोई खास बना ही न था
संकोची   स्वभाव था  सबके प्रति  मान  था
कम  बोलना  ही अपना कुछ स्वभाव   था

प्रायः इस स्वभाव का मिला परिणाम अच्छा ही
पर अब इस स्वभाव का मिला परिणाम उल्टाही
मिला मुझको जबसे इस सब्स्टीट्यूशन का काम
स्वभाव  पर  लगने  लगे  मेरे    इल्ज़ाम

अक्सर  ही एक  दो  होजाती  हैं  गोल
मुझ पर आजाती  है मुसीबत  बेमोल

कोई   कहता  दो क्यों   लगाये ,कोई कहता  कल मत देना
कोई  कहता " फेवर " होता  है ,कोई  कहता मैं  " रेग्युलर " हूँ "why i should be punished "

इस पर भी कुछ तो कुछ नहीं  कहते  ,जिनकी हूँ मैं बड़ी आभारी
पर    कुछ   तो   मार  जाते   हैं  अपनी       मुस्कान  की  कटारी

फिर  भी मिलता है सहयोग इसी से हूँ  आभारी
तभी      निभा पाती हूँ   इतनी बड़ी  ज़िम्मेदारी।

        धन्यवाद  " सब्स्टीट्यूशन की देवी "

                                --------
   

माँ तो केवल माँ होती है


माँ तो केवल माँ होती है --

अनेक बार ऐसा सुना जाता है पर मैंने यह स्वयं देखा है। एक महिला अपनी बेटी के विवाह में उसकी दादी को उसके अशुभ होने की दुहाई देकर विवाह के किसी भी कार्य-क्रम में सम्मिलित होने से रोकती रही। दादी माँ का
आशीर्वाद लेने के लिये बेटी चीखती-चिल्लाती रही पर उसकी माँ ने उसके दादा के न रहने के कारण दादी  से दूर ही रखा। यह रचना एक ऐसे ही दृश्य से प्रेरित होकर लिखी गयी थी----

जीवन के झंझावातों में ,हर मुश्किल और हर तूफाँ में ,
माँ दुर्गा का रूप वहन कर ,हर दुर्गम पथ पर चल देती
                                  तब भी क्या वह --------------        
                                  माँ तो केवल माँ होती है ------

बचपन से वृद्धावस्था तक ,कभी न थकती कभी न दुखती
माँ पत्नी और भगिनी बनकर ,दिन और रात  दुआएँ  देती -----
                                  फिर भी क्या वह -------------- 
                                  माँ तो केवल माँ होती है ----

न वह विधवा न वह सधवा न वह अबला न वह सबला
इकली हो या दुकली हो पर वह तो केवल माँ होती है
                                मंगल की इस मूर्तिमयी इकली माता को ,
                                नमन ,शत नमन   औ '       अभिनन्दन,ऐसी माँ तो माँ होती है।
                                                    ---------