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Thursday 25 September 2014

शिकार हूँ या शिकारी

पशोपेश की स्थिति !
मैं शिकार या शिकारी?
क्या कभी देखा है ऐसा ?
कुछ मिनटों का चलचित्र -
घूमता है आखों के सामने।
सामने शिकार -
न झपटना ,
न कोई "अटैक "
भयातुर !
एकटक देखना -
छू-छूकर देखना -
संदि ग्ध निगाहें -
सपना है या सच ?
विश्वास और अविश्वास का मानसिक द्वंद्व -
रुक-रूककर पूँछ का हिलना -
जीभ से राल का टपकने जैसा दृश्य -
और अचानक -ये क्या?
ये तो सच है !
सपना नहीं ,मेरा शिकार   है-
किस बात  की देरी !
और बेचारा क़ुग्रह ,कुसमय का शिकार -
बन गया शिकारी का शिकार।
होगई विजय की विजय

     (  ये कविता मैंने उनदिनों में लिखी थी जब दिल्ली जू में एक लड़का गिर गया  था और कुछ मिनट तक
 शेर और उसके बीच मानसिक अन्तर्द्वन्द मचा रहा था )    

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