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Thursday 27 February 2014

पुत्र-बधु के श्रद्धान्वित विचार

पापाजी ,
आपके प्यार और आशीर्वाद से ही -
मैं तो दिन का कार्य शुरू करती थी -
लेकिन ये क्या?
आपने तो अपनी सेवा का भी अवसर नहीं दिया।
आपके साथ रह कर बहुत कुछ सीखना था पर अब --?
अब मुझे मालूम है ,आप मुझे ऐसा निर्देश देते रहेंगे -
जिसके अनुसार मैं हिम्मत से अपने परिवार की देख-रेख
करती रहूँगी ,आपके आशीर्वाद की चाह लिए -
श्रद्धानत आपकी
पुत्र-बधु 

Monday 17 February 2014

दादा के प्रति -------

मेरे प्यारे दादा !
मैं तो स्कूल से आकर -
आपके आने का" वेट"कर रही थी -
पर दादा आप नहीं आये -
दादा अब आपका प्यार मुझे कौन देगा ?
मेरा रिज़ल्ट आया दादा ,मैं कक्षा  ४ में आगई हूँ -
पर आपसे इनाम नहीं मिला -
पूरे साल के गिफ्ट, प्राइज़ कौन देगा ?
हाँ ,अभी तो आपकी तरफ से दादी ने दिए हैं -
पर उनके पास तो पैसे ख़तम भी हो जाएंगे-
फिर कौन देगा मुझे आपकी ओर से ?

मेरी ईलू ,मैं तुम्हारी दादी को बहुत सारे पैसे देकर आया हूँ -
तुम्हारे और आरुष के लिए -
वह पैसे तुम दोनों के गिफ्ट के लिए हैं।

जो कभी ख़तम  नहीं होंगे।
 और तुम खूब खुश रहोगे। 

                -----

श्रद्धांजलि -----पुत्री के उद्गार

पापा ,आप मेरे कारण दुखी थे
पर पापा उसमें मेरा क्या दोष था ?
आपके दुःख के कारण शादी करने का निश्चय किया -
और की !आपका भी सारा काम मैंने कर -
आपकी परेशानी दूर की।
आपका आशीर्वाद भी मिला -
मैं खुश भी देखी आपने -
आपके आशीर्वाद से घर भी बना
आपने देखा भी "पा "
आपने नाती को भी देखा।
और इसके बाद हमें इतना बड़ा "अभाव "देकर चले गए -
पापा ये आपने अच्छा नहीं किया -
पर मुझे महसूस ज़रूर हुआ है अनेक बार -
"आप हमारे पास ही हैं"-
और हमें वह सब दे रहे  हैं जो पहले नहीं दिया,पापा!
आपका आशीर्वाद।

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श्रद्धांजलि (पुत्र के उद्गार )

पापा आपने कहा था -
मेरी कब्र पर ये पंक्तियाँ लिखवा  देना -
     "ये ज़िंदगी के मेले दुनिया में 
     कम न होंगे अफ़सोस हम न होंगे ---"
पापा मुझे नहीं पता था इतनी गहराई थी 
आपके इस कथन में ----
पापा मैंने पेपर में निकलवा दिया -
लेकिन पापा मैं किसे दिखाऊँ 
कौन गलतियाँ  निकालेगा। 

इतनी जल्दी छोड़ कर चले जायेंगे 
मुझे नहीं मालूम था कि आप मुझे 
"अपने बिना "भी छोड़ सकते हैं। 

आपने नहीं सोचा आपका बेटा कितना नादान है -
मैं क्या करूंगा आपके बिना -
क्यूँ आपने ऐसा किया पापा ?

पर ठीक है पापा 
आपके जाने के बाद मैंने समझा 
आप अनेक बीमारियों से जूझ रहे थे 
आप कह भी नहीं पा  रहे थे 
कम से कम आपको उन कष्टों से मुक्ति मिली ,पापा !
मुझे मालूम है आप मुझे बहुत सारा आशीर्वाद ,प्यार और हिम्मत देकर गए हैं। 
मैं उसी के सहारे सब कुछ ठीक करूँगा।                        
                           
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Saturday 15 February 2014

जीवन का वो आख़िरी दिन ---

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आत्म-कथन


आपने कहा था- ( हॉस्पिटल में )
"तुमने भी इतना सहा, इतना सहा  कि तोड़के तो दिखा",मतलब मैं समझ गई थी कि आप क्या कहना चाहरहे हैं। मेरी आँखें तब अश्रु-पूरित होगईं।
          आपका यह वाक्य मुझे हमेशा हिम्मत देता रहेगा।

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दिवा-स्वप्न (परस्पर सम्वाद ) 6.2. 2013

       कभी पापा ! कभी बापू ! कभी पा ! कभी पापाजी ! कभी दादा ! कभी दादू ! कभी श्रीमानजी ! लेकिन अब कुछ नहीं क्या ? मेरी जगह खाली होगई ! क्या ऐसा ही होता है ? क्या यही है सच्चाई ! हाँ प्रकृति का तो यही है नियम है ! और  यह नियम तो सबके लिए समान है आपकी  खाली जगह तो यूँ ही वीरान ,बीहड़ पड़ी है। हर पल हर समय सालती है , चुभती है ,बहुत दर्द देती है , बहुत पीड़ा देती है। एकांत में बहुत रुलाती है। तभी एक आवाज़ सुनाई देती है।पगली मैं कहीं नहीं गया , तुम्हारे ही पास हूँ। मैं वैसा ही हूँ ,तुम्हे देखता रहता हूँ ,बस तुमसे दूर हूँ,चिंता - मुक्त हूँ। सोचता हूँ ,मैं बच्चों को दुनियादारी सिखाने की बातें करता था पर मैं तो सबको अकेला छोड़कर खुद ही चला आया। यहाँ भगवान् भी मुझसे यही सवाल पूछते हैं जो मैं कहता था कि ------तब मैं चुप ही रहता हूँ ,मेरे पास उनके सामने कोई जबाव नहीं होता। सिर्फ़ मेरा परिवार मेरे सामने होता है और उनकी आँखों में भी बहुत से सवाल मुझे दिखाई देते हैं। यह बात तो सही है ,सवाल तो बहुत हैं श्रीमानजी, मुश्किलें भी बहुत है , किन्तु जब भी समस्याएं आती हैं,तो ऐसे सुलझ जाती हैं जैसे आप ही ने सुलझा दी हो ,महसूस होता है ऐसा ,कईबार हुआ है ऐसा। पर उलझनें  आने पर कभी-कभी तो लगता है कि कहीं से आकर आप  एक दहाड़ लगादें , सबठीक होजायेगा।

              किन्तु आपने बिलकुल अच्छा नहीं किया।बहुत दुखी किया है आपने। 

                                                                                                                                                                                                                           ----------------------- 

६ फरवरी २०१३ की वो काली भयावह रात

देखते-देखते चले चले गए
मैं देखती रह गयी
मैं बातें करती रह  गयी ,चिल्लाती रह गयी
फटी हुई आँखें  बंद करती रह गई -
और तुम विदा लेगये !
डॉक्टर की टीम आगई --
कृत्रिम साँसें देते  रहे  लेकिन --
तुम नहीं लौटे और तभी एक आवाज़ ने -
"माताजी धड़कनें बंद हो चुकी हैं."मुझे
स्तब्ध कर दिया ,मैं जड़वत हो गई ---
मैं ठगी सी ज़मीन पर बैठ  गयी-
गले की आवाज़ बंद ,रोना बंद ,
पैर चलने को तैयार नहीं,पर चली -
लिफ्ट चलाना भूल गई -
सीढ़ी से उतरी ,उतरा न जाए -
बैठ गयी -
फिर बढ़ी,उतरी -
जैसे-तैसे ट्रौमा-सेंटर तक पहुँची -
हत-प्रभ ,हत-प्रभ ,हत -प्रभ !!!

       एक पल में सब कुछ ख़तम
       रह गया  तो एक काली भयावह रात का सन्नाटा ------!!!

                                  ---------

Wednesday 5 February 2014

एकाकीपन


एकाकीपन

एकाकीपन जीवन की  वह साधनावस्था है,जिसमें मानव एकाकी बैठ कर चिंतन करे कि अबतक उसने क्या किया और क्या करना शेष है। यह साधना कठिन नहीं होती ,केवल उसे भावी -जीवन का मार्ग दर्शन करेगी।

एकाकीपन !
यह जीवन का अटूट-सत्य है।              
हर प्राणी अकेला ही है -
क्षणिक मिथ्या-सम्बन्धों को सही मानकर -
स्वयं को भ्रमित कर ,दुखी करता है।              
 
वह भीड़ में भी अकेला होता है ,
समुदाय में भी अकेला होता है -
यहाँ तक कि परिवार में भी अकेला होता है।

जब भी कोई दुर्घटना घटित होती है तो -
सबको छोड़ कर अकेला ही चल देता है।

मानव केवल कर्त्तव्य निभाने के लिए जन्म लेता है-
और इसमें यदि कोई दूसरा मोह-ग्रसित होजाता है और
उससे वियुक्त होने पर दुखी होता है ,पछताता है -
ये तो उसीकी अज्ञानता है ,विमूढ़ता है

वह अकेला ही है ,जब तक जीवन है अकेला ही रहेगा।
अच्छे और बुरे कर्मों के अनुसार केवल ईश्वर से ही जुड़ा है
वह दुखी तब होता है जब स्वयं को ईश्वर से जुड़ा नहीं समझता।

अच्छा हो एकाकी रहकर अपने कर्मों का लेखा -जोखा खुद करें और आत्म-विश्लेषण करे।

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