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Tuesday 31 January 2023

वो कौन थी -------

 वो कौन थी     !!

      उसने कभी अपना कोई मित्र नहीं बनाया,क्योंकि हर सम्बन्ध  त्याग और समर्पण की अपेक्षा रखता है इसका सीधा मतलब किसी न किसी की उपेक्षा करना।लेकिन  उसे बिना किसी उपेक्षा-अपेक्षा के शांति व सन्तोष से जीना था।   

      इसी विश्वास के साथ उसने एक बहुत सीधी-सादी घटना,जो उसके जीवन में सालों से उसका उत्पीड़न कर रही थी,बताई। बड़ी मुश्किल से उसके ओठ खुले और तब अटक-अटक कर,सहमी सी,डरी सी जमीन में आँखें टिका कर एक सांस में उसने सब कुछ उड़ेल दिया,बोली - एक संस्थान जहां वह कार्यरत थी,एक दिन लिफ्ट में जाते हुए उसकी नज़र लिफ्ट में  पड़ी हुई एक चमकदार वस्तु पर पड़ी, चमकती आँखों से उसने उसे उठा लिया।मुफ्त की चीज़ मिली बस ये चमक थी आँखों में। न लोभ था,न लालसा थी, न उससे कोई लाभ था,और नाहीं घर के किसी अभाव की पूर्ति हो रही थी।पर मन व्यग्र था,द्विविधा में था।बात इतनी सी कि फिर करे क्या उसका ! क्या lost nd found प्रॉपर्टी में जमा कराये पर सोचा वो वस्तु वहां से जिसकी है उसे तो नहीं मिलेगी कोई और के ही हाथ लगेगी। इसी मनःस्थिति में 3-4 घंटे निकल गए मन शान्त नहीं हुआ।तभी कुछ शोर सुनाई दिया,अमुक व्यक्ति की वह वस्तु कहीं खोगई। यह सुन हालत ज़्यादा ख़राब होगयी। सोचा उसने कि अब दूँ  तो अनेक प्रश्न होंगे,अबतक क्यों नहीं बताया आदि आदि ----तो घर लेजाना ही उचित लगा।पर उसके बाद भी उसका मन बेचैन;उसका करे क्या ?किसी मंदिर में चढ़ादे या सड़क पर फेंकदे;इसी पशोपेश में समय निकलता गया उलझन बढ़ती गयी।तभी एक बड़े घनिष्ठ का विवाह का निमंत्रण मिला राहत मिली ये वस्तु उपहार स्वरुप उसे ही भेट करदूँ। और उसने वैसा ही किया। तब उसे कुछ शांति मिली।

     उसने बताया पर ईश्वर बहुत दयावान होता है,वह तबसे लगातार मेरी मनःस्थिति को समझते हुए मेरे ही साथ था। उसने बताया जैसे ही उसने वह वस्तु उपहार में दी, उसके 2-3 दिन के उपरान्त उसके गले के पेन्डेन्ट पर किसी ने हाथ मार दिया। वो थी असली शांति !!

        समझते बिलकुल देर न लगी,सुना था दान करो तो दस गुना बढ़ कर लाभ मिलता है इसी तरह किसी की वस्तु को अपने प्रयोग में लो तो भी दस गुना या इससे भी अधिक बढ़ कर हानि होती है। तो बस पेन्डेन्ट खोने का कोई दुःख नहीं,कोई पछतावा नहीं बल्कि सच्ची और पूर्ण शांति अब मिली। इतना कहकर ख़ुशी के आँसुओं के साथ उसने बहुत गहरी सांस ली।न किसी की उपेक्षा हुई न किसी की अपेक्षा हुई। आज दिल में छिपी बात कह कर शांति से वह मुझी में समा गयी। 


                         मेरी लेखनी !! मेरी लेखनी !! मेरी लेखनी !!  

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Saturday 28 January 2023

वृद्धावस्था : युवावस्था

 

वृद्धावस्था  :  युवावस्था 


समस्या है ,सामंजस्य की।

     बच्चे चाहते हैं माता-पिता के साथ रहें या परिस्थिति के अनुसार वे हमारे साथ रहें। पर कैसे !! इसे अब एक नए परिप्रेक्ष्य में समझें तो वृद्धावस्था का बचपन बहुत जल्दी व्यतीत होजाता है जिसे खुद ये अवस्था समझ ही नहीं पाती।वो अपने यौवन में ही विचरण कर रही होती है,वो अपनी खूबसूरती,आकर्षण,यश-मान प्रतिष्ठा के भुलावे में ही खोयी हुई होती है कि अचानक पढ़ने में लिखे हुए शब्द हिलते से,डबल-डबल दिखाई देने लगते हैं। चश्मा लग गया तो एक दिन सहसा ही दाँत में दर्द हुआ,ज़्यादा तकलीफ हुई तो डॉक्टर के उपचार से ही दर्द से मुक्ति मिली तो अचानक एक दिन किसी ने कहा कि आपको शायद सुन ने में प्रॉब्लम है और इस तरह विकारों का सिलसिला शुरू होगया। 

      इस तरह लगभग 55 की उम्र से करीब 65 -----तक ये सिलसिला चलता रहा। तब जाके महसूस हुआ,अच्छा ये तो वृद्धावस्था की ज़ोरदार एंट्री अपने पूरे जोश के साथ हो चुकी है वो भी तब जब एक दिन डॉक्टर ने कहा - माताजी , इस उम्र में तो अपना ध्यान रखिये।

       यकायक लगा झटका सोचा,ध्यान ही न था इस ओर तो। यानि कि वृद्धावस्था अपने चरम वेग पर है बचपन यौवन सब समाप्त ! सामान्य विकारों के उपचारों के साथ अब औपचारिक साधन भी जुटाने हैं ; जैसे - खाना सादा-सरल,पहनावे में परिवर्तन,सीमित मेल-मिलाप,आवश्यकता की हर वस्तु अपने निकटतम रखना,जिस से वृद्धावस्था की ये अवस्था किसी ओर के कष्ट का कारण न बने। 

       अब सोचिये आजके इस बदलते ,दौड़ते-भागते जीवन में किसी के साथ कैसे सामंजस्य बिठाया जा सकता है ! आज युवावस्था की आवश्यकताएँ पूर्णतया भिन्न हैं। डिजिटल की दुनिया में अशिक्षित युवा भी बिलकुल बदल गया है वो भी वह सब करता है जिसे वृद्ध शिक्षित भी नहीं कर सकते।दिनभर की कार्य-शैली भिन्न,कार्यालय का काम-काज भिन्न,उनका स्वयं का भी समय मानो उन्हीं के लिए कम पड़ गया हो।

    डिजिटल की दुनिया बिलकुल अलग है। घर में हैं पर सारी दुनिया से जुड़े हुए,काम-काज, पारिवारिक दायित्वों को पूरा करने में व्यस्त युवा,यानि एक दिमाग और एक ही समय में इतने सारे दायित्वों को सफलता पूर्वक निभाने में तत्पर !! माता-पिता का यथोचित मान-सम्मान व उनकी उचित आवश्यकताओं को पूरा करना।इतना करने भर से भी वृद्ध और युवा दोनों अपनी ओर से सामंजस्य बिठाने में प्रयत्नरत ,क्या संतुष्ट रह पाते हैं ? जबाव है नहीं। युवाओं का हँसना-बोलना,खान-पान,रहन-सहन शौक-मौज कहीं भी तो मेल नहीं खाता। 

       फिर सामंजस्य कैसे संभव ! पर समझदारी से सबकुछ संभव ! यहाँ दायित्व इस कमज़ोर,मजबूर,विवश बूढ़ी वृद्धावस्था का ही हो जाता है। होना भी चाहिए क्योंकि -

" वे उस युवावस्था के अनुभवों से गुज़र चुके होते हैं उनकी आवश्यकताओं से चिर-परिचित होते हैं  और युवावस्था ने तो वृद्धावस्था के अनुभवों को जाना ही नहीं।वे उनके मानसिक स्तर,उनकी पीड़ा उनकी वेदना तक कैसे पहुँच सकते हैं।" तो उनका पक्ष तो सबकुछ करते हुए कमज़ोर ही होगा।इसलिए दायित्व इस बूढ़ी वृद्धावस्था का ही है। 

                                सोचिये सोचिये सोचिये  ------- 

            

        




   

Wednesday 25 January 2023

रिटायरमेंट

 

         रिटायरमेंट  !!!

      

                    एक प्रश्न बार बार मेरे शांत मन को उद्विग्न करता है कि -

   " क्या रिटायरमेंट का दरवाज़ा मृत्यु की ओर जाता है ?"

   " क्या रिटायरमेंट कोई ' सांकेतिक दस्तक ' है ?"

                 ध्यान नहीं ; उक्त कथन कहीं पढ़े हैं या स्वयं मेरे मस्तिष्क की उपज, पर जो भी है ,मेरा मन इस ऊहापोह से उद्वेलित हो उठा कि यदि ये सच है तो फिर ये सिद्धांत या संकेत स्त्री- पुरुष दोनों पर लागू होना चाहिए।एक सुघड़ , सुशिक्षित विचारों से परिपक्व महिला रिटायरमेंट के पश्चात् कार्यकाल की ड्यूटी का निर्वाह कर एक तरह से अपने आशियाने में बापस आती है। बाह्य चिंताओं से मुक्त उन्मुक्तता का अनुभव करती है , अपने घर की बनायी दीवारों को निहारती है , खुश होती है लौट कर, विवाहित या अविवाहित अपने बच्चों और पति के साथ आनंदमय जीवन जीना चाहती है।अपने कार्य-काल यानि अपने व्यावसायिक कार्य के दायित्व से मुक्त हो बहुत ही सहज और सरल संतोषप्रद जीवन जीना चाहती है , परिवार के साथ नए उत्साह के साथ जीवन जीना चाहती है - पर कैसे ------!!

        प्रश्न यहीं खड़ा होता है !! पति तो रिटायरमेंट के पश्चात् बहुत ही असहज  बेरोजगार एक युवक की भाँति असन्तुलित हो जाता है। 

      महिला और पुरुष इस पड़ाव पर इतने भिन्न क्यों ? पुरुष इतने असहज इतने निर्बल क्यों महसूस करते हैं ! ओहदा कुछ भी हो कुछ आवश्यक बचत तो होती ही है , कहीं न कहीं निवेश भी करता है भविष्य के लिए। भविष्य भी ऐसा कि इस अवस्था तक आते-आते परिवार के महत्वपूर्ण दायित्वों से लगभग मुक्त हो चुका होता है। फिर इतनी असहजता क्यों !! 

     प्रयासरत होते हुए कोई काम अपनी रूचि के अनुकूल मिलजाय ,बहुत अच्छा किन्तु न मिलने पर किसी भी तरह के मानसिक दबाव में आजाना बहुत ही नासमझी और असंगत है भयंकर बीमारियों का कारण बन सकता है।

       प्रयास तो ये होना चाहिए जो इच्छाएँ कार्यरत रहते या बच्चों की देख-भाल में पूरी  नहीं कर पाए अब शुरू करें।कभी बच्चों के परिवार के साथ रह कर,कभी स्वयं कहीं घूमने हेतु प्रोग्राम बनायें कभी धार्मिक स्थलों पर दर्शन हेतु जाएँ।पर ये विचार इन पुरुषों के मस्तिष्क में क्यों नहीं आते। जिनको लेकर पत्नी सारा जीवन इसी प्रतीक्षा में व्यतीत कर देती है ! उसका जीवन तो नितांत एकांगी रह जाता है। 

      फिर से पति की देख-रेख , उनकी बीमारी की चिंता में अपनी युवावस्था से भी अधिक व्यस्त हो जाती है।बच्चे भी पास नहीं होते,उस पर पति की इस तरह की असहजता,व्यवसाय के लिए उत्तरोत्तर बेचैनी पत्नी को वास्तविक आयु से अधिक वृद्धावस्था की ओर धकेल देती है। 

      ऐसी ही स्थिति में प्रारम्भ में उठाये प्रश्न यहाँ खड़े होते हैं।यहाँ ये कहना आवश्यक है कि ऐसा  हर पुरुष के साथ नहीं होता वे भी समय और आवश्यकता  के अनुसार स्वयं को और अपने परिवार को खुश व सन्तुष्ट रख कर आनन्द व संतोष के साथ जीवन यापन करते हैं। 

      किन्तु अधिकतर मैंने ऐसा ही पाया है  " रिटायरमेंट सच में पुरुष वर्ग के लिए एक बोझिल और नाकारा अवस्था होती है।" 

                            *************        

   



                

 


एक कमज़ोर,विवश अवस्था ऐसी भी ------------


एक कमज़ोर , विवश अवस्था  ऐसी भी --------


समझ नहीं आता कि कौन गलत 

स्वयं खुद या कि सामने वाला  !!

अपनी मजबूरी का दोष भी दूसरों में देखना ,

कभी उसी के सहज भाव से किये कार्यों की प्रशंसा करना,

बड़ी ही अन्यमनस्क स्थिति !!

समीक्षा की ,विचार किया ;

किन्तु पशोपेश दूर नहीं हुआ ,

ऊहापोह की स्थिति जस की तस !

क्यों ??

क्योंकि मानव स्वयं में कम ,और 

सामने वाले में दोष अधिक देखना चाहता है। 

किन्तु फिर भी स्थिति तो यथावत -----

गम्भीर विचारों के सागर में डूबता रहा ,

सामने वाले पर ही प्रश्न उठाता रहा ,लेकिन 

नतीजा ------

किंकर्तव्यविमूढ़ !

आखिर में 

खोजते खोजते जिस बिंदु पर पहुँचा  तो -

घेराव में आया  ईश्वर !

सोचा इस अवस्था तक पहुँचाने में यही एकमात्र काऱण है। 

लो अब कल्लो बात !

जब कोई अनुकूल कारण नहीं मिला तो ,

पकड़ो इसे ही ,

पर सही पकड़ा ,सही पकड़ा ,

अन्ततः राह दिखाई उसने !

कोई गलत नहीं ,कोई दोषी नहीं ,

दोषी स्वयं खुद ही हैं हमारी सोच,हमारा स्वार्थ !

हमारे विचारों का संकुचित क्षेत्र ,

तब जाकर प्राप्त अन्यमनस्क अवस्था  में सुधार आया ,

लगा हम स्वयं ही अपनी हर समस्या,कष्ट तकलीफ के कारण हैं। 

आत्म निरीक्षण ,आत्म समीक्षा ,आत्म चिंतन बहुत आवश्यक है ;

अपनी इस अवस्था से मुक्ति पाने के लिए।।

    सकारात्मक " सोच "


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मतलब सबकुछ उसी का किया धरा है