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Saturday 20 December 2014

आशीर्वाद पितरों का -----

 पितृ-सत्ता होती है,उनका आशीर्वाद भी होता है। लोगों को ऐसा विश्वास है,पर अगर  सचमुच इसका अहसास प्रत्यक्ष हो तो  क्या कहें !मुझे  हुआ है। कोई कह सकता है कि भ्रम हुआ होगा,मैं ये सुनने को तैयार हूँ। पर जो मैंने देखा और महसूस किया  उसे सबके सामने रखना भी मैं आवश्यक समझती हूँ।
                                               (१ )
          हुआ यूँ एक बार मेरे बेटे की परीक्षाएँ चल रही थी ,हमें दिल्ली में हनुमान मंदिर जाना था।मैं,मेरे पति और मेरी बेटी ही मंदिर के लिए रवाना होगये। बेटे के  खाना आदि का प्रबंध कर दिया। मंदिर से आते-आते शाम होगयी। जब घर पहुंचे तो बेटे अनुपम ने दरवाज़ा खोला ,अंदर जाकर एक विचित्र ही दृश्य देखा ,एक प्रौढ़ महिला घर  में बैठी हुई थी। हमें देखते ही खड़ी हुई और बोली बेटा इसे डांटना नहीं ,मेरी वजह से इसने खाना भी नहीं खाया और मेरा ही ध्यान रखता रहा , पढ़ ही रहा है अब मैं चलती हूँ ,पर बेटा इसे डांटना नहीं।मुझे किसी ने बताया था कि यहां कोई किराये का मकान है पर वैसा कुछ नहीं है खैर थक गयी थी इसलिए बैठी रह गयी।
          उसके जाने के बाद सोचा अनुपम नासमझ तो  है नहीं ,एक अनजान को कैसे दरवाज़ा खोल कर सहारा दे सकता है। उससे पूछा भी कि क्यों घुसा लिया,कोई ग़लत इंसान हो सकता था पर उसके पास कोई उचित जवाब नहीं था।बहुत सोच विचारने के बाद उस महिला की बातें याद कर  समझ आया कि ये महिला कोई और नहीं शायद बेटे की दादी ही थीं  परीक्षाओं में व्यस्त पोते को अकेला नहीं देख  सकीं।और उसका सहारा बन कर आगयीं थी।           
                                                     (२ )      ---------------------------
एक और  इसी तरह की घटना ! पितृ-पक्ष चल रहा था। बेटा अनुपम पड़ौस से ही पंडितजी को बुलाने गया था। पंडितजी ने कहा तुम चलो बेटा मैं  आरहा हूँ। अनुपम बापस आरहा था कि साइड की सड़क से एक बुज़र्ग से व्यक्ति आये  पास  आकर बोले -बेटा चलो ,कहाँ जाना है ,मैं साइकल से  छोड़ देता हूँ। अनुपम ने कहा -नहीं,अंकल मैं चला जाऊंगा।  फिर भी उन्होंने बार-बार उससे छोड़ने के लिए कहा और उसके मना  पर फिर वह दूसरी दिशा में चले गए। अनुपम सोचते -सोचते आ रहाथा तभी उसने पीछे मुड़  कर देखा  वहां कोई नहीं था ,दूर तक कोई  नहीं दिखाई दिया। जब श्राद्ध कार्य समाप्त हुआ ,पंडितजी खाना खाकर चले गए तब बेटे ने  सारा वृत्तान्त बताया। समझते देर नहीं लगी कि यह उसके दादाजी ही थे। लगा खाना खाने ज़रूर आये होंगे। सोच कर बहुत अच्छा लगा। विश्वास हुआ कि हमारे परिवार पर पित्रों का आशीर्वाद है।
       
                                                             --------------------------     


Wednesday 17 December 2014

रिटायरमेंट के बाद २००४


रिटायरमेंट के बाद -----२००४ में

चलूँ अब घर की ओर चलूँ,

विद्यालय की बाग़ - डोर को छोड़ ,

करूँ आराम,चलूँ

जीवन के इस सांध्यकाल को खुल कर जीऊँ ,

ना कोई झंझट ना कोई बंधन

चाहे कहीं जाना , चाहे कभी आना

दौड़ - भाग की बहुत,करूँ आराम -

चलूँ अब ,

सीखा बहुत , सिखाया बहुत ,

बच्चों में जी लगाया बहुत ,

मम्मी - पापा खूब सुना ,

अब है इच्छा कुछ और ,

सुनूँ मैं दादी- नानी ,

चलूँ अब ,

खूब परिश्रम किया ,सफलता पाई ,

जीवन के झंझावातों को भूल और निश्चिन्त ,

चलूँ कुछ पूजा - पाठ करूँ,

चलूँ अब घर की ओर चलूँ ,

दादी-नानी सुनने की भी चाह होगई पूरी

जीवन की अब कोई इच्छा  नहीं  अधूरी। 

                 

बाल -मनो विज्ञान


बाल - मनोविज्ञान

विषय बहुत ही संवेदनशील है। समाज की सारी  समस्याएँ एक तरफ और आज के बालकों की समस्याएं एक तरफ ! नित्य ही  होने वाली अकाल्पनिक ,असंभावित और ह्रदय-विदारक कितनी घटनाओं का सामना अबोध और अज्ञानी बालक कर रहा है। निःसंदेह इसका कारण  समाज में  सामाजिक मनोवैज्ञानिक ज्ञान का अभाव है। हर रोज़ होने वाली कितनी घटनाओं में से कोई एक घटना एक बड़ी बहस को जन्म दे देती है लेकिन परिणाम ??!!

अधिकतर ये घटनाएँ बाल्यकाल और किशोरावस्था से जुड़ी होती हैं ---
अभी कुछ   दिनों की ही बात है कक्षा दो के छात्र ने आत्म-हत्या की थी। इस तरह की घटनाएँ ये सोचने पर मजबूर करती हैं कि ये सब क्यों ? इतनी उत्तेजना इतना आक्रोश  उद्वेग कहाँ से उन्हें ऐसा करने के लिए उद्वेलित कर रहा है। कौन उकसा रहा है इन मासूम और अबोध बालकों को ? कौन ज़िम्मेदार है इसका ? बात-बात में एक दूसरे का गला काटना ,नींद की गोली खाना ,किसी पर तेजाब डालदेना , लाइज़ोल पीलेना आदि  !! बच्चे किसके हैं ?क्या पाठशाला में जन्मे हैं?क्या पड़ोस में जन्मे हैं?क्या सड़क पर पैदा हुए है ? क्या बीच समाज में कहीं पैदा हुए हैं?जबाव हाँ और ना दोनों में होसकता है। लेकिन जन्म दिया किसने है ?सीधा जबाव है माता पिता ने। जिनके मुँह से प्रायः यही सुनने में आता है कि बच्चों के लिए ही तो जी रहे हैं उनके लिए सारी सुविधाएँ उपलब्ध करदीं हैं हमें भी तो अपनी ज़िन्दगी जीने का हक़ है। बड़े होकर वो अपनी ज़िन्दगी जीएंगे। बहुत ही ग़ैर ज़म्मेदाराना और अनपेक्षित उत्तर है। माता-पिता का पर्याय यदि बलिदान है  तो उक्त सारे तर्क असंगत और बेबुनियाद ही होंगे।

यहाँ महसूस होता है कि हमारे यहाँ सचमुच बाल - मनोविज्ञान के ज्ञान का अभाव है।उनकी मनःस्थिति को समझने की पर्याप्त मात्रा  में आवश्यकता है। क्या हम जानते नहीं हैं कि आज का बालक पहले के बालक की अपेक्षा अधिक समझदार है ज़रूरत है उसे सही दिशा देने की. इसका अभाव ही उससे अवांछनीय अवाँछनीय कार्य करा रहा है।  यह दिशा उसे उसकी प्रारम्भिक पाठशाला यानि घर से  मिलनी चाहिए।जिसमें बालक के बौद्धिक - स्तर को उसकी वास्तविक आयु के साथ नहीं जोड़ना चाहिए। उसकी आयु के हिसाब से उसके अंदर भी झाँकें। आवश्यक नहीं कि वह अंदर से भी वैसा ही हो। किसी का बौद्धिक स्तर उम्र से कम, किसी का उम्र के समान और किसी का उम्र से अधिक हो सकता है। 

बालक के साथ मित्र भी बनें लेकिन संयमित सीमा में । दायरा अवश्य बनाये रखने की आवश्यकता है। चाहे जब अपनी सुविधा के अनुसार कठोर होजाना और चाहे जब व्यवहार में लचीला होजाना ही बालक के लिए मुश्किलें पैदा करता है। समझना चाहिए वह पहले के बालकों की अपेक्षा अधिक समझदार है, लेकिन है वह बालक ही, जिसकी बुद्धि अभी अपरिपक़्व  है। उसके अपने मित्र भी हैं , स्कूल भी है ,अपना एक विशेष पर्यावरण हैं अपने अध्यापक हैं इन सब के बीच वह कितना सहज और असहज है इसका ज्ञान होना  माता-पिता का ही दायित्व है। बालक के चहरे की प्रत्येक रेखा पर सूक्ष्म नज़र होने की आवश्यकता है। कोई नहीं चाहता कि उनके बच्चे के साथ कोई दुर्घटना हो तो ध्यान रहे "नज़र हटी और दुर्घटना घटी। "

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Tuesday 18 November 2014

स्वास्थ्य और सुरक्षा

            भारत के लिए यह विषय आज इतना गंभीर हैं कि स्वच्छता  के विषय पर ध्यान  दिलाने के लिए उत्साहवर्धन हेतु ध्यान आकर्षित किया जा रहा है। विषय साधारण है पर  ध्यान न देने के कारण असाधारण और समस्यापरक बन गया है।  सुस्वास्थ्य के लिए आवश्यक है स्वच्छता। सुरक्षा के लिए आवश्यक है शौचालय। और इन दोनों की ही अवहेलना का परिणाम सामने है। बीमारियां,यानि नए-नए कीटाणुओं से पैदा होने वाले कितने रोग,दिमागी रोग, टी.बी. ,मलेरिया न जाने और रोग दिन प्रति दिन पनप रहे हैं कारण केवल अस्वस्छता।सफाईकी ओर कोई ध्यान न देना। अस्पताल,पाठशाला,कार्यालय, यानि कोई भी ऐसी जगह नहीं जहाँ व्यक्ति बिना नाक -भौं सकोड़े चला जाय। मजबूरी में जाना और बीमारी समेट  कर लाना।यत्र - तत्र शौचालयों की सर्वत्र यही दशा है।

    इसके अतिरिक्त इनका अभाव इससे भी अधिक गंभीर विषय है, घरों में  शौचालयों का न  होना। यह समस्या गाँवों  तक ही सीमित नहीं बड़े-बड़े शहरों के आस-पास के पिछड़े इलाकों में,शहरों में बसी झुग्गी -झोंपड़ियों में रहने वालों के लिए शौचालयों का अभाव देखा जा सकता है।मोबाइल टॉयलेट भी देखने में आते हैं किन्तु उनकी देख-भाल ,साफ -सफाई की ओर सर्वत्र उपेक्षा होती है। ऐसी स्थिति में  महिलाएँ शौच के लिए कहाँ जाएँ। प्रातः सूर्योदय होने से पूर्व भ्रमण के लिए निकले लोगों को खूब देखने  को मिल जायेगा कि महिलाएँ ,पुरुष गंदे नालों के पानी का प्रयोग कर अपनी प्रातः कालीन क्रिया संपन्न कर अनेक प्रकार की बीमारियों को निमंत्रण देते हैं। इसी सम्बन्ध में एक और बहुत ही शोचनीय और दुःखद परिणाम सुनाई और दिखाई दे जाता है।

    महिलाओं की मजबूरी और भ्रष्ट लोगों का दुराचरण अपनी चरम सीमा पार कर देता है। वे उनकी हविश का शिकार बनती हैं,उनकी दरिंदगी का निशाना बनती हैं -और परिणाम केवल शोर-शराव,बेज्जती,अपमान।और बस खत्म किस्सा! हर महिला  की सुरक्षा, सुस्वास्थ्य ,सम्मान को ध्यान में रखना है। हर घर में एक शौचालय की व्यवस्था होनी अनिवार्य है। डी.टी.ए.के कार्य को हमसब को मिलकर  बढ़ावा देना है।देश का विकास शौचालय की ओर ध्यान देने से होगा।हाल  ही में जो गाँव गोद लेने का कार्य प्रारम्भ हुआ है उसमें प्रगति सबसे पहले शौचालयों की वृद्धि से होनी चाहिए। डी.टी.ए.इस सम्बद्ध में सराहनीय कार्य कर रहा है। उसने ओड़िसा और महाराष्ट्र में यह कार्य शुरू कर दिया है और  २४००० शौचालय बनाने का संकल्प  लिया है ।
यदि शौचालय है तो सुरक्षा और सुस्वास्थ्य कोई समस्या ही नहीं रहेगी। 


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Monday 17 November 2014

कर्मयोगी "माँ"


कर्मयोगी "माँ "



कर्मयोगी " माँ "


निर्पेक्ष भाव से जुड़े सम्बन्ध को सार्थक करती हुई माँ ,माँ नहीं वह केवल कर्म-योगी होती है। आजतक जो पढ़ा, समझा और देखा उसे शब्द-मुक्ताओं में उतारने का प्रयास है ये मेरी रचना -

चेहरे पर तेज !
माथे पर चमकती लाल बिंदिया !
अति जीर्ण - शीर्ण लाल रंग की साड़ी में लिपटी ,
छोटे कद की वह -
नित्य प्रातः घर आती , कपड़े  धोती और -
उसी उमंग के साथ चली जाती।

एक दिन जिज्ञासु मन ने -
अनायास ही उसे रोक कर परिचय सम्बन्धी
अनेक प्रश्न कर डाले -

सुनकर ठिठकी वह ,
वहीं पास में पड़े पत्थर पर  बैठ   गयी ,
थैले  से बोतल निकाली , पानी पीया ,
बड़ी  ही आश्वस्त होकर बोली -

"साहब , मजदूरी करती हूँ ,
पास की कॉलोनी में घर- घर जाकर -
कहीं साफ-सफाई का
तो कहीं खाना बनाने का
तो कहीं किसी की मालिश करने का काम करलेती हूँ।
साहबजी, दिन भर में जो मिल जाता है,घर चल जाता है।"

घर में कौन-कौन है ?

"जुआरी  पति है,कोई काम नहीं करता। 
अब बीमार भी है,
एक बेटा है,
कार दुर्घटना में दोनों पैर गँवा चुका है
एक पोता है,
उसे स्कूल में डाला है,कुछ अच्छा करले।"
ईश्वर बड़ा दयालु है साहबजी,भूखा नहीं सुलाता।

सो तो है !
पर बाई सा,इतना सब कैसे करती हो! आराम कब करती हो?

"पति को जीवित रखना है,सुहाग है मेरा।
बेटे का इलाज कराना  है.जिगर का टुकड़ा है।
पोते को अच्छा नागरिक बनाना है।
वंशज है मेरा। "

मेरा क्या है ! और गहरी साँस लेकर चुप होगई।

सोचा -छोटे कदवाली का दिल कितना बड़ा !
न चेहरे पर थकान न कोई हताशा ! और

राम- राम कह कर -
योगिनी वह माँ
उसी उत्साह के साथ ,बढ़ गयी अपने "कर्म-पथ" पर--

मैं देखता रहा उसे दूर
पथरीली - काँटों  भरी राह पर जाते हुए जिसका कोई -----


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Thursday 25 September 2014

शिकार हूँ या शिकारी

पशोपेश की स्थिति !
मैं शिकार या शिकारी?
क्या कभी देखा है ऐसा ?
कुछ मिनटों का चलचित्र -
घूमता है आखों के सामने।
सामने शिकार -
न झपटना ,
न कोई "अटैक "
भयातुर !
एकटक देखना -
छू-छूकर देखना -
संदि ग्ध निगाहें -
सपना है या सच ?
विश्वास और अविश्वास का मानसिक द्वंद्व -
रुक-रूककर पूँछ का हिलना -
जीभ से राल का टपकने जैसा दृश्य -
और अचानक -ये क्या?
ये तो सच है !
सपना नहीं ,मेरा शिकार   है-
किस बात  की देरी !
और बेचारा क़ुग्रह ,कुसमय का शिकार -
बन गया शिकारी का शिकार।
होगई विजय की विजय

     (  ये कविता मैंने उनदिनों में लिखी थी जब दिल्ली जू में एक लड़का गिर गया  था और कुछ मिनट तक
 शेर और उसके बीच मानसिक अन्तर्द्वन्द मचा रहा था )    

                                              ----------








Monday 28 July 2014

बच्चों का बचपन मत छीनो ---

जानती हूँ यह प्रतिस्पर्धा का दौर है हर माता-पिता अपने लाड़ले को आगे आगे और सबसे आगे की चाह में उसे दौड़ाये जारहे हैं  इस संदर्भ में मैँ क्या सोचती हूँ देखें इन पंक्तियों में ----

बच्चों का बचपन मत छीनो ,
बच्चों का शैशव मत छीनो ,
उनकी  ये मासूम     अवस्था ,
नहीं  लौट कर   आएगी ---,
               यौवन की अल्हड़ता रस्ता रोक खड़ी होजायेगी।

बचपन की चंचलता से   भरपूर अनूठी   बातें --,
नटखट आँखों की भाषा कब कैसे तुम्हें लुभाएगी ,
लुकाछिपी का  खेल और तुतलाती बातें ------,
ओठों की मुस्कान कहो कब कैसे तुम्हें रिझाएगी।

बच्चों का बचपन रहने दो,
उसको शैशव में पलने दो ,
अम्मा की कोमल बाँहों का ,
झूला उसे बनाने   दो----
              उसे सहजता में जीनेदो ,उसे सहजता में जीनेदो।


                                  --------

           

                   
                   


                       

Friday 4 April 2014

फरवरी २०१४। -----जब हम दोनों साथ थे ---

                     संस्मरण 

  -----------इनकी इच्छा थी कि वह अपनी आत्म-कथा लिखें ,उनकी इस इच्छा को अपने साथ जोड़ कर संक्षेप में पूरा करने की कोशिश कररही हूँ.इनके पिताजी ने तीन विवाह किये थे।सबसे पहली पत्नी का निःसन्तान ही निधन होगया था,दूसरी पत्नी से इनका जन्म हुआ ,किन्तु इन्हें चार वर्ष का छोड़कर वह भी भगवान् को प्यारी होगयीं और उसके बाद इनके पिताजी ने तीसरा विवाहकिया। उसके कुछ समय बाद उनसे तलाक होगया। अब बाऊजी और ये साथ-साथ रहते थे। वह समय इनके जीवन का अच्छा समय था ,तलाक का कारण इन्हें नहीं पता था ,समय ठीक-ठाक गुज़र रहा था कि अचानक इनकी ज़िंदगी में एक मोड़  आया इनके बाऊजी ने एक और शादी करने का फैसला  किया यानि कि  चौथी!!विवाह की तैयारियाँ होगईं ,जिस दिन शादी थी ,इन्हें सिनेमा देखने के लिए भेज दिया गया। विवाह होगया और इनके खुशाल जीवन में एक अनचाहे तूफ़ान ने दस्तक देदी। चार-छै वर्ष में तीन बहिनें-एक भाई का आगमन होगया। अब घर इनके लिए पराया होगया।घर में रहना मुश्किल होगया। कई बार घर से भागे पर हर बार बाउजी का कोई न कोई मित्र समझा-बुझाकर इन्हें घर लेआता। अब पढ़ाई के लिए इन्हें अलीगढ़ इनके चाचाजी के घर भेजा गया जहाँ इन्होंने ड्राफ्ट्समेनशिप का कोर्स किया।कोर्स करने के बाद नौकरी के लिए हापुड़ अपने दूसरे चाचाजी के पास जाना पड़ा। नौकरी के लिए दफ्तर मेरठ में था। हापुड़  सेजाना कठिन होरहा था ,सोचा वहाँ छोटे चाचाजी के यहाँ रहकर दफ्तर जॉइन करलेगें इसलिए मेरठ चले गए। लेकिन वहाँ मिली उपेक्षा और अपमान के बीच रहना और भी मुश्किल हुआ तो पुनः हापुड़ से ही आना-जाना रखा। काफ़ी दूर पैदल चलकर ट्रेन पकड़ना आदि खाने-पीने की समस्याओं के साथ समय बीतता रहा। एक दिन बाउजी ने किसी के द्वारा एक पत्र भिजवाया,जिसके ज़रिये इन्हें ऋषिकेशमें एंटीबायोटिक्स-प्लान्ट ,आइ डी पी एल में स्थाई जॉब मिला ,सरकारी आवास भी मिला। लम्बे समय के बाद ज़िंदगी में सुकून और शांति मिली,५-६ वर्ष नौकरी करने के बाद इनका विवाह का योग बना मेरी माँ को किसी ने इनका परिचय दिया ,नानाजी ने पत्राचार कर विवाह की रश्म पूरी की। तब ये २९ वर्ष के थे। वर्ष १९७३ जुलाई ८ को हम परिणय-सूत्र में बँध गए। विवाह हापुड़ में हुआ। पूरा सहयोग आ० चाचाजी और चाचीजी ने बहुत प्यार से किया। बाकी दोनों चाचाजी और उनके परिवार के सभी लोग भी विवाह में सम्मिलित हुए लेकिन बाउजी के परिवार से कोई नहीं था। हापुड़ में इनका संरक्षण हुआ ,विवाहभी हुआ। इसलिए मेरा भी हापुड़ के प्रति लगाव और अपनापन का भाव है। उनके प्रति आभारी भी हूँ।  इस तरह संक्षेप में इनका जीवन उपेक्षापूर्ण अधिक रहा। माता-पिता के प्रेम से रहित ये स्वयं बहुत असुरक्षित अनुभव करते थे जिसका परिणाम मैंने हमारी पारिवारिक ज़िंदगी में महसूस किया।

       व्यक्तित्व अपना परिवार ----
                                     इनके व्यक्तित्व में हास्य-विनोद भरपूर था। शायरी और जोक्स के शौकीन थे। पर ग्रहस्थी केवल इन शौकों से नहीं चलती। ज़िंदगी में कदम-कदम पर मिली उपेक्षा ने इन्हें शुष्क व कठोर बना दिया था जिसका सामना मैं शुरू से ही करती रही। इनकी ज़िंदगी में विवाह से पहले के नौकरी के ५-६ वर्ष का समय शायद इनकी ज़िंदगी का खुशहाल समय था। किन्तु विवाह के बाद इन्हें अपने परिवार में अपने माता-पिता के परिवार की छाया दिखाई देने लगी जहाँ हर समय इनको लेकर तनाव,खींचतान व झगड़ा हुआ करता था। इनकी सौतेली माँ के  साथ बाउजी का कठोर व्यवहार और फिर एक और शादी फिर उनसे तलाक और फिर एक और शादी। और फिर इनके साथ हुए दुर्व्यवहार और अनेक अविस्मरणीय घटनाओं ने इन्हे कठोर ही नहीं शंकालु भी बना दिया था।चौथी शादी के बाद माँ के दुर्व्यवहार ने घर में हर रोज़ कलह और क्लेश का माहौल बना दिया था। हर रोज़ बाउजी से शिकायतें  और फिर इनके साथ होने वाले अनाचार-दुराचार ने   इन्हे हर स्त्री में वही सौतेली माँ का रूप और घर को नीरसता का आवास मानने को बाध्य कर दिया था। फलतः इन्हे अपने परिवार में वही सब दिखाई देता। शंका ,अविश्वास मन में इस तरह घर कर चु का था कि जीवन के आखिरी समय तक भी समाप्त नहीं कर पायी। पर इन सबके बीच हम दोनों की ज़िंदगी एक दूसरे के लिए त्याग और समर्पण से भर-पूर थी।  दोनों ही एक दूसरे को देख कर जीवन व्यतीत कर रहे थे। 
                         इनके जाने के बाद सोचा क्यों धोखा देकर चले गए ?लेकिन फिर सोचा ,ये कहते थे ,कि " राजे,तुम मेरे बिना रह सकती हो पर मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता।"शायद यही सच था।

                                                             -----------------------




                                                                         





                         

Tuesday 11 March 2014

नारी उद्बोधन ----------२००४

नारी-उद्बोधन


दुनिया में नारी के प्रति अनाचार को देख कर मन कभी-कभी बहुत आहत होता है,इसीलिये समय पाकर यदा-कदा अपनी भावनाएँ व्यक्त  करती रहती हूँ। आज फिर सामाजिक दोष-पूर्ण परम्पराओं ने मुझे लिखने को प्रेरित किया है ---

त्याग ,तपस्या का पर्याय नारी --
समर्पण और बलिदान की प्रतिमूर्ति नारी --

किन्तु अचानक पति से वियुक्त होने पर -
ज़िन्दगी के हर कदम पर उसके आगे --
प्रश्न!!प्रश्न!!और प्रश्नों की एक लम्बी श्रंखला -
हाँ, यही देखा है मैंने -

पुनः विवाह का प्रश्न,करे या न करे?
नौकरी का प्रश्न,करे या न करे?
श्रृंगार का प्रश्न --
क्या करे, क्या न करे ?
क्या पहने ,क्या न पहने ?
कहाँ जाए ,कहाँ न जाए ?

अरे !ज़िंदगी उसकी ,
और दायित्व ---?
हाँ यही तो  होरहा है समाज में ---
ज़रा कोशिश करें और समझें ---

पुनर्विवाह समाज के दुराचारियों से बचने का साधन है -
"विषय-भोग का नहीं !"
नौकरी जीवन यापन का साधन है -
"किसी पर बोझ न  बनने का "-
और श्रृंगार वो तो पति का प्रतिरूप है
श्रृंगार के हर उपादान में उसे अपने "पति" का रूप  दिखाई देता है। 
सहारा है जीने का। 
फिर क्यों ये प्रश्नों की झड़ी ?

अपनी ज़िंदगी का दायित्व केवल और केवल --
सिर्फ नारी को ही है। -
यह याद रहे सदैव !!!

                    ---------




Thursday 27 February 2014

पुत्र-बधु के श्रद्धान्वित विचार

पापाजी ,
आपके प्यार और आशीर्वाद से ही -
मैं तो दिन का कार्य शुरू करती थी -
लेकिन ये क्या?
आपने तो अपनी सेवा का भी अवसर नहीं दिया।
आपके साथ रह कर बहुत कुछ सीखना था पर अब --?
अब मुझे मालूम है ,आप मुझे ऐसा निर्देश देते रहेंगे -
जिसके अनुसार मैं हिम्मत से अपने परिवार की देख-रेख
करती रहूँगी ,आपके आशीर्वाद की चाह लिए -
श्रद्धानत आपकी
पुत्र-बधु 

Monday 17 February 2014

दादा के प्रति -------

मेरे प्यारे दादा !
मैं तो स्कूल से आकर -
आपके आने का" वेट"कर रही थी -
पर दादा आप नहीं आये -
दादा अब आपका प्यार मुझे कौन देगा ?
मेरा रिज़ल्ट आया दादा ,मैं कक्षा  ४ में आगई हूँ -
पर आपसे इनाम नहीं मिला -
पूरे साल के गिफ्ट, प्राइज़ कौन देगा ?
हाँ ,अभी तो आपकी तरफ से दादी ने दिए हैं -
पर उनके पास तो पैसे ख़तम भी हो जाएंगे-
फिर कौन देगा मुझे आपकी ओर से ?

मेरी ईलू ,मैं तुम्हारी दादी को बहुत सारे पैसे देकर आया हूँ -
तुम्हारे और आरुष के लिए -
वह पैसे तुम दोनों के गिफ्ट के लिए हैं।

जो कभी ख़तम  नहीं होंगे।
 और तुम खूब खुश रहोगे। 

                -----

श्रद्धांजलि -----पुत्री के उद्गार

पापा ,आप मेरे कारण दुखी थे
पर पापा उसमें मेरा क्या दोष था ?
आपके दुःख के कारण शादी करने का निश्चय किया -
और की !आपका भी सारा काम मैंने कर -
आपकी परेशानी दूर की।
आपका आशीर्वाद भी मिला -
मैं खुश भी देखी आपने -
आपके आशीर्वाद से घर भी बना
आपने देखा भी "पा "
आपने नाती को भी देखा।
और इसके बाद हमें इतना बड़ा "अभाव "देकर चले गए -
पापा ये आपने अच्छा नहीं किया -
पर मुझे महसूस ज़रूर हुआ है अनेक बार -
"आप हमारे पास ही हैं"-
और हमें वह सब दे रहे  हैं जो पहले नहीं दिया,पापा!
आपका आशीर्वाद।

                          ----------- 

श्रद्धांजलि (पुत्र के उद्गार )

पापा आपने कहा था -
मेरी कब्र पर ये पंक्तियाँ लिखवा  देना -
     "ये ज़िंदगी के मेले दुनिया में 
     कम न होंगे अफ़सोस हम न होंगे ---"
पापा मुझे नहीं पता था इतनी गहराई थी 
आपके इस कथन में ----
पापा मैंने पेपर में निकलवा दिया -
लेकिन पापा मैं किसे दिखाऊँ 
कौन गलतियाँ  निकालेगा। 

इतनी जल्दी छोड़ कर चले जायेंगे 
मुझे नहीं मालूम था कि आप मुझे 
"अपने बिना "भी छोड़ सकते हैं। 

आपने नहीं सोचा आपका बेटा कितना नादान है -
मैं क्या करूंगा आपके बिना -
क्यूँ आपने ऐसा किया पापा ?

पर ठीक है पापा 
आपके जाने के बाद मैंने समझा 
आप अनेक बीमारियों से जूझ रहे थे 
आप कह भी नहीं पा  रहे थे 
कम से कम आपको उन कष्टों से मुक्ति मिली ,पापा !
मुझे मालूम है आप मुझे बहुत सारा आशीर्वाद ,प्यार और हिम्मत देकर गए हैं। 
मैं उसी के सहारे सब कुछ ठीक करूँगा।                        
                           
                                -------------

  

Saturday 15 February 2014

जीवन का वो आख़िरी दिन ---

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आत्म-कथन


आपने कहा था- ( हॉस्पिटल में )
"तुमने भी इतना सहा, इतना सहा  कि तोड़के तो दिखा",मतलब मैं समझ गई थी कि आप क्या कहना चाहरहे हैं। मेरी आँखें तब अश्रु-पूरित होगईं।
          आपका यह वाक्य मुझे हमेशा हिम्मत देता रहेगा।

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दिवा-स्वप्न (परस्पर सम्वाद ) 6.2. 2013

       कभी पापा ! कभी बापू ! कभी पा ! कभी पापाजी ! कभी दादा ! कभी दादू ! कभी श्रीमानजी ! लेकिन अब कुछ नहीं क्या ? मेरी जगह खाली होगई ! क्या ऐसा ही होता है ? क्या यही है सच्चाई ! हाँ प्रकृति का तो यही है नियम है ! और  यह नियम तो सबके लिए समान है आपकी  खाली जगह तो यूँ ही वीरान ,बीहड़ पड़ी है। हर पल हर समय सालती है , चुभती है ,बहुत दर्द देती है , बहुत पीड़ा देती है। एकांत में बहुत रुलाती है। तभी एक आवाज़ सुनाई देती है।पगली मैं कहीं नहीं गया , तुम्हारे ही पास हूँ। मैं वैसा ही हूँ ,तुम्हे देखता रहता हूँ ,बस तुमसे दूर हूँ,चिंता - मुक्त हूँ। सोचता हूँ ,मैं बच्चों को दुनियादारी सिखाने की बातें करता था पर मैं तो सबको अकेला छोड़कर खुद ही चला आया। यहाँ भगवान् भी मुझसे यही सवाल पूछते हैं जो मैं कहता था कि ------तब मैं चुप ही रहता हूँ ,मेरे पास उनके सामने कोई जबाव नहीं होता। सिर्फ़ मेरा परिवार मेरे सामने होता है और उनकी आँखों में भी बहुत से सवाल मुझे दिखाई देते हैं। यह बात तो सही है ,सवाल तो बहुत हैं श्रीमानजी, मुश्किलें भी बहुत है , किन्तु जब भी समस्याएं आती हैं,तो ऐसे सुलझ जाती हैं जैसे आप ही ने सुलझा दी हो ,महसूस होता है ऐसा ,कईबार हुआ है ऐसा। पर उलझनें  आने पर कभी-कभी तो लगता है कि कहीं से आकर आप  एक दहाड़ लगादें , सबठीक होजायेगा।

              किन्तु आपने बिलकुल अच्छा नहीं किया।बहुत दुखी किया है आपने। 

                                                                                                                                                                                                                           ----------------------- 

६ फरवरी २०१३ की वो काली भयावह रात

देखते-देखते चले चले गए
मैं देखती रह गयी
मैं बातें करती रह  गयी ,चिल्लाती रह गयी
फटी हुई आँखें  बंद करती रह गई -
और तुम विदा लेगये !
डॉक्टर की टीम आगई --
कृत्रिम साँसें देते  रहे  लेकिन --
तुम नहीं लौटे और तभी एक आवाज़ ने -
"माताजी धड़कनें बंद हो चुकी हैं."मुझे
स्तब्ध कर दिया ,मैं जड़वत हो गई ---
मैं ठगी सी ज़मीन पर बैठ  गयी-
गले की आवाज़ बंद ,रोना बंद ,
पैर चलने को तैयार नहीं,पर चली -
लिफ्ट चलाना भूल गई -
सीढ़ी से उतरी ,उतरा न जाए -
बैठ गयी -
फिर बढ़ी,उतरी -
जैसे-तैसे ट्रौमा-सेंटर तक पहुँची -
हत-प्रभ ,हत-प्रभ ,हत -प्रभ !!!

       एक पल में सब कुछ ख़तम
       रह गया  तो एक काली भयावह रात का सन्नाटा ------!!!

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Wednesday 5 February 2014

एकाकीपन


एकाकीपन

एकाकीपन जीवन की  वह साधनावस्था है,जिसमें मानव एकाकी बैठ कर चिंतन करे कि अबतक उसने क्या किया और क्या करना शेष है। यह साधना कठिन नहीं होती ,केवल उसे भावी -जीवन का मार्ग दर्शन करेगी।

एकाकीपन !
यह जीवन का अटूट-सत्य है।              
हर प्राणी अकेला ही है -
क्षणिक मिथ्या-सम्बन्धों को सही मानकर -
स्वयं को भ्रमित कर ,दुखी करता है।              
 
वह भीड़ में भी अकेला होता है ,
समुदाय में भी अकेला होता है -
यहाँ तक कि परिवार में भी अकेला होता है।

जब भी कोई दुर्घटना घटित होती है तो -
सबको छोड़ कर अकेला ही चल देता है।

मानव केवल कर्त्तव्य निभाने के लिए जन्म लेता है-
और इसमें यदि कोई दूसरा मोह-ग्रसित होजाता है और
उससे वियुक्त होने पर दुखी होता है ,पछताता है -
ये तो उसीकी अज्ञानता है ,विमूढ़ता है

वह अकेला ही है ,जब तक जीवन है अकेला ही रहेगा।
अच्छे और बुरे कर्मों के अनुसार केवल ईश्वर से ही जुड़ा है
वह दुखी तब होता है जब स्वयं को ईश्वर से जुड़ा नहीं समझता।

अच्छा हो एकाकी रहकर अपने कर्मों का लेखा -जोखा खुद करें और आत्म-विश्लेषण करे।

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Wednesday 22 January 2014

गाँव की बेटी

गाँव की`बेटी 

सुना था गाँव की बेटी --
सारे गाँव की बेटी होती है ,

पर कैसे मानूँ
देखा है ,
आज एक मोहल्ले की  बेटी पर -
संकट का पहाड़ टूटा तो वह --
अविश्वास की पात्र बनी ,
उसकी चुप्पी को उसकी ही कमी बताया और -
उस पर होरहे अत्याचार को अपने मनोरंजन का साधन बनाया -
सारा मोहल्ला देखता रहा -
कायर डरपोक भीरु समाज से -
एक मच्छर तक नहीं आया उसका सहारा बनने।

समय गुज़रा -
दिन महीने वर्ष गुज़रे -
शुभ समय की प्रतीक्षा !
कि तभी एक और झटका -
अदालत का एक कर्मचारी दरवाज़े पर आखड़ा हुआ -
एक कागज़ पर दस्तख़त कराने।
पढ़कर हकबकी सी, ठगी सी,चीख उठी वह ,
बैठ  गई वह।
ये क्या?ऐसा क्यों ?
पैरों के नीचे से मानों ज़मीन ही खिसक गई हो -
अशक्त ,असहाय,मौन,शांत -
वह उठी,जैसे किसी अव्यक्त आवाज़ ने उसे झझोड़ा -
और कहा -अभी तो यात्रा बहुत लम्बी है -
कमज़ोर मत बनो,सँभलो -
और एक झटके से वह उठी,खड़ी हुई -
बड़े विश्वास के साथ -
मानों किसी दैवी शक्ति ने सहारा दिया हो।

देखा इधर-उधर -
कोई नहीं ,सिर्फ और सिर्फ-
आशा और विश्वास का नया उजाला -
और कठिन डगर सामने -
जिस पर चलकर उसे संघर्ष करना है।
विजयी होकर अपना भविष्य बनाना है -
कायर और भीरु समाज को मुँह तोड़ जबाव देना है।

प्रतीक्षारत वह लग गयी अपनी लम्बी लड़ाई में -
     और समय ने करवट बदली - उपस्थित हुआ एक नए रूप में 

लगा जैसे स्वप्न हो
काली रात का  वह अँधेरा जो इतना घना और लम्बा महसूस होरहा था
जो काटे नहीं कट रहा था
इतना छोटा होगया।
एक सरल और समझदार परिवार ने उसे देखा -
उससे बातें कीं उसे समझा और गले लगाया
प्यार किया,दुलारा ,सहलाया ,अपनाया
उसे सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद दिया।

         कोटिशः प्रणाम ,शतशः धन्यवाद,हे ईश्वर !  

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Tuesday 21 January 2014

जब मैंने पब्लिक स्कूल में हिंदी पढाई ----(हास्य -व्यंग )


जब मैंने पब्लिक स्कूल में हिंदी पढ़ाई ----( हास्य-व्यंग्य )

 पढ़ाया बहुत लिखाया बहुत किन्तु मैंने सीखा यहाँ पर बहुत
हिंदी को माना पढ़ाना सरलकिन्तु यहाँ होगया पढ़ाना जटिल -
कैसे ?देखिये आगे -

        पूछा मैंने एक दिन    (सर्वनाम के पाठ में)
      " वह जाता है। "  वाक्य में "वह"कौनसा "पुरुष" है?
       उत्तर न मिलने पर प्रश्न पुनः दुहराया
       लेकिन फिर भी कोई जबाव नहीं -
       फिर लगा प्रश्न मुश्किल है -
       तो एक दो छात्रों को नाम लेकर पूछा -
       भाई कोई तो बोलो -क्या हुआ ?
       पर फिर वही चुप्पी ,वही हाल ,कोई जबाव नहीं -

तब लगा झटका कहीं अंग्रेजी के शिकार तो नहीं हैं ये ?-
फ़ौरन पूछा -भई ,पुरुष यानि "वह "कौनसा"  " पर्सन "है ?

       और तब एक नहीं -दो नहीं हो गए तीसों छात्रों के हाथ खड़े -
       एक ही स्वर में "यस मैंम इट इज़ अ थर्ड पर्सन। "----
 
सुन कर हुई हैरान -
            "अरे यह हिंदी की कक्षा है या अंग्रेजी की ?"
           
             हमने तो अंग्रेजी पढ़ी हिंदी माध्यम से,
            और ये पढ़ रहे हैं ,हिंदी अंग्रेजी माध्यम से  


                                    **

Monday 6 January 2014

अध्यापक की वेदना

अध्यापक की वेदना

एक समय था ,शिष्यों की  याद आते ही -
फ़क्र से सर ऊँचा होजाता था ;
अभिमान होने लगता था ,अपने रोज़गार पर-
इतना मान-सम्मान ,स्नेह मिलता था।
पर आज तो समय के चक्रव्यूह में वह सब कुछ मानो स्वाहा ही होगया।
आज तो वस्तु -स्थिति यह है -
कि वह बेचारा है,मास्टर है ,व्यवसायी है

नहीं जानते कि विश्व के बड़े -बड़े
वैज्ञानिकों,चिकित्सकों ,और शिक्षाशास्त्रियोँ की -
नींव डालने वाला -
वह बेचारा अध्यापक ही होता है।

नहीं जानते कि कुछ घंटे पढाने वाला अध्यापक -
कितने घंटे उसकी तैयारी करता है ?
अपने परिवार की कितनी उपेक्षा करता है ?
मनोविनोद से कितनी दूर रहता है ?
किन्तु -
इन प्रश्नों का जवाब आज केवल -

"महीने  की  पगार  पर आकर   रुक जाता  है "और -
वह बेचारा सदा बेचारा का बेचारा ही रह जाता है।
   
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