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Saturday, 15 February 2014

दिवा-स्वप्न (परस्पर सम्वाद ) 6.2. 2013

दिवास्वप्न (परस्पर सम्वाद)

     कभी पापा!कभी बापू!कभी पा!कभी पापाजी!कभी दादा!  कभी दादू!कभी श्रीमानजी!लेकिन अब कुछ नहीं क्या ? मेरी जगह खाली होगयी ? क्या ऐसा ही होता है ? क्या यही है सच्चाई ?
      हाँ,प्रकृति का तो यही है नियम!और यह नियम तो सबके लिए समान है। आपकी  खाली जगह तो यूँ ही वीरान, बीहड़ पड़ी है। हर पल हर समय सालती है, चुभती है,बहुत दर्द देती है। बहुत पीड़ा देती है। एकांत में बहुत रुलाती है।
           तभी एक आवाज़ सुनाई देती है।पगली मैं कहीं नहीं गया, तुम्हारे ही पास हूँ। मैं वैसा ही हूँ,तुम्हें देखता रहता हूँ,चिंता-मुक्त हूँ। सोचता हूँ,मैं बच्चों को दुनियादारी सिखाने की बातें करता था पर मैं तो सबको अकेला छोड़कर खुद ही चला आया। यहाँ भगवान् भी मुझसे यही सवाल पूछते हैं जो मैं कहता था कि ------तब मैं चुप ही रहता हूँ,मेरे पास उनके सामने कोई जबाव नहीं होता। सिर्फ़ मेरा परिवार मेरे सामने होता है और उनकी आँखों में भी बहुत से सवाल मुझे दिखाई देते हैं। 
           यह बात तो सही है,सवाल तो बहुत हैं श्रीमानजी,मुश्किलें भी बहुत है  किन्तु जब भी समस्याएँ आती हैं,तो ऐसे सुलझ जाती हैं जैसे आप ही ने सुलझा दी हों,महसूस होता है ऐसा,कईबार हुआ है ऐसा। पर उलझनें  आने पर कभी-कभी तो लगता है कि कहीं से आकर आप  एक दहाड़ लगादें , सबठीक होजायेगा।

              किन्तु आपने बिलकुल अच्छा नहीं किया।बहुत दुखी किया है आपने। 


                                                      **
                                                                                                                                                                                                                           ----------------------- 

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