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Tuesday 8 February 2022

 एक वर्णीय शब्द " माँ "


सुनील - माँ आज शाम को मैं अपने एक दोस्त के घर खेलने जाऊँ !

माँ      - नहीं , कोई ज़रुरत नहीं कहीं जाने की , बैठ के परीक्षा की तैयारी करो। 

सुनील - माँ pl जाने दो न !

माँ      - अरे ! सुना नहीं ," तुम्हारी माँ हूँ ,मना कर रही हूँ।" 

           ( एक लघु वार्त्तांश  )

'माँ' शब्द का प्रयोग दो जगह हुआ है  - एक तो माँ के द्वारा और एक बेटे के द्वारा; कुछ अंतर प्रतीत हुआ ?

      ज़रा ध्यान दें बच्चे द्वारा पुकारे गए 'माँ' शब्द में उसके अंतर की भावना स्नेह से भरी है,कितना विश्वास कितनी आत्मीयता है, इसके इतर वही 'माँ' शब्द कितना छल-छद्मी होजाता है जब वो स्वयं को माँ कह कर बच्चे को यह अहसास कराती है कि मैं तुम्हारी माँ हूँ। 

        बच्चों द्वारा पुकारे गए किसी भी सम्बोधन में अपने पुत्र या पुत्री का माता के प्रति केवल प्यार भरा विश्वास है। लेकिन माँ के द्वारा अपने लिए बार-बार माँ शब्द का कहना घमंड और अभिमान से बोझिल लगता है।  

       बच्चे माँ कहें तो उसमें कितना प्यार और स्नेहामृत का भाव !! लेकिन माँ कहती है तो स्वयं को गौरवान्वित होने का भाव !!तब इस छल-छद्मी एकवर्णीय शब्द में प्रेम-प्यार स्नेह,अपनापन कुछ नहीं केवल और केवल बच्चों को उनका अपने प्रति कर्तव्य-बोध करने का भाव होता है। 

          जबकि माँ शब्द तो माँ के लिए केवल और केवल उसके कर्तव्य की ओर प्रेरित करने का बोध जैसा होता है। माँ शब्द सुनते ही माँ को अपना दायित्व याद आना चाहिए। माँ कह कर बच्चा स्वयं को 'सुरक्षा कवच' के घेरे में पाता है। 

         बच्चे के लिए उसकी हर आवश्यकता की वस्तु जब तक उसे प्राप्त नहीं होती महान चिंता जनक  होती है,जिसकी निवृत्ति माँ पुकारने से ही होती है। कितना गूढ़ और गंभीर शब्द है उसके लिए ये माँ शब्द !! पर 'मैं तुम्हारी माँ हूँ', सुनते ही वो स्वयं को सुरक्षा-कवच से दूर एक बड़े चक्रव्यूह में फँसा पाता है। 

        ये ही अंतर है उक्त वर्णित वार्त्तांश में प्रयुक्त 'माँ' शब्द में !!

        बड़ा ही दोहरे चरित्र वाला है ये ' माँ ' शब्द !!


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मानसिक तनाव 

क्षणे रुष्टाः क्षणे तुष्टाः,रुष्टा तुष्टा क्षणे क्षणे 

अव्यवस्थित चित्तानां प्रसादोsपि भयंकरः। 

( अर्थात क्षण क्षण में रुष्ट और तुष्ट होने वालों की प्रसन्नता भी खतरनाक होती है। )

यहाँ एक ऐसे ही पात्र के व्यक्तित्व का वर्णन हैकिया गया है। 

   ज़ोर ज़ोर से चीखने की आवाज़ सुनकर सब दौड़े,जाके देखा तो सब हक़-बके रह गए। कमरे में रखा सब सामान तोड़-फोड़ दिया,सारी वस्तुओं को तितर-बितर कर दिया।रो रही थी चिल्ला रही थी,समझ में नहीं आया ये सब क्यों किया।२५-२६ वर्ष की आयु,शिक्षित,नौकरी पेशा,अचानक ये हरकत ! पूछने पर कहा - पता नहीं,मुझे नहीं पता और दिखा-दिखाकर कहा - देखो ये भी तोड़ दिया,ये फाइलें भी फाड़ दीं,अलवारी के कपड़े भी सब बाहर फेंक दिए और फिर रोना चिल्लाना शुरू ! 

          किसी के कुछ समझ नहीं आया इसे क्या हुआ थोड़ी देर में सब नार्मल उसने क्या किया उसे भी कुछ नहीं पता।नित्य-प्रति के कार्य किये और फिर जाकर अपने शयन-कक्ष की बत्ती बुझा दरवाज़ा बंद कर लिया। 

         ये सारा काण्ड लगभग ४-५ घंटे चला शाम का समय था सब बस्तुएँ यथावत व्यवस्थित कर दीं। पर समस्या जटिल थी,आखिर ऐसा क्यों किया दिमाग में चल क्या रहा है विचार विमर्श करते सभी अपने अपने कक्ष में चले गए। लगा कोई सपना देखा होगा। 

       लेकिन ये क्या २-३ दिन बाद फिर वही सब कुछ रोना-चिल्लाना सारा सामान अस्त-व्यस्त कर दिया।और कुछ देर बाद पूर्ववत सामान्य स्थिति। अब लगा समस्या जटिल ही नहीं विकट है। उसके ऑफिस जाने के बाद वातावरण गंभीर हो गया और किसी मनःचिकित्सक से परामर्श लेना तय हुआ।मनः चिकिस्तक के पास जाकर माता-पिता ने पूरा वृत्तान्त सुनाया। डॉ ने अनेक प्रश्न किये किन्तु एक प्रश्न के उत्तर पर डॉ अटक गया। जानकारी में जो डॉ को जो ज्ञात हुआ वो इस प्रकार है ------बताया गया --

  तीन वर्ष पहले उसका तलाक हुआ था। विवाह आपसी रज़ामंदी से हुआ था,कोई समस्या नहीं थी।लड़का जिसका नाम सुनील था,सुन्दर था,हँसमुख था,पढ़ा-लिखा,समझदार अच्छी कम्पनी में ऊँचे पद पर आसीन था यानि उसमें कोई कमी नहीं थी। रीना उसकी पत्नी भी पढ़ी लिखी समझदार एक कम्पनी में अच्छे वेतन पर काम करती थी।विवाहोपरांत सब कुछ ठीक चल रहा था.किन्तु समाज में पति का  सम्मान  और प्रतिष्ठा  रीना को चुभने लगी।गुरूर और अहंकार रीना पर हावी होने लगा।मन में विद्वेष और ईर्ष्या घर करने लगी। पहले चुप-चुप रहने लगी फिर किसी न किसी बहाने से झगड़ा करने लगी।बात-बात पर व्यर्थ ही सुनील का अपमान और तिरस्कार भी करती।सुनील नहीं समझ पा रहा  था कि वो ऐसा क्यों कर रही है, वो उसे बहुत प्यार करता था उसे हर तरह से समझाने की कोशिश करता।रीना के माता-पिता भी उसे समझाते लेकिन उसके दिमाग का फितूर कम नहीं हुआ अन्ततः बात तलाक पर ही जाकर रुकी। 

    अब रीना माता-पिता के पास थी,कार्य रत थी,संतुष्ट व खुश दिखाई देती थी पर अब उसकी ये समस्या शुरू हो गयी है।डॉ ने सारी बात बड़े ध्यान से सुनी,एक एक बिंदु पर विमर्श किया,समाधान के लिए डॉ ने  कुछ समय माँगा।इसके बाद लगभग छः महीने तक किसी ने किसी से कोई संपर्क नहीं किया। डॉ ने बहुत सोच-विचार कर सुनील से सम्पर्क किया और ज्ञात हुआ वो आज भी रीना को बहुत प्यार करता है।सुनील से बात करके डॉक्टर  को कुछ सकारात्मक संकेत दिखाई दिए। कुछ उम्मीद की किरण जगी। डॉ की सलाह पर सुनील ने रीना की ही कम्पनी ज्वाइन करली बस यही था रीना की बीमारी का इलाज। आयु की अपरिपक्वता की बीमारी को परिपक्वता की  समझदारी ने दूर किया। 

    रोज़ ही दोनों का मिलना,एक दूसरे की ओर पुनः आकर्षित होना,मूक हाव-भावों के  सम्प्रेषण ने दोनों को एक दूसरे के निकट ला दिया। ये क्रम छह महीने चला होगा और तब दोनों ने अपनी समझदारी से बिना किसी को घर में बताये तलाक-मुक्त होने की सभी औपचारिकताएँ पूरी कीं।और कोर्ट के सब पेपर लेकर सबसे पहले आभार सहित गिफ्ट लेकर डॉ के पास पहुँचे कुछ देर बैठ कर,डॉ के साथ ही माता-पिता के पास घर पहुँचे और एक मीठी मुस्कान के साथ कोर्ट के पेपर प्रस्तुत किये।ये मुस्कान अपने आप में मूक भाषा में बहुत कुछ  कह रही थी।और इस प्रकार बिखरे हुए दाम्पत्य-जीवन की पुनः एक नयी शरुवात हुई ।हर्ष-पूर्वक माता-पिता ने शुभ कामनाओं के साथ विदा कर भगवान को धन्यवाद दिया। 

     देखते रहे माता-पिता बेटी दामाद को एक साथ उनके नए आशियाने की ओर जाते हुए  ------

        अल्पायु और युवावस्था का आवेश कभी-कभी जीवन में इस प्रकार के मानसिक तनाव को जन्म दे देता है।पर हमेशा परिणाम सुखद ही होगा या दुःखद ही होगा ये आवश्यक नहीं। 


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ये बुढ़ियाई आँखें ( हास्य-व्यंग्य )

 ये बुढ़ियाई आँखें (हास्य-व्यंग्य)

    ना ! ना ! इन्हें निरीह और बेचारी समझने की भूल मत करना।इन आँखों की तरलता में पूरी जीवन्तता है।इनकी जिजीविषा का आप अनुमान नहीं लगा सकते। इसलिए इनसे सावधान रहने की आवश्यकता है।इनके टिमटिमाते दीदों की नमी से भ्रमित नहीं होना है।इन भीगी आँखों की गहराई का आप अन्दाज़ा भी नहीं लगा सकते क्योंकि इनकी पहुँच कहाँ तक है,क्या चाहती हैं,सोच के बाहर है।कितनी गंभीरता में कितनी शरारत, कितनी जड़ता में कितनी व्याकुलता, कितनी शांति में कितनी उद्विग्नता है इनमें ! इन छटपटाती आँखों के विषय में जो भी, जितना भी कहा जाय कम है।क्रोध में, प्रेम में, नींद में, नशे में व्याकुल नम, भीगी आँखें किसी को भी, कहीं भी बहा ले जाने की क्षमता रखती हैं।तो जनाव, सच तो यह है कि आयु का बुढ़ापा इन आँखों को कभी  बुढ़ियाने नहीं देता।इन आँखों के मसखरेपन को समझ ही नहीं सकते।इनकी पहुँच तो कवि की पहुँच से भी बाहर है।झुकी गर्दन, झुकी कमर, बेंत पकड़के काँपते हुए चलते हुए ज़रा इनको देखो तो ! सब कुछ झुक गया पर इनकी पलकें नहीं झुकतीं, वो तो चतुर्दिक नज़ारे को आँखों में समेट लेना चाहती हैं। जिन्हें आप बुढ़ियाई समझने की भूल कर रहे हैं वे जबानों की आँखों से अधिक चंचल और चपल हैं जो विना जीभ के भी अपनी वाचालता दिखा देती हैं, कितना कुछ कह जाती हैं कि सामने वाला हकवका ही रह जाता है।  

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Sunday 30 January 2022

प्रहसन



एक हास्य संवाद - यमराज के साथ 

सावधान !!( नेपथ्य से )

यमराज आरहा है !!

आदमी (स्त्री /पुरुष) - हाँ, वो तो आएगा ही ,सावधान करने की क्या ज़रुरत !

आदमी - कौन ? अरे ,तू आ भी  गया ?

यमराज - आया नहीं हूँ,आया ही हुआ हूँ।

आदमी - क्यों,अभी तो मेरी उम्र --------!

यमराज -  अरे उम्र से क्या होता है, मुझे तो अपना काम करना है। 

आदमी - तो करो,किसने रोका है,मेरे ऊपर क्यों खड़ा है ?

यमराज - मुझे तो धर्मराज को हर एक के काम का लेखा-जोखा पकड़ाना है। 

आदमी - क्या मतलब ?

यमराज - मतलब साफ़ है ,कौन क्या काम कर रहा है, उनके कर्मों का पूरा हिसाब-                    किताब !! सारा लेखा-जोखा तो मुझे धर्मराज को देना होता है। 

आदमी- ये क्या कह रहे हो। ऐसा कैसे कर सकते हो। हम तो अच्छे-बुरे,ग़लती से                या जानबूझ कर क्या क्या करते रहते हैं ,तुम्हें क्यों बताएँ ? 

यमराज - तो धर्मराज न्याय कैसे करेंगे ? ये सब बताना मेरी ड्यूटी है। 

आदमी - पर ऐसे तो हमारी ज़िन्दगी रुक जाएगी !! 

यमराज - तो ठीक है मैं चला जाता हूँ। अदृश्य रहकर देखता रहूँगा। 

आदमी - मतलब देखोगे फिर भी। तो फायदा क्या !

यमराज - अरे फायदा नहीं समझे !

आदमी - नहीं !

यमराज - इसमें तो फायदा ही फायदा !

आदमी - वो कैसे ?

यमराज - अरे जब तुम्हें पता रहेगा कि तुम्हें कोई देख रहा है तो तुम डरोगे और कुछ गलत भी नहीं करोगे। है कि नहीं फायदा !

आदमी - हाँ ये तो है। 

                   (दौड़ते हुए पुत्र का आना)

मोनू - देखो मम्मी ,मैंने परीक्षा में वही किया जो आपने कहा। 

माँ - क्या कहा था मैंने ?

मोनू - यही कि अगर किसी प्रश्न का उत्तर नहीं आये तो इधर-उधर  किसी का                   चुपके से देख लेना। 

 माँ - अरे मैंने ऐसा नहीं कहा था ,चल जा अंदर,बाद में बात करेंगे। अभी फ्रेश हो              जाकर। 

माँ  - इधर-उधर देख कर,अरे लिख लिया क्या ?

यमराज - हाँ यहाँ  तक का पूरा होगया। 

माँ  - पर सुना नहीं आपने,मैंने मोनू को मना किया था कि मैंने ऐसा नहीं कहा था। 

यमराज - हाँ ये भी सुना ,और ये भी लिख लिया। 

माँ  -अरे ये क्या ! pl यहाँ तक का सब डिलीट कर दो आगे से सब लिखना। 

   (आत्म-गत )- क्या मुसीबत है ,आदमी जी भी नहीं सकता अपनी तरह से ----.


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 अनाम - शीर्षक ?? (1987) 
 
       जीवन की व्यथा-कथा !जिसे क्या नाम दूँ,रोमांचक, ह्रदय-विदारक,या फिर दुःखद या सुखद।डरावनी भयावह वो शाम जो अँधेरे को कुछ ही पल में अपने आगोश में सिमटने को तैयार!!वह पल जब दिमाग कितनी ऊहापोह में था,उलझनों में जकड़ा  बहुत ही अन्यमनस्क था,जीवन का वो चिंतनीय या अचिंतनीय पल!अति दुरूह अवस्था में डूबी ,किंकर्तव्य विमूढ़ सी, नयी दिल्ली ,नेहरू प्लेस का बस-स्टैंड,समय का भी ध्यान नहीं!नोएडा आना था,छोटे बच्चे दोनों थे साथ,बेटा पास ही अपने पापा को लेने के लिए ऑफिस गया था,अँधेरा होगया था लेकिन वापस नहीं आपाया तो परेशान घबराई हुई,डरते हुए न जाने कैसे मैंने तीन टिकिट भी लेलीं बस की।
       बेचैनी पल पल बढ़ रही थी,क्या करूँ क्या न करूँ ,घर भी लौटना था बस का भी टाइम हो रहा था ,व्यग्र और आतुर मन,कैसे मेरा बेटा मेरे पास आजाये पशोपेश में थी अवाक् निःशब्द!सोच रही  थी उसके पास पैसे भी नहीं हैं कि वो विनोद ड्राइवर पड़ोसी के यहाँ जा सके कि तभी अचानक मेरे बेटे ने जो इस समय वो "हमारा" नहीं सिर्फ और सिर्फ "मेरा" था,आकर मेरे कंधे पर हाथ रख कर पुकारा- मम्मी, ओह !मेरे भगवान ,मेरा रोम रोम कितनी ख़ुशी से भर गया,शब्द नहीं,बस एक गहरी साँस ली और दोनों बच्चों को लेकर बस में आकर बैठ कर चैन की साँस ली।प्रकाश से जगमगाते  घर पहुँच कर बस ----कुछ नहीं।कुछ नहीं बोली,कुछ नहीं कहा सोचती रही -----
     कैसी माँ हूँ टिकिट लेकर क्या आने की तैयारी में थी !क्या करने जारही थी,कैसे ऐसा सोच भी पारही थी,करती भी क्या !!पर ईश्वर दयालु,कृपालु होता है.वो परीक्षा लेता है फिर यथावत  परिणाम भी देता है।
    जीवन के अनेक अनकहे लम्हो,प्रसंगों को लेखनी का सहारा मिला लेकिन इस"व्यथा-कथा"को लेखनी आज मिली।भूल नहीं पारही हूँ अपनी इस मनोव्यथा को जिसे कभी किसी से कह कर,किसी से विमर्श कर उसके विचार सुनूँ  या जानूँ  पर शायद लिख कर ही मन की यह उथल-पुथल शांत हो पायी हो,क्योंकि वो पल आज भी तरोताज़ा और वैसा ही आक्रान्तक है।
 
            मेरी लेखनी को साभार अभिनन्दन !! 
            ईश्वर को शत - शत नमन , प्रणाम  !!

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