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Thursday 5 February 2015

खट्टी -मीठी -यादें

समय गुज़र  जाता  है     ,बातें    रह जाती  हैं।
समय व्यतीत करने का साधन बन जातीं   हैं।
जो  बातें पहले कड़वी लगती थीं ,
कैसी अजीब बात है ,अब वही मीठी लगतीं हैं। अबतो सब कुछ मीठा-मीठा याद आता है वह लड़ाई-झगड़ा
अब हास्य बन याद आता है। झगड़ा तो मज़ाक ही था।झगड़ा तो प्यार ही था। झगड़ा तो अधिकार ही था --
एक दूसरे पर। साथ रहने की कहानी कुछ और थी पर अलग रहने की और भी विचित्र। खैर ----

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- मैच में जब भारत जीतता तो कहते ,ये to hokey  by dance ,criket by chance वाली  बात है। और मुस्करा
देते।सुबह उठते ही t.b. खोलने की कहते ,बोलते देखो राजे ,रात ही रात में मैच का क्या हुआ

-चुनाव के समय इतना एक्साइटमेंट कि बोलते टी बी बंद मत करना पता नहीं कौन ऊपर नींचे होजाये। असल में टी बी के बहुत शौकीन थे।

कभी- कभी गर्मी में आकर कहते अब बस अपने हाथ की गरम-गरम आधा कप चाय पिलादो।

कभी आकर कहते मैं पूरे घर में देख कर आकर कहते तू यहां बैठी है ,ऐसे मत किया कर मैं कमज़ोर दिल का आदमी हूँ ,ड र जाता हूँ।एक ही तो मेरी राजे है।

मुश्किल ही कभी घर से बाहर निकलते और घुसते ही कहते बेकार है कहीं आना-जाना जो मज़ा अपने घर में है ,कहीं नहीं। अपनी राजे के हाथ का प्यारा-प्यारा खाना खाओ। बेकार है  यहां जाओ वहां जाओ।

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kabhi kabhi kahte ,ki agar meri shadi tumse nahin hoti to mein to bhooka hi marjata

ऑफिस से लौटकर अक्सर कहते ,जैसे ही छुट्टी होती है लोग भागते हैं बस पकड़ने के लिए ,मैं उनसे कहता हूँ भाई घर जाकर चिल-पों ही ही सुननी है न ,आधा घंटे  बाद सुन लेना। इस तरह बातें करके लोगों को हँसाते जिसे लोग आज याद करते हैं।

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एक बार गुस्से में आपा तो खोते ही थे ,बोले -मैं मर जाऊँ तो रोना मत और मैंने भी बोल दिया ,बिलकुल नहीं रोऊँगी बहुत रुला लिया अबतक। अब सोचती हूँ क्या बचकानेपन की बातें होतीं थी।

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बहुदा कहते ये मकान फिफ्टी पर्सेंट मेरा है।अब कहाँ गए ख़ुद और कहाँ  गया वह फिफ्टी पर्सेंट मकान ,न  मैं उसमें न आप।   क्या था यह सब ,बकबास के अलावा।

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जब कभी पानी बिजली की समस्या से मैँ दुःखी होतीतो कहते देखो राजे अगर ये प्रॉब्लम सबकी है तो मैं बुरा नहीं मानता पर अगर केवल तुम्हारी है तो मैं अपनी ग़लती मान लूँगा। 

 
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ख़ुद बेकार में कभी-कभी गुस्सा होते और मैं चुप होजाती तो कहते बस होगई गुस्सा तुझे पता नहीं मेरे दिलको खोल कर देख राजे ही राजे लिखा है। मैं तो बेफ़्कूफ हूँ पता नहीं क्या-क्या बोल देता हूँ। माँफ भी कर दिया कर। और होगई बात खतम ---
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मनोगत भाव

                                                            (  1 )

भगवान ने हमें दो बहुत खूबसूरत वरदान दिए ,जिनकी परवरिश में उनका पूरा सहयोग रहा ,  उनकी खशबू फैली सर्वत्र। लेकिन हमारी ओर से ही एक कमी रहगयी ,हमने उन्हें प्यार दिया ,उचित संरक्षण दिया ,लेकिन उसमें जिस लगाव एवं आसक्ति की आवश्यकता होती है ,उसे नहीं दिखा  पाये। लगाव और आसक्ति व्यक्ति को प्रायः कमज़ोर बनाती है इसलिए मैं इसे बुरा  भी नहीं मानती।पर कमी तो है ही। वैसे ये  कमी हमें अधिक महसूस होती है वह भी वृद्धावस्था में ,पर ये  कमी उनके जीवन के विकास में कभी बाधा  नहीं बनी। पर ऐसा भी नहीं है कि उन्हें कभी महसूस ही नहीं हुई हो। हमेशा होती रहेगी। ये माता -पिता का त्याग है जो कभी उनकी उन्नति में बाधा न बना, न बनेगा। इसीलिये वे पूर्णतया आत्मनिर्भर हैं। शुभकामनाओं के साथ --माँ



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                                                                (  2   )

कभी -कभी आप बहुत याद आते हैं, आप पर बहुत प्यार आता है,क्योंकि साथ रहते हुए तो हमेशा आपके    अकारण क्रोध से भय-भीत रहती थी।हमेशा मानसिक तनाव में ही रहती थी। आपके जाने के बाद तनाव ख़त्म और अब केवल और केवल आपको याद करती हूँ। साथ रहते हुए तो आपके प्रति सहानुभूति, दया और आदर  के ही भाव थे और जब-तब तनातनी ही रहती थी। भर-पूर  प्यार को तो आपने कभी मौका ही नहीं दिया। साथ-साथ घूमे -फिरे पर हम दोनों ही एक प्यार का अभाव महसूस करते रहे। आपके जाने के बाद आपकी यादों को ही प्यार करती हूँ।



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                                                                 (  3  )

कहते हैं कि व्यक्ति की आखिरी इच्छा ज़रूर पूरी करनी चाहिये।अब बताइए मेरी इच्छा कौन पूरी करेगा। आपने तो अपनी सारी इच्छाएँ पूरी करालीं लेकिन मैं ? मैंने चाहा था बच्चों की पोस्टिंग आने वाली है उनके जाने के बाद मैं आपके साथ रहकर आपके मन का खाना खिलाऊँगी तो आपका स्वास्थ्य ठीक हो जायेगा।लेकिन वैसा नहीं हुआ। क्योंकि किसी का घर में रहना,आना,दो घंटे भी टिकना पसंद नहीं था। बच्चे आपकी परमिशन लेकर आये थे ,पर आपको कुछ दिन बाद ही मुश्किल होने लगी थी लेकिन बच्चे हमारे हैं क्या करते और आप चले गए। किसी का कोई कुसूर नहीं था ,समय प्रबल था  अच्छा हुआ। पर अब आप बताइये कि मेरी इच्छा कैसे पूरी हो सकती है। आपने हमेशा अपनी इच्छा पूरी कीं और जब नहीं होपाईं तो चल दिए।भाग्य मेरा  !!!

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                                                             (  ४  )


एक वर्ष बहुत दुःखी रही ,बहुत सन्तप्त रही,अपने आप से बहुत ग्लानि होती रही। पर  अचानक उत्पन्न ऊर्जा में सब कुछ भस्म होगया। वह पल जिसे मैं घातक समझ रही थी ,मेरी ज़िदगी का प्रेरक पल था ,ईश्वरीय सत्ता से प्रेरित था। इसे मैंने एक वर्ष व्यतीत होजाने पर स्वयं महसूस किया। आज मैं खुश हूँ, संतुष्ट हूँ,शान्त हूँ,मन में  शिकवा ,शिकायत नहीं है।  यह ऊर्जा ईश्वरीय प्रेरणा ही थी। हे ईश्वर !आपको कोटिशः प्रणाम !!


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                                                               ( ५  )

मैंने तो चाहा था कि मैं नॉएडा में ही रहूँ और जब-तब जैसे आपके साथ आती - जाती रहती थी वैसे ही बच्चों के पास जाती रहूँगी। लेकिन वैसा हो न पाया। बहुत से सवालों का सामना करना पड़ रहा था। आप तो चले गए ,समय तो मुझे व्यतीत करना था ,वह भी नहीं पता कितना !फिर सोचा मेरे वहाँ अकेले रहने से  अनुपम भी तो चिंतित  रहता ही होगा ,वह कुछ कहे या न कहे साथ रहने का आग्रह तो करता ही था। इसलिए सबकुछ भुला कर बच्चों के साथ ही रहने का निश्चय किया और यही ठीक भी लगा। अपनी इच्छाएँ समाप्त करो ,क्या ,क्यों बंद करो और जो है उसी में खुश रहो। बस इसके बाद तो दुःख काहेका !बल्किअनुपमके चेहरे पर जो संतोष दिखाई देता है मैं उसी में संतुष्ट हो लेती हूँ। फिर आपकी बहू और ईलू का अच्छा साथ है। ईलू बहुत अच्छी बातें कर हँसाती रहती है। अरमान ज़्यादा न रखो तो तकलीफ किस बात की !बच्चों के साथ खुश हूँ। समय व्यतीत करने में भी कोई मुश्किल नहीं होती। आपको और भगवान को याद कर कट ही रहा है,कब तक यह तो पता नहीं।

                                                     
                                                                (  6  )                        
                                                           

सुहाग के वो आखिरी पल जो  ---जुलाई २०१५।

 
    ज़िंदगी के सर्वाधिक दुखदायी थे ह्रदय- विदारक और कष्ट -पूर्ण थे ,आँखों के सामने का  वह अविस्मरणीय दृश्य ,जिसे भोगा जो विचलित करनेवाला अत्यधिक  शोक पूर्ण था , बहुत याद आता है। न जाने क्या था उन पलों में कैसा संतोष था उन दुखद पलों में भी, जो यादगार बनगया -
     चाय के दो - तीन घूँट पिलाना और -
     बीच - बीच में बिस्किट खिलाना उसके बाद
     एक सेंड विच का पीस खिलाना और फिर उनकी डाँट -
    "खिलाना है तो बिस्किट खिलादो नहीं तो रहने दो "
आखिरी उनके ये मूल्यवान शब्द ,जिसके बाद उनकी वह आवाज़ सदा - सदा के लिए शून्य में विलीन होगयी वे मर्म भेदी पल बहुत याद आते हैं पर एक संतोष के साथ !! न जाने कौनसा सन्तोष !!!
और महसूस होता है जैसे इन पलों में मेरा उनसे साक्षात्कार हो रहा है। शायद यही सन्तोष है।

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Monday 2 February 2015

कसक

कसक:आन्तरिक - पीड़ा 

मैंने सदा आपका साथ दिया अपने घरवालों  भुला दिया। अपने बच्चों का भी उतना ही साथ दिया जो बहुत आवश्यक था। हमारी बेटी के साथ जो हुआ नियति का ही विधान था। उस समय को याद करती हूँ तो आज भी घबरा जाती हूँ। आप केवल चिन्ता करते थे , गुस्सा करते थे और मानसिक रूप से अस्वस्थ हुए चले जारहे थे उसको भी लेकर परेशान। हमारी बेटी का परेशान चेहरा जिस पर न जाने कितने प्रश्न। ऊपर से वह वकील जोअपना ही नहीं रहा था,हमारी तो सुन ही नहीं रहा था।और हमारी बेटी उसे पूरा पैसा दे रही थी ,उसके  परिवारके लिए भी खाना अरेन्ज करतीं ,जूस लेकर पिलाती।घर से शिकंजी या कुछ और ठंडा लेकर जाती। पूरा भरोसा करती कि सब कुछ ठीक होगा। लेकिन नतीजा ज़ीरो मिला।
      सारी उलझन का असर था कि सब परेशान और ऊपर से  आप तो आप मैं भी अपनी बेटी के साथ  अनुचित और असंगत व्यवहार कर जाती थी जिसका दुःख आज भी मुझे है। कभी आप,कभी बेटी का चेहरा !! बिलकुल अकेली पड़गयी थी मैं। तब किसी तरह बेटी को समझा-बुझाकर नेट पर लड़का ढूँढने का आग्रह किया और ईश्वर ने दया की ,उसे इस काम के लिए आज्ञा दी।सब काम को उसने कितने संतोष व धैर्य से किया आपको कोई मतलब नहीं था। विवाह होने तक आप इस पूरे मुकाम से ऐसे छिटक कर दूर रहे थे जैसे किसी और का काम होरहा है।
    उस समय मैं बेटी को समझाती रहती ,प्रोत्साहित करती उसे सहारा देती क्योंकि काम तो सारा उसे ही करना था। कभी सिटी मजिस्ट्रेट के दफ्तर, कभी नोटरी दफ्तर ,कभी कुण्डली मिलवाने पंडित के पास ,कभी  नॉएडा कोर्ट में पेपर सबमिट करने ,कभी आर्य -समाज मंदिर में ,कभी गिफ्ट देने के लिए सामान खरीदने  लिए जाना ,कभी कैटरर फिक्स करना ,इन सब कामों में आप कहाँ थे। आभारी रहूँगी आपकी कि नकारात्मकता तो दिखाई किन्तु विरोधी बनकर सामने खड़े नहीं हुए ,आगे बढ़ने से रोका नहीं। आपने  खड़े होकर परिवार के सम्मान को बनाये रखा उस पर  आंच नहीं आने दी। और काम सकुशल संपन्न हुआ।
     
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