कर्मयोगी "माँ "
कर्मयोगी " माँ "
निर्पेक्ष भाव से जुड़े सम्बन्ध को सार्थक करती हुई माँ ,माँ नहीं वह केवल कर्म-योगी होती है। आजतक जो पढ़ा, समझा और देखा उसे शब्द-मुक्ताओं में उतारने का प्रयास है ये मेरी रचना -
चेहरे पर तेज !
माथे पर चमकती लाल बिंदिया !
अति जीर्ण - शीर्ण लाल रंग की साड़ी में लिपटी ,
छोटे कद की वह -
नित्य प्रातः घर आती , कपड़े धोती और -
उसी उमंग के साथ चली जाती।
एक दिन जिज्ञासु मन ने -
अनायास ही उसे रोक कर परिचय सम्बन्धी
अनेक प्रश्न कर डाले -
सुनकर ठिठकी वह ,
वहीं पास में पड़े पत्थर पर बैठ गयी ,
थैले से बोतल निकाली , पानी पीया ,
बड़ी ही आश्वस्त होकर बोली -
"साहब , मजदूरी करती हूँ ,
पास की कॉलोनी में घर- घर जाकर -
कहीं साफ-सफाई का
तो कहीं खाना बनाने का
तो कहीं किसी की मालिश करने का काम करलेती हूँ।
साहबजी, दिन भर में जो मिल जाता है,घर चल जाता है।"
घर में कौन-कौन है ?
"जुआरी पति है,कोई काम नहीं करता।
अब बीमार भी है,
एक बेटा है,
कार दुर्घटना में दोनों पैर गँवा चुका है
एक पोता है,
उसे स्कूल में डाला है,कुछ अच्छा करले।"
ईश्वर बड़ा दयालु है साहबजी,भूखा नहीं सुलाता।
सो तो है !
पर बाई सा,इतना सब कैसे करती हो! आराम कब करती हो?
"पति को जीवित रखना है,सुहाग है मेरा।
बेटे का इलाज कराना है.जिगर का टुकड़ा है।
पोते को अच्छा नागरिक बनाना है।
वंशज है मेरा। "
मेरा क्या है ! और गहरी साँस लेकर चुप होगई।
सोचा -छोटे कदवाली का दिल कितना बड़ा !
न चेहरे पर थकान न कोई हताशा ! और
राम- राम कह कर -
योगिनी वह माँ
उसी उत्साह के साथ ,बढ़ गयी अपने "कर्म-पथ" पर--
मैं देखता रहा उसे दूर
पथरीली - काँटों भरी राह पर जाते हुए जिसका कोई -----
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