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Friday 4 April 2014

फरवरी २०१४। -----जब हम दोनों साथ थे ---

                     संस्मरण 

  -----------इनकी इच्छा थी कि वह अपनी आत्म-कथा लिखें ,उनकी इस इच्छा को अपने साथ जोड़ कर संक्षेप में पूरा करने की कोशिश कररही हूँ.इनके पिताजी ने तीन विवाह किये थे।सबसे पहली पत्नी का निःसन्तान ही निधन होगया था,दूसरी पत्नी से इनका जन्म हुआ ,किन्तु इन्हें चार वर्ष का छोड़कर वह भी भगवान् को प्यारी होगयीं और उसके बाद इनके पिताजी ने तीसरा विवाहकिया। उसके कुछ समय बाद उनसे तलाक होगया। अब बाऊजी और ये साथ-साथ रहते थे। वह समय इनके जीवन का अच्छा समय था ,तलाक का कारण इन्हें नहीं पता था ,समय ठीक-ठाक गुज़र रहा था कि अचानक इनकी ज़िंदगी में एक मोड़  आया इनके बाऊजी ने एक और शादी करने का फैसला  किया यानि कि  चौथी!!विवाह की तैयारियाँ होगईं ,जिस दिन शादी थी ,इन्हें सिनेमा देखने के लिए भेज दिया गया। विवाह होगया और इनके खुशाल जीवन में एक अनचाहे तूफ़ान ने दस्तक देदी। चार-छै वर्ष में तीन बहिनें-एक भाई का आगमन होगया। अब घर इनके लिए पराया होगया।घर में रहना मुश्किल होगया। कई बार घर से भागे पर हर बार बाउजी का कोई न कोई मित्र समझा-बुझाकर इन्हें घर लेआता। अब पढ़ाई के लिए इन्हें अलीगढ़ इनके चाचाजी के घर भेजा गया जहाँ इन्होंने ड्राफ्ट्समेनशिप का कोर्स किया।कोर्स करने के बाद नौकरी के लिए हापुड़ अपने दूसरे चाचाजी के पास जाना पड़ा। नौकरी के लिए दफ्तर मेरठ में था। हापुड़  सेजाना कठिन होरहा था ,सोचा वहाँ छोटे चाचाजी के यहाँ रहकर दफ्तर जॉइन करलेगें इसलिए मेरठ चले गए। लेकिन वहाँ मिली उपेक्षा और अपमान के बीच रहना और भी मुश्किल हुआ तो पुनः हापुड़ से ही आना-जाना रखा। काफ़ी दूर पैदल चलकर ट्रेन पकड़ना आदि खाने-पीने की समस्याओं के साथ समय बीतता रहा। एक दिन बाउजी ने किसी के द्वारा एक पत्र भिजवाया,जिसके ज़रिये इन्हें ऋषिकेशमें एंटीबायोटिक्स-प्लान्ट ,आइ डी पी एल में स्थाई जॉब मिला ,सरकारी आवास भी मिला। लम्बे समय के बाद ज़िंदगी में सुकून और शांति मिली,५-६ वर्ष नौकरी करने के बाद इनका विवाह का योग बना मेरी माँ को किसी ने इनका परिचय दिया ,नानाजी ने पत्राचार कर विवाह की रश्म पूरी की। तब ये २९ वर्ष के थे। वर्ष १९७३ जुलाई ८ को हम परिणय-सूत्र में बँध गए। विवाह हापुड़ में हुआ। पूरा सहयोग आ० चाचाजी और चाचीजी ने बहुत प्यार से किया। बाकी दोनों चाचाजी और उनके परिवार के सभी लोग भी विवाह में सम्मिलित हुए लेकिन बाउजी के परिवार से कोई नहीं था। हापुड़ में इनका संरक्षण हुआ ,विवाहभी हुआ। इसलिए मेरा भी हापुड़ के प्रति लगाव और अपनापन का भाव है। उनके प्रति आभारी भी हूँ।  इस तरह संक्षेप में इनका जीवन उपेक्षापूर्ण अधिक रहा। माता-पिता के प्रेम से रहित ये स्वयं बहुत असुरक्षित अनुभव करते थे जिसका परिणाम मैंने हमारी पारिवारिक ज़िंदगी में महसूस किया।

       व्यक्तित्व अपना परिवार ----
                                     इनके व्यक्तित्व में हास्य-विनोद भरपूर था। शायरी और जोक्स के शौकीन थे। पर ग्रहस्थी केवल इन शौकों से नहीं चलती। ज़िंदगी में कदम-कदम पर मिली उपेक्षा ने इन्हें शुष्क व कठोर बना दिया था जिसका सामना मैं शुरू से ही करती रही। इनकी ज़िंदगी में विवाह से पहले के नौकरी के ५-६ वर्ष का समय शायद इनकी ज़िंदगी का खुशहाल समय था। किन्तु विवाह के बाद इन्हें अपने परिवार में अपने माता-पिता के परिवार की छाया दिखाई देने लगी जहाँ हर समय इनको लेकर तनाव,खींचतान व झगड़ा हुआ करता था। इनकी सौतेली माँ के  साथ बाउजी का कठोर व्यवहार और फिर एक और शादी फिर उनसे तलाक और फिर एक और शादी। और फिर इनके साथ हुए दुर्व्यवहार और अनेक अविस्मरणीय घटनाओं ने इन्हे कठोर ही नहीं शंकालु भी बना दिया था।चौथी शादी के बाद माँ के दुर्व्यवहार ने घर में हर रोज़ कलह और क्लेश का माहौल बना दिया था। हर रोज़ बाउजी से शिकायतें  और फिर इनके साथ होने वाले अनाचार-दुराचार ने   इन्हे हर स्त्री में वही सौतेली माँ का रूप और घर को नीरसता का आवास मानने को बाध्य कर दिया था। फलतः इन्हे अपने परिवार में वही सब दिखाई देता। शंका ,अविश्वास मन में इस तरह घर कर चु का था कि जीवन के आखिरी समय तक भी समाप्त नहीं कर पायी। पर इन सबके बीच हम दोनों की ज़िंदगी एक दूसरे के लिए त्याग और समर्पण से भर-पूर थी।  दोनों ही एक दूसरे को देख कर जीवन व्यतीत कर रहे थे। 
                         इनके जाने के बाद सोचा क्यों धोखा देकर चले गए ?लेकिन फिर सोचा ,ये कहते थे ,कि " राजे,तुम मेरे बिना रह सकती हो पर मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता।"शायद यही सच था।

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