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Wednesday, 17 December 2014

बाल -मनो विज्ञान


बाल - मनोविज्ञान

विषय बहुत ही संवेदनशील है। समाज की सारी  समस्याएँ एक तरफ और आज के बालकों की समस्याएं एक तरफ ! नित्य ही  होने वाली अकाल्पनिक ,असंभावित और ह्रदय-विदारक कितनी घटनाओं का सामना अबोध और अज्ञानी बालक कर रहा है। निःसंदेह इसका कारण  समाज में  सामाजिक मनोवैज्ञानिक ज्ञान का अभाव है। हर रोज़ होने वाली कितनी घटनाओं में से कोई एक घटना एक बड़ी बहस को जन्म दे देती है लेकिन परिणाम ??!!

अधिकतर ये घटनाएँ बाल्यकाल और किशोरावस्था से जुड़ी होती हैं ---
अभी कुछ   दिनों की ही बात है कक्षा दो के छात्र ने आत्म-हत्या की थी। इस तरह की घटनाएँ ये सोचने पर मजबूर करती हैं कि ये सब क्यों ? इतनी उत्तेजना इतना आक्रोश  उद्वेग कहाँ से उन्हें ऐसा करने के लिए उद्वेलित कर रहा है। कौन उकसा रहा है इन मासूम और अबोध बालकों को ? कौन ज़िम्मेदार है इसका ? बात-बात में एक दूसरे का गला काटना ,नींद की गोली खाना ,किसी पर तेजाब डालदेना , लाइज़ोल पीलेना आदि  !! बच्चे किसके हैं ?क्या पाठशाला में जन्मे हैं?क्या पड़ोस में जन्मे हैं?क्या सड़क पर पैदा हुए है ? क्या बीच समाज में कहीं पैदा हुए हैं?जबाव हाँ और ना दोनों में होसकता है। लेकिन जन्म दिया किसने है ?सीधा जबाव है माता पिता ने। जिनके मुँह से प्रायः यही सुनने में आता है कि बच्चों के लिए ही तो जी रहे हैं उनके लिए सारी सुविधाएँ उपलब्ध करदीं हैं हमें भी तो अपनी ज़िन्दगी जीने का हक़ है। बड़े होकर वो अपनी ज़िन्दगी जीएंगे। बहुत ही ग़ैर ज़म्मेदाराना और अनपेक्षित उत्तर है। माता-पिता का पर्याय यदि बलिदान है  तो उक्त सारे तर्क असंगत और बेबुनियाद ही होंगे।

यहाँ महसूस होता है कि हमारे यहाँ सचमुच बाल - मनोविज्ञान के ज्ञान का अभाव है।उनकी मनःस्थिति को समझने की पर्याप्त मात्रा  में आवश्यकता है। क्या हम जानते नहीं हैं कि आज का बालक पहले के बालक की अपेक्षा अधिक समझदार है ज़रूरत है उसे सही दिशा देने की. इसका अभाव ही उससे अवांछनीय अवाँछनीय कार्य करा रहा है।  यह दिशा उसे उसकी प्रारम्भिक पाठशाला यानि घर से  मिलनी चाहिए।जिसमें बालक के बौद्धिक - स्तर को उसकी वास्तविक आयु के साथ नहीं जोड़ना चाहिए। उसकी आयु के हिसाब से उसके अंदर भी झाँकें। आवश्यक नहीं कि वह अंदर से भी वैसा ही हो। किसी का बौद्धिक स्तर उम्र से कम, किसी का उम्र के समान और किसी का उम्र से अधिक हो सकता है। 

बालक के साथ मित्र भी बनें लेकिन संयमित सीमा में । दायरा अवश्य बनाये रखने की आवश्यकता है। चाहे जब अपनी सुविधा के अनुसार कठोर होजाना और चाहे जब व्यवहार में लचीला होजाना ही बालक के लिए मुश्किलें पैदा करता है। समझना चाहिए वह पहले के बालकों की अपेक्षा अधिक समझदार है, लेकिन है वह बालक ही, जिसकी बुद्धि अभी अपरिपक़्व  है। उसके अपने मित्र भी हैं , स्कूल भी है ,अपना एक विशेष पर्यावरण हैं अपने अध्यापक हैं इन सब के बीच वह कितना सहज और असहज है इसका ज्ञान होना  माता-पिता का ही दायित्व है। बालक के चहरे की प्रत्येक रेखा पर सूक्ष्म नज़र होने की आवश्यकता है। कोई नहीं चाहता कि उनके बच्चे के साथ कोई दुर्घटना हो तो ध्यान रहे "नज़र हटी और दुर्घटना घटी। "

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