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Tuesday, 27 October 2015

छोड़ दो !!

    छोड़दो !! 

छोड़दो !
आखिर क्यों ?
कहते हैं "पीना" अच्छा नहीं होता।"
"ज़हर" है ,यह -
तुम्हेँ अन्दर ही अन्दर जला  रहा है।
पर छोड़ता कौन है ?
कहते हैं,अपना भविष्य सँभालो,आगे बढ़ो -
पर मुझे तो उसके बिना कुछ भी अच्छा नहीं लगता
अधूरी लगती है ज़िन्दगी
कहते हैं,माँ भी तो यही चाहती है
पर क्यों,अगर मुझे उससे सुकून मिलता है -
तो क्यों हो किसी को एतराज़ ?
फिर मुसीबत में तो अच्छे-अच्छे साथ नहीं छोड़ते -
तो मैं क्यों छोड़ूँ ?
उन्हें नहीं पता कि उसे छोड़ने की कल्पना भी - 
मुझे कितना व्यथित करती है और
उसके साथ रहने की कल्पना भी 
मुझे कितना रोमांचित करती है -
सहारा है वह मेरा !
सर्वस्व है वह मेरा !
फिर बुराई-दोष किसमें नहीं होते !
फिर उसकी अच्छाई क्यों नहीं दिखाई देती किसी को !
मुझे तो उसके साथ की  कल्पना से नींद भी अच्छी आती है,
शान्ति मिलती है ,सन्तुष्टि मिलती है और -
सुबह तरो-ताज़ा होती है।
अन्यमनस्क मन कि-  
अचानक  उसके  कर्ण-पटल पर -
छोड़दो छोड़दो छोड़दो की गूँज !
एक अलग सा राहत भरा एहसास !
आँखों के सामने एक ज्योतिर्मय पथ दिखाई दिया -
लगा यही है मेरी ज़िन्दगी का रास्ता
जो मेरी ही प्रतीक्षा कर रहा था
ख़त्म हुयी अन्यमनस्कता।
छोड़ दिया उसे सदा सदा के लिये।
मानली सबकी बात ! और-
सँभाल ली अपनी ज़िंदगी !!!
   ईश्वर !
                     कोटिशः प्रणाम !!
                     शतशः नमन !!

                        **
                 

               
           


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