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Saturday 20 December 2014

आशीर्वाद पितरों का -----

 पितृ-सत्ता होती है,उनका आशीर्वाद भी होता है। लोगों को ऐसा विश्वास है,पर अगर  सचमुच इसका अहसास प्रत्यक्ष हो तो  क्या कहें !मुझे  हुआ है। कोई कह सकता है कि भ्रम हुआ होगा,मैं ये सुनने को तैयार हूँ। पर जो मैंने देखा और महसूस किया  उसे सबके सामने रखना भी मैं आवश्यक समझती हूँ।
                                               (१ )
          हुआ यूँ एक बार मेरे बेटे की परीक्षाएँ चल रही थी ,हमें दिल्ली में हनुमान मंदिर जाना था।मैं,मेरे पति और मेरी बेटी ही मंदिर के लिए रवाना होगये। बेटे के  खाना आदि का प्रबंध कर दिया। मंदिर से आते-आते शाम होगयी। जब घर पहुंचे तो बेटे अनुपम ने दरवाज़ा खोला ,अंदर जाकर एक विचित्र ही दृश्य देखा ,एक प्रौढ़ महिला घर  में बैठी हुई थी। हमें देखते ही खड़ी हुई और बोली बेटा इसे डांटना नहीं ,मेरी वजह से इसने खाना भी नहीं खाया और मेरा ही ध्यान रखता रहा , पढ़ ही रहा है अब मैं चलती हूँ ,पर बेटा इसे डांटना नहीं।मुझे किसी ने बताया था कि यहां कोई किराये का मकान है पर वैसा कुछ नहीं है खैर थक गयी थी इसलिए बैठी रह गयी।
          उसके जाने के बाद सोचा अनुपम नासमझ तो  है नहीं ,एक अनजान को कैसे दरवाज़ा खोल कर सहारा दे सकता है। उससे पूछा भी कि क्यों घुसा लिया,कोई ग़लत इंसान हो सकता था पर उसके पास कोई उचित जवाब नहीं था।बहुत सोच विचारने के बाद उस महिला की बातें याद कर  समझ आया कि ये महिला कोई और नहीं शायद बेटे की दादी ही थीं  परीक्षाओं में व्यस्त पोते को अकेला नहीं देख  सकीं।और उसका सहारा बन कर आगयीं थी।           
                                                     (२ )      ---------------------------
एक और  इसी तरह की घटना ! पितृ-पक्ष चल रहा था। बेटा अनुपम पड़ौस से ही पंडितजी को बुलाने गया था। पंडितजी ने कहा तुम चलो बेटा मैं  आरहा हूँ। अनुपम बापस आरहा था कि साइड की सड़क से एक बुज़र्ग से व्यक्ति आये  पास  आकर बोले -बेटा चलो ,कहाँ जाना है ,मैं साइकल से  छोड़ देता हूँ। अनुपम ने कहा -नहीं,अंकल मैं चला जाऊंगा।  फिर भी उन्होंने बार-बार उससे छोड़ने के लिए कहा और उसके मना  पर फिर वह दूसरी दिशा में चले गए। अनुपम सोचते -सोचते आ रहाथा तभी उसने पीछे मुड़  कर देखा  वहां कोई नहीं था ,दूर तक कोई  नहीं दिखाई दिया। जब श्राद्ध कार्य समाप्त हुआ ,पंडितजी खाना खाकर चले गए तब बेटे ने  सारा वृत्तान्त बताया। समझते देर नहीं लगी कि यह उसके दादाजी ही थे। लगा खाना खाने ज़रूर आये होंगे। सोच कर बहुत अच्छा लगा। विश्वास हुआ कि हमारे परिवार पर पित्रों का आशीर्वाद है।
       
                                                             --------------------------     


Wednesday 17 December 2014

रिटायरमेंट के बाद २००४


रिटायरमेंट के बाद -----२००४ में

चलूँ अब घर की ओर चलूँ,

विद्यालय की बाग़ - डोर को छोड़ ,

करूँ आराम,चलूँ

जीवन के इस सांध्यकाल को खुल कर जीऊँ ,

ना कोई झंझट ना कोई बंधन

चाहे कहीं जाना , चाहे कभी आना

दौड़ - भाग की बहुत,करूँ आराम -

चलूँ अब ,

सीखा बहुत , सिखाया बहुत ,

बच्चों में जी लगाया बहुत ,

मम्मी - पापा खूब सुना ,

अब है इच्छा कुछ और ,

सुनूँ मैं दादी- नानी ,

चलूँ अब ,

खूब परिश्रम किया ,सफलता पाई ,

जीवन के झंझावातों को भूल और निश्चिन्त ,

चलूँ कुछ पूजा - पाठ करूँ,

चलूँ अब घर की ओर चलूँ ,

दादी-नानी सुनने की भी चाह होगई पूरी

जीवन की अब कोई इच्छा  नहीं  अधूरी। 

                 

बाल -मनो विज्ञान


बाल - मनोविज्ञान

विषय बहुत ही संवेदनशील है। समाज की सारी  समस्याएँ एक तरफ और आज के बालकों की समस्याएं एक तरफ ! नित्य ही  होने वाली अकाल्पनिक ,असंभावित और ह्रदय-विदारक कितनी घटनाओं का सामना अबोध और अज्ञानी बालक कर रहा है। निःसंदेह इसका कारण  समाज में  सामाजिक मनोवैज्ञानिक ज्ञान का अभाव है। हर रोज़ होने वाली कितनी घटनाओं में से कोई एक घटना एक बड़ी बहस को जन्म दे देती है लेकिन परिणाम ??!!

अधिकतर ये घटनाएँ बाल्यकाल और किशोरावस्था से जुड़ी होती हैं ---
अभी कुछ   दिनों की ही बात है कक्षा दो के छात्र ने आत्म-हत्या की थी। इस तरह की घटनाएँ ये सोचने पर मजबूर करती हैं कि ये सब क्यों ? इतनी उत्तेजना इतना आक्रोश  उद्वेग कहाँ से उन्हें ऐसा करने के लिए उद्वेलित कर रहा है। कौन उकसा रहा है इन मासूम और अबोध बालकों को ? कौन ज़िम्मेदार है इसका ? बात-बात में एक दूसरे का गला काटना ,नींद की गोली खाना ,किसी पर तेजाब डालदेना , लाइज़ोल पीलेना आदि  !! बच्चे किसके हैं ?क्या पाठशाला में जन्मे हैं?क्या पड़ोस में जन्मे हैं?क्या सड़क पर पैदा हुए है ? क्या बीच समाज में कहीं पैदा हुए हैं?जबाव हाँ और ना दोनों में होसकता है। लेकिन जन्म दिया किसने है ?सीधा जबाव है माता पिता ने। जिनके मुँह से प्रायः यही सुनने में आता है कि बच्चों के लिए ही तो जी रहे हैं उनके लिए सारी सुविधाएँ उपलब्ध करदीं हैं हमें भी तो अपनी ज़िन्दगी जीने का हक़ है। बड़े होकर वो अपनी ज़िन्दगी जीएंगे। बहुत ही ग़ैर ज़म्मेदाराना और अनपेक्षित उत्तर है। माता-पिता का पर्याय यदि बलिदान है  तो उक्त सारे तर्क असंगत और बेबुनियाद ही होंगे।

यहाँ महसूस होता है कि हमारे यहाँ सचमुच बाल - मनोविज्ञान के ज्ञान का अभाव है।उनकी मनःस्थिति को समझने की पर्याप्त मात्रा  में आवश्यकता है। क्या हम जानते नहीं हैं कि आज का बालक पहले के बालक की अपेक्षा अधिक समझदार है ज़रूरत है उसे सही दिशा देने की. इसका अभाव ही उससे अवांछनीय अवाँछनीय कार्य करा रहा है।  यह दिशा उसे उसकी प्रारम्भिक पाठशाला यानि घर से  मिलनी चाहिए।जिसमें बालक के बौद्धिक - स्तर को उसकी वास्तविक आयु के साथ नहीं जोड़ना चाहिए। उसकी आयु के हिसाब से उसके अंदर भी झाँकें। आवश्यक नहीं कि वह अंदर से भी वैसा ही हो। किसी का बौद्धिक स्तर उम्र से कम, किसी का उम्र के समान और किसी का उम्र से अधिक हो सकता है। 

बालक के साथ मित्र भी बनें लेकिन संयमित सीमा में । दायरा अवश्य बनाये रखने की आवश्यकता है। चाहे जब अपनी सुविधा के अनुसार कठोर होजाना और चाहे जब व्यवहार में लचीला होजाना ही बालक के लिए मुश्किलें पैदा करता है। समझना चाहिए वह पहले के बालकों की अपेक्षा अधिक समझदार है, लेकिन है वह बालक ही, जिसकी बुद्धि अभी अपरिपक़्व  है। उसके अपने मित्र भी हैं , स्कूल भी है ,अपना एक विशेष पर्यावरण हैं अपने अध्यापक हैं इन सब के बीच वह कितना सहज और असहज है इसका ज्ञान होना  माता-पिता का ही दायित्व है। बालक के चहरे की प्रत्येक रेखा पर सूक्ष्म नज़र होने की आवश्यकता है। कोई नहीं चाहता कि उनके बच्चे के साथ कोई दुर्घटना हो तो ध्यान रहे "नज़र हटी और दुर्घटना घटी। "

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