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Friday 30 July 2021

    राजा हरिश्चन्द्र कथा      ( 3 )

    एक बार इंद्र-लोक में एक सभा का आयोजन प्रशासनिक समस्याओं के विचार-विमर्श के लिए किया गया। इसमें इंद्र-लोक,पृथ्वी-लोक के सभी ब्रह्मर्षियों को आमंत्रित किया गया। महर्षि विश्वामित्र को भी आमंत्रित किया। सभा के प्रारम्भ होने पर देवता इंद्र ने सभी आगन्तुकों से कहा-आप मेरी शंका का समाधान करें। मैं जानना चाहता हूँ कि सृष्टि में सबसे मूल्यवान वस्तु क्या है ? 

     सभी ने अपनी ओर से अलग-अलग उत्तर दिए,किसी ने कहा-ज्ञान,किसीने कहा-न्याय,किसी ने धन तो किसी ने भक्ति। नारद जी ने मुनि वशिष्ठ से कहा-ऋषिवर आप भी बतायें। तब ऋषि ने कहा-सबसे श्रेष्ठ और उत्तम सर्वोपरि केवल 'सत्य' है। नारद जी बोले-पर इसकी मर्यादा की रक्षा तो बहुत कठिन है.इसका पालन करना तो बहुत कठिन है। ऋषि ने कहा,हाँ कठिन तो है। नारद जी ने कहा-यदि किसी का पुत्र, पत्नी बिछुड़ जाएँ ,घर में कोई और मुसीबत भी आ जाय तो भी सत्य का पालन संभव है क्या,कोई है ऐसा जिसे आप जानते हैं ? ऋषि बोले हाँ,अयोध्या के राजा सत्यव्रत के पुत्र राजा हरिश्चन्द्र सत्यवादी हैं। सुनते ही ऋषि विश्वामित्र बड़ी ज़ोर से हँसे। नारद जी बोले-ऋषिवर ,आप क्यों हँसे ? ऋषि बोले- हँसू नहीं तो क्या करूँ,कोई राजा सत्य धर्म का पालन कर सकता है क्या ?उनकी  इस बात को सुन कर सभा को दूसरे दिन तक के लिए स्थगित कर दिया गया। असल में विश्वामित्र को हरिश्चन्द्र की परीक्षा लेनी थी।दूसरे दिन निश्चित समय पर सभा प्रारम्भ हुई। राजा हरिश्चन्द्र ने मंत्री से पूछा-नगर में सब सकुशल तो है ! मंत्री ने कहा-हाँ महाराज सब ठीक है। राजा ने कहा-हमारे योग्य कोई सेवा ?

    मंत्री ने कहा- महाराज नगर के दो नागरिक आपस में लड़ रहे हैं,उनमें विवाद होरहा है। राजा ने कहा-उन्हें बुलाओ। दोनों नागरिक चंद्रगुप्त और कालगुप्त सभा में प्रवेश हुए,चंद्रगुप्त ने कहा-महाराज,कुछ दिन पहले कालगुप्त ने मुझसे धन लिया था कुछ दिन में बापस कर देगा यह कह कर लेकिन अब ये झूठ बोल रहा है कि इसने मुझसे कोई धन नहीं लिया। राजा के सामने कालगुप्त बोलै-महाराज मुझे कोई भी दंड दीजिये मैनें धन लिया था लेकिन आपके सामने मैं झूठ नहीं बोल पाया। मैं इसका धन लौटा दूँगा। राजा ने कहा-ये तुम्हारा पहला अपराध है,इसलिए माफ़ किया। इस तरह राजा का सत्यवादी रूप सामने आया।उनके सत्य के आगे कोई झूठ नहीं बोल पाता।

    उसी समय विश्वामित्र आते हैं। राजा हरिश्चन्द्र उन्हें देखते ही उनका स्वागत करते हैं बैठने के लिए अनुरोध करते हैं।पूछते हैं-ऋषिवर,आश्रम में सब सुरक्षित हैं,आपका जप-तप बिना किसी बाधा के चल रहा है ,आपकी सभी आवश्यकताएँ निर्विघ्न पूरी होरही हैं ? ऋषि ने कहा-सब ठीक है पर आपसे अपने यज्ञ के लिए विशाल धन-राशि की माँग है। राजा बोले-बताइये कितना धन चाहिए। विश्वामित्र ने कहा-एक हाथी के ऊपर चढ़ कर कोई एक रत्न जितनी ऊँचाई तक फेंक सके उतना धन चाहिए। राजा ने इसे अपना सौभाग्य मान कर मंत्री से तुरंत ऋषि की माँग पूरी करने के लिए कहा। ऋषि ने कहा-अभी नहीं यज्ञ का कार्य निश्चित होने पर मैं आपसे ले लूँगा  तब-तक ये धन आप अपने ही पास रखिए। राजा ने कहा-जो आदेश ! यशस्वी भव ! कह,ऋषि ने प्रस्थान किया। 
इसके बाद विश्वमित्र ने राजा हरिश्चंद्र की परीक्षा के लिए नगर में अपनी तपस्या के बल पर अनेक जंगली जानवर छोड़ दिए जिससे नगर में हा हाकार मच गया। शिकायत मिलने पर राजा ने उन सभी जानवरों को मार दिया।

    किन्तु ऋषि विश्वामित्र ने एक और परीक्षा लेनी चाही और उसके लिए ऋषि ने राजा से स्वप्न में  उनका  राज-पाट माँग लिया। अगले दिन विश्वामित्र राज्य सभा में आते हैं। राजा ने उनका अभिवादन किया और सेवा का अवसर माँगा। तब ऋषि उन्हें स्वप्न के बारे में ध्यान दिलाकर उनसे पाँच सौ स्वर्ण-मुद्रा दक्षिणा के रूप में माँगते हैं,राजा ने अपने मंत्री को कोष से मुद्रा लाकर देने का आदेश दिया। ऋषि ने कहा-महाराज,आपने राज-पाट दे दिया तो कोष भी अब आपका नहीं है। राजा ने अपनी मजबूरी बता कर असमर्थता जताते हुए कहा-ऋषिवर,अब तो मेरे पास कुछ नहीं है मुझे कुछ समय दीजिये।ऋषि की अनुमति पाकर,ऋषि को सम्पूर्ण राज्य सौंप कर पत्नी और पुत्र के साथ काशी चले गए। लेकिन कोई काम न मिलने पर राजा ने रानी और राजकुमार को एक स्वर्णकार को बेच दिया लेकिन मुद्राएँ फिर भी पूरी नहीं हुई। तब राजा ने स्वयं को एक श्मशान भूमि  में जाकर स्वयं को बेच दिया।जहाँ उन्हें किसी शव का दाह संस्कार करने से पहले 'कर' वसूलना होता था।

  ऋषि की परीक्षा अभी समाप्त नहीं हुई थी,कि  एक दिन तारामती जहाँ काम करती थीं वहाँ बगीचे से पूजा केलिए फूल लेते  समय पुत्र रोहित को साँप ने डस लिया सही उपचार न होने के कारण वो मृत्यु को प्राप्त होगया। तारामती रात्रि में ही पुत्र के पार्थिव शरीर को लेकर श्मशान भूमि में पहुँचीं। राजा ने 'कर' माँगा लेकिन तारामती ने कहा-मेरे पास तो कुछ भी नहीं है तभी अचानक बादलों से बिजली चमकी जिसमें राजा ने पत्नी-पुत्र को पहचान लिया लेकिन सत्यव्रती राजा ने कहा 'कर' तो देना होगा। ऐसा करो कि अपनी साड़ी का कुछ भाग फाड़ कर 'कर' देने का काम पूरा कर सकती हो। किन्तु जैसे ही रानी साड़ी फाड़ने को तैयार होती हैं तभी आकाश से देवताओं ने राजा की विजय का उद्घोष कर दिया। उल्लसित देवताओं ने श्मशान पर पुष्प वर्षा की। तभी ऋषि विशवामित्र उपस्थित हो गए प्रसन्न होकर अभिमंत्रित जल छिड़क कर पुत्र रोहित को पुनर्जीवित कर दिया। और राजा को उनका राज-पाट भी वापस कर दिया। 

  इस प्रकार राजा ने अपना सब कुछ बेच कर अपने सत्य व्रत का पालन किया। राजा हरिश्चंद्र का नाम उनकी सत्यवादिता और धर्मवादिता के लिए एक अनूठा  उदाहरण है। आज उनका नाम पुराणों में आदर और श्रद्धा के साथ जाना जाता है।  

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     इस 






  




    





           


  




        

    

Tuesday 20 July 2021


नारी के सन्दर्भ में प्रायः लिखती रही हूँ ,आज मन किया कि उसे भारतीय-संस्कृति का भी ध्यान दिलाया जाय तो कुछ शब्द लेखनी से बरबस निकल पड़े --


अरे कभी तो -----------------!!


अरे कभी तो पत्नी बन कर देखो ;

कितना आनंद है !

कभी एक मीठी मुस्कान के साथ -

नयन चार करके देखो ;

मौसम बदल जायेगा !

कभी एक कप कॉफी ऑफर कर देखो ;

अद्भुत दृश्य समक्ष होगा !

कभी डोर पर आने से पहले -

दरवाज़े पर खड़ी होकर तो देखो -

दिन-भर की थकान दूर होजायेगी !

कभी कोरोना काल के बचाआत्मसंवाद व के साथ -

एकाकी घूमने की इच्छा तो व्यक्त करके देखो -

खुला आसमान बाहें फैला कर तुम्हारा स्वागत करेगा !

कभी जन्म-दिवस पर गिफ्ट न देकर -

होटल में खाना न खाकर -

भारतीय शैली में भारतीय खाना खिला कर तो देखो ;

जीवन की सारी  शिकायतें दूर हो जाएँगी !

कभी सॉरी तो कभी प्लीज़ भी कह कर ,

कभी छोटी-बड़ी किसी भूल को ,

इग्नोर करके तो देखो ;

जीवन के रंग बदल जायेंगे !

 अरे कभी तो  --------------


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Monday 12 July 2021

 श्री कृष्ण : कुब्जा उद्धार -    ( 1 )


   एकबार भगवान् कृष्ण अपने भाई बलदाऊ के साथ कंस के यज्ञ में इस्तेमाल होने वाले धनुष के दर्शन के लिए मथुरा जारहे थे,तभी रास्ते में उन्हें भीनी- भीनी सुगन्ध आने लगी,कृष्ण जी ने कहा-दाऊ भैया ये खुशबू कहाँ से आरही है। देखो वो सामने स्त्री आरही है शायद उसके ही पास से आरही है,चलो देखते हैं।

   वो स्त्री,ही कुब्जा थी। कंस की दासी थी,वो हर-दिन कंस के शरीर पर चन्दन और अंगराग का लेप लगाती है  इसलिए कंस के राज भवन जा रही थी,.

  कृष्ण जी बोले -सुंदरी ! ये डलिया में चंदन और अंगराग लेकर कहाँ जा रही हो।इसे हमें देदो।  

  कुब्जा को ये सुन कर बहुत गुस्सा आया.बोली - तुम मेरा मज़ाक बना रहे हो,आज तक किसी ने मेरा ऐसा मज़ाक नहीं बनाया,हमेशा छुपते-छुपाते निकल जाती थी कि कोई मेरा मज़ाक न बनाये,लेकिन हमेशा कोई न कोई मिल ही जाता है पर इतना गन्दा मज़ाक किसी ने नहीं किया।

  श्री कृष्ण बोले-सुंदरी,मैं कोई मज़ाक नहीं बना रहा मैं तो वही कह रहा हूँ जो सच है। कुब्जा बोली-तुम्हें मैं सुन्दर दिखाई देती हूँ ? मैं कुरूप,कुबड़ी तुम्हें सुन्दर दिखाई देती हूँ। आज तक सबके व्यंग्य-बाण मैं सुन लेती हूँ क्योंकि ये सच है,मैं कुरूप हूँ,कुबड़ी हूँ पर ऐसा भद्दा उपहास किसीने नहीं किया। तुमने मेरे हृदय पर गहरे घाव किये हैं,मेरा हृदय छलनी कर दिया। 

    कृष्ण जी बोले-सुंदरी गुस्से में तो तुम और भी अधिक सुन्दर लगती हो। मैंने ने तो   वही कहा जो सच है। मैं किसी के शरीर को नहीं देखता, मैं तो उसकी आत्मा को देखता हूँ।मैंने तो तुम्हारी परम सुन्दर आत्मा देखी है।

  कुब्जा ने कहा- आत्मा को कौन देखता है। 

   भगवान् कहते हैं-मैं देखता हूँ। सुंदरता तो मनुष्य के कर्मों के अनुसार होती है। वृद्धावस्था में तो सुन्दर शरीर भी मुरझा जाता है और जब कर्मों का  समय बदलता है और पुण्य कर्म उदय होते हैं तो कुरूप शरीर भी कमल की तरह सुन्दर हो जाता है।  

   मैं देख रहा हूँ कि तुम्हें जिन कर्मों के कारण ये शरीर मिला है उन कर्मों के भी समाप्त होने का समय आगया है। तनिक स्थिर तो हो जाओ,उसकी लाठी लेते हैं और उसका हाथ पकड़ते हैं। 

  तभी कुब्जा कहती है,अरे अरे ये क्या कर रहे हो ये चंदन और अंगराग तो मैं महाराज कंस के लिए ले जारही थी अगर ये मिट्टी में मिल गया, तो वो मेरी गर्दन ही काट देंगे।

 भगवान कहते हैं कि देवी,जब मैंने तुम्हारा हाथ पकड़ लिया तो अब तुम्हारा कोई कुछ नहीं कर सकता। अब ये डलिया मुझे देदो।

  कुब्जा एकटक देखती है और कहती है ,तुम कौन हो ! लगता है ये चन्दन और अंगराग  वर्षों से तुम्हारे लिए ही ला रही हूँ। मेरी आत्मा के अंदर से आवाज़ आ रही है,पगली,क्या सोच रही है,अपना सर्वस्व इनके चरणों में समर्पित करदे। मैं नहीं जानती तुम कौन हो पर मन कर रहा है कि जिस चन्दन अंगराग से उस पापी कंस के शरीर पर लेप करती आरही हूँ वैसे ही आज तुम्हारे अंगों को इस से सुबासित करदूँ।

  श्री कृष्ण कहते हैं-फिर तुम्हारे महाराज क्या कहेंगे। 

  कुब्जा कहती है ,कौन महाराज, कैसा महाराज ! अब तो मुझे कुछ नहीं दिखाई दे रहा चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश दिखाई देरहा है। और उस  प्रकाश में मैं डूबती चली जा रही हूँ। जैसे मेरा अस्तित्व ही नहीं रहा। और वह गिरती है वैसे ही भगवान् ने उसके पैरों को अपने पैरों से दबाया और हाथ से उसकी ठोड़ी को उठाया,और कुब्जा को एक सुन्दर सजी-सजाई नव युवती का रूप प्रदान किया। 

  कुब्जा अपने आपको देखती है,दोनों हाथ फैलती है जैसे कुछ चाहती है,    

  भगवान् बोले ,बताओ तुम्हें अब क्या चाहिए ? कुब्जा कहती है तुम्हीं ने तो मुझमें  ये भावना जगाई है, लो ,ले लो,ये डलिया,अब तुम मेरी कुटिया में चलो तुम्हारा शरीर  चन्दन और अंगराग से सुबासित करूंगी। भगवन कहते हैं,अभी नहीं। तुम्हारा हम पर पिछले जन्म का ऋण है हमें वो भी चुकाना है। पिछले जन्म में जब हम राम अवतार में धरती पर आये थे तब तुमने हमारे लिए तपस्या की थी ,तपस्या का फल इस जन्म में अवश्य पूरा करेंगे।किन्तु अभी नहीं। हम अवश्य एक दिन तुम्हारी कुटिया में आकर तुम्हें सेवा का अवसर प्रदान  करेंगे ।

सुन कर शान्त होकर,कुब्जा कहती है-कोई बात नहीं। जब इतने वर्ष प्रतीक्षा की है तो कुछ दिन और अपनी कुटिया में आपके आने की राह देखूँगी। चरणों में झुकती है शीश नवाती है। 

       आशीर्वाद देते हुए भगवान् अदृश्य हो जाते हैं।

     





 



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परवरिश 

     बड़ा ही प्रचलित शब्द ! सामान्य सा अर्थ ! परन्तु अपने आप में कितना गंभीर अर्थ समेटे हुए है, अनभिज्ञ है जन मानस इसकी गंभीरता से ! 

    प्रायः लोग समझते हैं कि परवरिश का अर्थ है,पालन-पोषण यानि बच्चे का खाना-पीना,पढ़ाई-लिखाई,पहनावा।पर क्या यही बस काफी है ! जी नहीं ! बिलकुल ना काफी है। फिर उसके सामाजिक विकास का क्या होगा, पारिवारिक विकास का क्या होगा,व्यावहारिकता  कहाँ से सीखेगा, सम्बन्धों की महत्ता कहाँ से समझेगा।ध्यान रहे बालक की प्रथम पाठशाला घर ही है समय से उठना,बड़ों का अभिवादन करना भगवान का स्मरण करना,आदि सभी बाते तो माता-पिता के ही दायित्व में आती हैं।  जब तक बालक विद्यालय नहीं जाता तब तक शिष्टाचारगत बातें वह घर से ही सीखता है।जीवन की मज़बूत नींव घर में ही डाली जाती है।  

 सच तो ये है कि जबसे एकल परिवारों का चलन हुआ है और संयुक्त परिवारों का विघटन हुआ है, पूरी तरह से आज की पीढ़ी का ही मानसिक संतुलन डगमगा गया है, तो सोचिये उनकी सन्तान का क्या होगा, सोचिये ज़रा ! सबके अपने अनुभव भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। 

       असल में,मैं ऐसा मानती हूँ, कि जब से एकल परिवारों का चलन हुआ है,सबसे अधिक दोष समाज में इसी कारण  दिखाई दे रहे हैं। एक तो माता-पिता में स्वयं  मनोवैज्ञानिक जानकारी का अभाव और उसके ऊपर परिवार की सत्ता की बागडोर, मुखिया-पद की ज़िम्मेदारी,फिर काम-काजी होने की व्यस्तता ने तो आत्म-नियंत्रण का सर्वथा अभाव पैदा कर दिया है !! माता-पिता का पक्ष देखें तो पायेंगे कि कुछ तो हर समय अपने बच्चों में कमियाँ ही देखते रहते हैं उन्हें टोकते रहते हैं और इतना ही नहीं उनकी उन कमियों को औरों के समक्ष उजागर करने में नहीं चूकते।यहाँ पर ये जानना भी ज़रूरी है कि एक तरह से वे खुद की कमियों को ही छुपाते हैं।उनमें खुद संतुलन नहीं,खुद में आत्म-नियंत्रण नहीं,तो  अपनी तरफ से ध्यान डाइवर्ट करने के लिए वे ऐसा करते हैं।

     इसके विपरीत कुछ माता-पिता ऐसे होते हैं जो अपने बच्चों में गलतियाँ देखना-सुनना ही पसंद नहीं करते हैं।और अपने बच्चों के प्रति इतने पुसेसिव होते हैं कि वे स्वयं उन्हें छूट देते हैं फिर शिकायत आने पर वे भी उनकी कमियों को स्कूल पर या अपने पड़ोसी पर डाल कर अपनी ही कमियों को छुपाने का प्रयास करते हैं। पीड़ित कौन ! वे अबोध बच्चे जो सही-गलत से अनजान हैं, ना समझ होते हैं। वे या तो अंदर ही अंदर घुटते हैं या समय पाकर अपना गुवार कुछ भी उचित-अनुचित तरीके से निकालते हैं। ये ही माता-पिता स्वयं को परम कुशल,निपुण घोषित कर अपनी ही आने वाली पीड़ी के गुनहगार बनते हैं। बच्चों का भविष्य दाँव पर लगाते हैं।

      कमियों को छुपानेवाले माता-पिता तो बच्चों के सर्वाधिक घातक  व दुश्मन हैं। जैसे यदि बच्चों की कोई शिकायत स्कूल या पड़ोस से मिलती है,वह छोटी भी हो सकती है,जैसे गृह-कार्य,कक्षा-कार्य न करना या पड़ोस में लड़ाई-झगड़े की।और बड़ी तो कई तरह की हो सकती है जैसे क्लास बंक करना,घर से पैसे चुराना,या अन्य किसी प्रकार की।पर समाधान खोजने के बजाय या किसी से डिस्कस करने के बजाय बच्चे की कमी पर न तो उसे कुछ सीख देते हैं न कोई चेतावनी देते कि कभी आगे ऐसा नहीं करना। 

      यहाँ तक कि माता-पिता आपस में ही बच्चे की कमियों को छुपा कर चुप रह जाते हैं और सारा दोष स्कूल और  पड़ोस पर ही डाल कर बच्चे को खुली छूट दे देते हैं।ये  माता-पिता का निहित स्वार्थ ही तो है कि 'लोग क्या कहेंगे"। ऐसा ही एक और उदाहरण  जब माता-पिता ये कह कर मुक्त होजाते हैं कि "भोगेंगे खुद ही भविष्य में".कमाल के माता-पिता होते हैं वे ! सर्वाधिक स्वार्थ का घिनौना  रूप है ! पर अपने सुख-संतोष के लिये उन्हें जो अच्छा लगेगा वो वही करेंगे, परिणाम कुछ भी हो ।  

      सच तो ये है, संयुक्त परिवार में रह कर बालक का समुचित विकास होता है ,घर के छोटे-बड़ों के साथ,आने-जाने वालों के साथ रह कर अनजाने में ही वह कितना सीख जाता है पता भी नहीं चलता। आज के बच्चे बहुत समझदार हैं,लेकिन सही गलत की जानकारी उसे साथ रहने से ही आती है। माता-पिता जो काम किसी स्थिति में नहीं कर पाते हैं उन्हें पता भी नहीं चलता कि बच्चे ने ये सब कहाँ से और कब सीखा।अनावश्यक रोकना-टोकना गलत है लेकिन सीखने-सिखाने के लिए ये आवश्यक भी है। जिसके अभाव में बच्चा अनेक 'सीखों" से अनभिज्ञ रहता है।शेयर करना, जैसे शब्दों को नहीं जानते,अपनी वस्तु किसी को देना,अपनी समस्या किसी को बताने से सकुचाना जैसी कमी के होने से उनका विकास अवरुद्ध  होरहा है। कारण उन्हें वे अवसर ही नहीं मिलते,और इसके ऊपर  कोरोना ने तो परिवार में अपना बसेरा ही करलिया है। आइसोलेटेड ही होगया है उनका जीवन ! 

    एकल परिवार और संयुक्त परिवार दोनों की चुनिंदा अच्छाइयों को बच्चे के सम्पूर्ण विकास के लिए ध्यान में रखना होगा। जैसे कुछ दिन बच्चों को अकेले दादा-दादी,नाना-नानी,चाचा-चाची,मांमां-मांमी और मित्रों के घर जहाँ उनके हम उम्र बच्चे हों,भेजना चाहिए। पारस्परिक लड़ाई-झगड़े,छेड़-छाड़,हँसी-मज़ाक से बहुत कुछ स्वतः सीखने को मिलता है।उन्मुक्त वातावरण में रह कर वह स्वावलम्बन का भी पाठ सीखता है। 

   संयुक्त परिवार में तो अहर्निश जो बातें होती हैं उनमें हमेशा ही कुछ सीखने-सिखाने को मिलता है,जिन्हें हर कोई स्वीकार भी करता हैं,और "जीते" भी हैं उन सीखों को।पर  आज की पीढ़ी तो सर्वथा अनभिज्ञ है, उन सीखों से।और अगर कोई कुछ कहता है या समझाने की कोशिश भी करता है तो बड़े ही असहज होकर उन सीखों को हँस कर टाल देते हैं।    

    सँभलना होगा माता-पिता को। माता-पिता का पर्याय है:बलिदान ! सब-कुछ भूलना होगा,अपने पद की गरिमा के लिए।ये सब करना होगा। 


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