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Wednesday, 22 January 2014

गाँव की बेटी

गाँव की`बेटी 

सुना था गाँव की बेटी --
सारे गाँव की बेटी होती है ,

पर कैसे मानूँ
देखा है ,
आज एक मोहल्ले की  बेटी पर -
संकट का पहाड़ टूटा तो वह --
अविश्वास की पात्र बनी ,
उसकी चुप्पी को उसकी ही कमी बताया और -
उस पर होरहे अत्याचार को अपने मनोरंजन का साधन बनाया -
सारा मोहल्ला देखता रहा -
कायर डरपोक भीरु समाज से -
एक मच्छर तक नहीं आया उसका सहारा बनने।

समय गुज़रा -
दिन महीने वर्ष गुज़रे -
शुभ समय की प्रतीक्षा !
कि तभी एक और झटका -
अदालत का एक कर्मचारी दरवाज़े पर आखड़ा हुआ -
एक कागज़ पर दस्तख़त कराने।
पढ़कर हकबकी सी, ठगी सी,चीख उठी वह ,
बैठ  गई वह।
ये क्या?ऐसा क्यों ?
पैरों के नीचे से मानों ज़मीन ही खिसक गई हो -
अशक्त ,असहाय,मौन,शांत -
वह उठी,जैसे किसी अव्यक्त आवाज़ ने उसे झझोड़ा -
और कहा -अभी तो यात्रा बहुत लम्बी है -
कमज़ोर मत बनो,सँभलो -
और एक झटके से वह उठी,खड़ी हुई -
बड़े विश्वास के साथ -
मानों किसी दैवी शक्ति ने सहारा दिया हो।

देखा इधर-उधर -
कोई नहीं ,सिर्फ और सिर्फ-
आशा और विश्वास का नया उजाला -
और कठिन डगर सामने -
जिस पर चलकर उसे संघर्ष करना है।
विजयी होकर अपना भविष्य बनाना है -
कायर और भीरु समाज को मुँह तोड़ जबाव देना है।

प्रतीक्षारत वह लग गयी अपनी लम्बी लड़ाई में -
     और समय ने करवट बदली - उपस्थित हुआ एक नए रूप में 

लगा जैसे स्वप्न हो
काली रात का  वह अँधेरा जो इतना घना और लम्बा महसूस होरहा था
जो काटे नहीं कट रहा था
इतना छोटा होगया।
एक सरल और समझदार परिवार ने उसे देखा -
उससे बातें कीं उसे समझा और गले लगाया
प्यार किया,दुलारा ,सहलाया ,अपनाया
उसे सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद दिया।

         कोटिशः प्रणाम ,शतशः धन्यवाद,हे ईश्वर !  

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