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Sunday, 30 January 2022

प्रहसन



एक हास्य संवाद - यमराज के साथ 

सावधान !! (नेपथ्य से)

यमराज आरहा है !!

आदमी (स्त्री /पुरुष) - हाँ, वो तो आएगा ही ,सावधान करने की क्या ज़रुरत !

आदमी - कौन ? अरे ,तू आ भी  गया ?

यमराज - आया नहीं हूँ,आया ही हुआ हूँ।

आदमी - क्यों,अभी तो मेरी उम्र --------!

यमराज -  अरे उम्र से क्या होता है, मुझे तो अपना काम करना है। 

आदमी - तो करो,किसने रोका है,मेरे ऊपर क्यों खड़ा है ?

यमराज - मुझे तो धर्मराज को हर एक के काम का लेखा-जोखा पकड़ाना है। 

आदमी - क्या मतलब ?

यमराज - मतलब साफ़ है ,कौन क्या काम कर रहा है, उनके कर्मों का पूरा हिसाब-                    किताब !! सारा लेखा-जोखा तो मुझे धर्मराज को देना होता है। 

आदमी- ये क्या कह रहे हो। ऐसा कैसे कर सकते हो। हम तो अच्छे-बुरे,ग़लती से                या जानबूझ कर क्या क्या करते रहते हैं ,तुम्हें क्यों बताएँ ? 

यमराज - तो धर्मराज न्याय कैसे करेंगे ? ये सब बताना मेरी ड्यूटी है। 

आदमी - पर ऐसे तो हमारी ज़िन्दगी रुक जाएगी !! 

यमराज - तो ठीक है मैं चला जाता हूँ। अदृश्य रहकर देखता रहूँगा। 

आदमी - मतलब देखोगे फिर भी। तो फायदा क्या !

यमराज - अरे फायदा नहीं समझे !

आदमी - नहीं !

यमराज - इसमें तो फायदा ही फायदा !

आदमी - वो कैसे ?

यमराज - अरे जब तुम्हें पता रहेगा कि तुम्हें कोई देख रहा है तो तुम डरोगे और          कुछ  गलत भी नहीं करोगे। है कि नहीं फायदा !

आदमी - हाँ ये तो है। 

                   (दौड़ते हुए पुत्र का आना)

मोनू - देखो मम्मी ,मैंने परीक्षा में वही किया जो आपने कहा। 

माँ - क्या कहा था मैंने ?

मोनू - यही कि अगर किसी प्रश्न का उत्तर नहीं आये तो इधर-उधर  किसी का                   चुपके से देख लेना। 

 माँ - अरे मैंने ऐसा नहीं कहा था ,चल जा अंदर,बाद में बात करेंगे। अभी फ्रेश हो              जाकर। 

माँ  - इधर-उधर देख कर,अरे लिख लिया क्या ?

यमराज - हाँ यहाँ  तक का पूरा होगया। 

माँ  - पर सुना नहीं आपने,मैंने मोनू को मना किया था कि मैंने ऐसा नहीं कहा था। 

यमराज - हाँ ये भी सुना ,और ये भी लिख लिया। 

माँ  -अरे ये क्या ! pl यहाँ तक का सब डिलीट कर दो आगे से सब लिखना। 

   (आत्म-गत )- क्या मुसीबत है ,आदमी जी भी नहीं सकता अपनी तरह से ----.


                                 *****







  







 








      











  

     

 

 अनाम - शीर्षक ?? (1987) 
 
       जीवन की व्यथा-कथा ! जिसे क्या नाम दूँ,रोमांचक, ह्रदय-विदारक,या फिर दुःखद या सुखद।डरावनी भयावह वो शाम जो अँधेरे को कुछ ही पल में अपने आगोश में सिमटने को तैयार!! वह पल जब दिमाग कितनी ऊहापोह में था,उलझनों में जकड़ा  बहुत ही अन्यमनस्क था,जीवन का वो चिंतनीय या अचिंतनीय पल!अति दुरूह अवस्था में डूबी ,किंकर्तव्य विमूढ़ सी, नयी दिल्ली ,नेहरू प्लेस का बस-स्टैंड,समय का भी ध्यान नहीं ! नोएडा आना था,छोटे बच्चे दोनों थे साथ,बेटा पास ही अपने पापा को लेने के लिए ऑफिस गया था,अँधेरा होगया था लेकिन वापस नहीं आपाया तो परेशान घबराई हुई,डरते हुए न जाने कैसे मैंने तीन टिकिट भी लेलीं बस की।
       बेचैनी पल पल बढ़ रही थी,क्या करूँ क्या न करूँ ,घर भी लौटना था बस का भी टाइम हो रहा था ,व्यग्र और आतुर मन,कैसे मेरा बेटा मेरे पास आजाये पशोपेश में थी अवाक् निःशब्द ! सोच रही  थी उसके पास पैसे भी नहीं हैं कि वो विनोद ड्राइवर पड़ोसी के यहाँ जा सके कि तभी अचानक मेरे बेटे ने जो इस समय वो "हमारा" नहीं सिर्फ और सिर्फ "मेरा" था,आकर मेरे कंधे पर हाथ रख कर पुकारा- मम्मी, ओह ! मेरे तो मानो ही प्राण लौट आये हों। मेरा रोम रोम कितनी ख़ुशी से भर गया,शब्द नहीं,आँसुओं को रोक,बस एक गहरी साँस ली और दोनों बच्चों को लेकर बस में आकर बैठ कर चैन की साँस ली।
   प्रकाश से जगमगाते  घर पहुँच कर बस ----कुछ नहीं।भगवान् को धन्यवाद दिया कुछ नहीं बोली,कुछ नहीं कहा सोचती रही -----
     कैसी माँ हूँ टिकिट लेकर क्या आने की तैयारी में थी ! क्या करने जारही थी  कैसे ऐसा सोच भी पारही थी,पर करती भी क्या !! ईश्वर दयालु,कृपालु होता है.वो परीक्षा लेता है फिर यथावत  परिणाम भी देता है।
    जीवन के अनेक अनकहे लम्हो,प्रसंगों को लेखनी का सहारा मिला लेकिन इस      " व्यथा-कथा " को लेखनी आज मिली। भूल नहीं पारही हूँ अपनी इस मनोव्यथा को जिसे कभी किसी से कह कर,किसी से विमर्श कर उसके विचार सुनूँ  या जानूँ  पर शायद लिख कर ही मन की यह उथल-पुथल शांत हो पायी हो,क्योंकि वो पल आज भी तरोताज़ा और वैसा ही आक्रान्तक है।
 
            मेरी लेखनी को साभार अभिनन्दन !! 
            ईश्वर को शत - शत नमन , प्रणाम  !!

                                   ***




 
    



  
 






    


    

Friday, 20 August 2021

 अभूतपूर्व एक विचार :

    "क्या ही अच्छा हो कि बच्चे अपने जन्म दिवस पर अपने घर के सीनियर-सिटीजन यानि दादा-दादी,नाना-नानी,माता-पिता या जो भी हों - उन्हें उनके दैनिक प्रयोग की आवश्यक और उचित वस्तुएँ उपहार स्वरुप प्रदान कर,सम्मानित करें और उनसे उनका आशीर्वाद प्राप्त कर अपने आपको कृतज्ञ महसूस करें।"  


विचार थोड़ा अद्भुत है,विचित्र सा भी है,कुछ अटपटा भी लग सकता है और नापसंद या असहज भी लग सकता है। सोचा जाय तो इस विचार के कई आयाम हैं: आज हम देखते हैं कि बच्चे सर्व समर्थ हैं, आवश्यकता की हर वस्तु उनके पास इतनी संग्रहीत  हैं कि सीनियर्स को यह सोचना पड़ता है उन्हें क्या ऐसा दें जो उनके पास न हो या जिसकी उन्हें आवश्यकता महसूस हो रही हो।तो दिमाग ने एक नयी दिशा में सोचना शुरू किया                            और तब दिमाग में उक्त "अभूतपूर्व विचार" ने  जन्म लिया।    

      कई बार सीनियर्स को ही स्वयं के लिए कई आवश्यक वस्तुओं का अभाव महसूस होता है,जिसे वे अपने ही बच्चों से कहने में सकुचाते हैं।यहाँ उनकी आर्थिक तंगी की ओर संकेत बिलकुल नहीं है, संकेत है उनकी शारीरिक असमर्थता की ओर। इसलिए लगा क्यों न उक्त सुझाव देकर उनकी सोच को एक नयी दिशा प्रदान की जाये। 

         यहाँ बहुत संभव है प्रश्न कि घर में यदि ४-५ प्राणी या इस से इतर तो -----बिलकुल ठीक ; इतना ज्ञान तो अपने सीनियर्स के बारे में होता ही है कि उनकी मूल भूत आवश्यकताएँ क्या होती हैं तो बस उसीके अनुसार प्रति अवसर पर कुछ-कुछ परिवर्तन के साथ उन वस्तुओं को प्रदान करने की व्यवस्था कर लीजिये।समस्या ख़तम।

      वे पास रहते हों या दूर जन्म-दिवस के दिन एक निश्चित समय देकर सादर आमंत्रित करें,और उन्हें सम्मानजनक स्थान प्रदान कर उन्हें गौरवान्वित करें। क्या ही अच्छा हो कि उस दिन उनके मनपसंद भारतीय-शैली में बनाया,भोजन खिला  कर सादर,सस्नेह सरप्राइज़ देते हुए उनका उपहार प्रदान करें।और अपने जन्म दिवस के शुभ अवसर उनसे उनका आशीर्वचन प्राप्त कर स्वयं को अनुग्रहीत करें। 

              और अब पूर्व नियोजित कार्य-क्रम के अनुसार केक काट कर अपने जन्म दिन को मन चाहे तरीके से मनाएँ ।नाच-गाना जो भी आपने व्यवस्था की हो।देखिये आपके बड़े  इस प्रकार मनाये जाने वाले जन्मदिन पर वे कितने आल्हादित होते हैं।और इस प्रकार  जन्म-दिन को एक नया रूप प्रदान करें।           

    

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Monday, 16 August 2021

 लीमाखोंग तुम बहुत याद आओगे -----


कुछ समय बेटे की पोस्टिंग पर मणिपुर के लीमाखोंग नगर में रहने का अवसर मिला। बहुत ही मनभावन शांत और दिलखुश जगह ! किन्तु अगली पोस्टिंग बीकानेर का नाम  सुन जो फील हुआ उसे शब्दों में उतारने का प्रयत्न है ये मेरी रचना -- 


"लीमाखोंग" तुम बहुत याद आओगे ----------


जब नीला आसमान धूल से आच्छादित हो जायेगा 

जब तप्त ज़मीन आग उगलेगी

जब हरे-हरे पत्ते गर्मी से झुलस कर 

पीले और मटमैले नज़र आयेंगे 

तब लीमाखोंग तुम बहुत याद आओगे -------


जब गर्मी की तीखी चुभन काँटों सी  चुभेगी 

जब एसी,कूलर,पंखा सब बंद होजायेंगे   

जब तप्त हवा के झोंकेशरीर को झुलसायेंगे 

तब लीमाखोंग तुम बहुत याद आओगे -------

 

जब फ्रिज भी मुँहु चिढ़ाने लगेगा 

नल का उबला  हुआ पानी देह को जलाएगा 

पसीने की गंध भी एक दूसरे को नहीं सुहाएगी  

तब लीमाखोंग तुम बहुत याद आओगे  ------


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जबान होते बच्चे ------


दादा-दादी,माता-पिता  के संरक्षण में पलते  बच्चे, 

अचानक ही जबानी की देहलीज़ पर पहुँचे बच्चे , 

सबको लुभाते-हर्षाते बच्चे कब बड़े हो जाते हैं !!


आँखों में अनेक प्रश्न लिए,कुछ घबराये से बच्चे ,

बुद्धि से "अपरिपक्व" समझदारी में कमज़ोर बच्चे ,

स्वयं को अति"बुद्धिमान"समझ कब बड़े हो जाते हैं। 


बात-बात पर हँसते-हँसाते ,  झगड़ते-झगड़ाते बच्चे ,

कब उन्हींकी समस्याओं का "समाधान" बन जाते हैं !!

कब दादा-दादी के "संरक्षक" भी  बन जाते हैं !! 

कब उन्हीं माता-पिता की  "गोदी" बन जाते हैं !!

कब वे अपनी बाहोंका "झूला" भी बना  देते हैं !!
 

                       जबान होते बच्चे कब "बड़े" होजाते हैं। 

                       जबान बच्चे कब "परिपक्व" होजाते हैं।      

   

                                  ***************

Friday, 30 July 2021

    राजा हरिश्चन्द्र कथा      

      एक बार इंद्र-लोक में एक सभा का आयोजन प्रशासनिक समस्याओं के विचार-विमर्श के लिए किया गया। इसमें इंद्र-लोक,पृथ्वी-लोक के सभी ब्रह्मर्षियों को आमंत्रित किया गया। महर्षि विश्वामित्र को भी आमंत्रित किया। सभा के प्रारम्भ होने पर देवता इंद्र ने सभी आगन्तुकों से कहा-आप मेरी शंका का समाधान करें। मैं जानना चाहता हूँ कि सृष्टि में सबसे मूल्यवान वस्तु क्या है ? सभी ने अपनी ओर से अलग-अलग उत्तर दिए,किसी ने कहा-ज्ञान,किसीने कहा-न्याय,किसी ने धन तो किसी ने भक्ति। 

    नारद जी ने मुनि वशिष्ठ से कहा-ऋषिवर आप भी बतायें। तब ऋषि ने कहा-सबसे श्रेष्ठ और उत्तम सर्वोपरि केवल 'सत्य' है। नारद जी बोले-पर इसकी मर्यादा की रक्षा तो बहुत कठिन है.इसका पालन करना तो बहुत कठिन है। ऋषि ने कहा,हाँ कठिन तो है। नारद जी ने कहा-यदि किसी का पुत्र, पत्नी बिछुड़ जाएँ,घर में कोई और मुसीबत भी आ जाय तो भी सत्य का पालन संभव है क्या,कोई है ऐसा जिसे आप जानते हैं ? ऋषि बोले हाँ,अयोध्या के राजा सत्यव्रत के पुत्र राजा हरिश्चन्द्र सत्यवादी हैं। सुनते ही ऋषि विश्वामित्र बड़ी ज़ोर से हँसे।

     नारद जी बोले-ऋषिवर ,आप क्यों हँसे ? ऋषि बोले- हँसू नहीं तो क्या करूँ ? कोई राजा सत्य धर्म का पालन कर सकता है क्या ? उनकी  इस बात को सुन कर सभा को दूसरे दिन तक के लिए स्थगित कर दिया गया। असल में विश्वामित्र को हरिश्चन्द्र की परीक्षा लेनी थी।दूसरे दिन निश्चित समय पर सभा प्रारम्भ हुई। राजा हरिश्चन्द्र ने मंत्री से पूछा-नगर में सब सकुशल तो है ! मंत्री ने कहा-हाँ महाराज सब ठीक है। राजा ने कहा-हमारे योग्य कोई सेवा ? मंत्री ने कहा-महाराज नगर के दो नागरिक आपस में लड़ रहे हैं,उनमें विवाद होरहा है। राजा ने कहा-उन्हें बुलाओ। दोनों नागरिक चंद्रगुप्त और कालगुप्त सभा में प्रवेश हुए,चंद्रगुप्त ने कहा-महाराज,कुछ दिन पहले कालगुप्त ने मुझसे धन लिया था कुछ दिन में बापस कर देगा यह कह कर लेकिन अब ये झूठ बोल रहा है कि इसने मुझसे कोई धन नहीं लिया। राजा के सामने कालगुप्त बोलै-महाराज मुझे कोई भी दंड दीजिये मैनें धन लिया था लेकिन आपके सामने मैं झूठ नहीं बोल पाया। मैं इसका धन लौटा दूँगा। राजा ने कहा-ये तुम्हारा पहला अपराध है,इसलिए माफ़ किया। इस तरह राजा का सत्यवादी रूप सामने आया।उनके सत्य के आगे कोई झूठ नहीं बोल पाता।

    उसी समय विश्वामित्र आते हैं। राजा हरिश्चन्द्र उन्हें देखते ही उनका स्वागत करते हैं बैठने के लिए अनुरोध करते हैं। पूछते हैं-ऋषिवर,आश्रम में सब सुरक्षित हैं ?  आपका जप-तप बिना किसी बाधा के चल रहा है,आपकी सभी आवश्यकताएँ निर्विघ्न पूरी होरही हैं ? ऋषि ने कहा-सब ठीक है पर आपसे अपने यज्ञ के लिए विशाल धन-राशि की माँग है। राजा बोले-बताइये कितना धन चाहिए। विश्वामित्र ने कहा-एक हाथी के ऊपर चढ़ कर कोई एक रत्न जितनी ऊँचाई तक फेंक सके उतना धन चाहिए। राजा ने इसे अपना सौभाग्य मान कर मंत्री से तुरंत ऋषि की माँग पूरी करने के लिए कहा। ऋषि ने कहा-अभी नहीं यज्ञ का कार्य निश्चित होने पर मैं आपसे ले लूँगा  तब-तक ये धन आप अपने ही पास रखिए। राजा ने कहा-जो आदेश ! यशस्वी भव ! कह,ऋषि ने प्रस्थान किया। 

    इसके बाद विश्वमित्र ने राजा हरिश्चंद्र की परीक्षा के लिए नगर में अपनी तपस्या के बल पर अनेक जंगली जानवर छोड़ दिए जिससे नगर में हा हाकार मच गया। शिकायत मिलने पर राजा ने उन सभी जानवरों को मार दिया। किन्तु ऋषि  विश्वामित्र ने एक और परीक्षा लेनी चाही और उसके लिए ऋषि ने राजा से स्वप्न में  उनका  राज-पाट माँग लिया। अगले दिन विश्वामित्र राज्य सभा में आते हैं। राजा ने उनका अभिवादन किया और सेवा का अवसर माँगा। तब ऋषि उन्हें स्वप्न के बारे में ध्यान दिलाकर उनसे पाँच सौ स्वर्ण-मुद्रा दक्षिणा के रूप में माँगते हैं,राजा ने अपने मंत्री को कोष से मुद्रा लाकर देने का आदेश दिया। ऋषि ने कहा-महाराज आपने राज-पाट दे दिया तो कोष भी अब आपका नहीं है।

     राजा ने अपनी मजबूरी बता कर असमर्थता जताते हुए कहा-ऋषिवर,अब तो मेरे पास कुछ नहीं है मुझे कुछ समय दीजिये।ऋषि की अनुमति पाकर,ऋषि को सम्पूर्ण राज्य सौंप कर पत्नी और पुत्र के साथ काशी चले गए। लेकिन कोई काम न मिलने पर राजा ने रानी और राजकुमार को एक स्वर्णकार को बेच दिया लेकिन मुद्राएँ फिर भी पूरी नहीं हुई। तब राजा ने स्वयं को एक श्मशान भूमि  में जाकर स्वयं को बेच दिया।जहाँ उन्हें किसी शव का दाह संस्कार करने से पहले 'कर' वसूलना होता था।ऋषि की परीक्षा अभी समाप्त नहीं हुई थी,कि  एक दिन तारामती जहाँ काम करती थीं वहाँ बगीचे से पूजा केलिए फूल लेते  समय पुत्र रोहित को साँप ने डस लिया।  सही उपचार न होने के कारण वो मृत्यु को प्राप्त होगया।

     तारामती रात्रि में ही पुत्र के पार्थिव शरीर को लेकर श्मशान भूमि में पहुँचीं। राजा ने 'कर' माँगा लेकिन तारामती ने कहा-मेरे पास तो कुछ भी नहीं है तभी अचानक बादलों से बिजली चमकी जिसमें राजा ने पत्नी-पुत्र को पहचान लिया लेकिन सत्यव्रती राजा ने कहा 'कर' तो देना होगा। ऐसा करो कि अपनी साड़ी का कुछ भाग फाड़ कर 'कर' देने का काम पूरा कर सकती हो। किन्तु जैसे ही रानी साड़ी फाड़ने को तैयार होती हैं तभी आकाश से देवताओं ने राजा की विजय का उद्घोष कर दिया। उल्लसित देवताओं ने श्मशान पर पुष्प वर्षा की। तभी ऋषि विशवामित्र उपस्थित हो गए प्रसन्न होकर अभिमंत्रित जल छिड़क कर पुत्र रोहित को पुनर्जीवित कर दिया। और राजा को उनका राज-पाट भी वापस कर दिया। 

    इस प्रकार राजा ने अपना सब कुछ बेच कर अपने सत्य व्रत का पालन किया। राजा हरिश्चंद्र का नाम उनकी सत्यवादिता और धर्मवादिता के लिए एक अनूठा  उदाहरण है। आज उनका नाम पुराणों में आदर और श्रद्धा के साथ जाना जाता है।  

                                 *****************








 

     इस 






  




    





           


  




        

    

Tuesday, 20 July 2021


नारी के सन्दर्भ में प्रायः लिखती रही हूँ ,आज मन किया कि उसे भारतीय-संस्कृति का भी ध्यान दिलाया जाय तो कुछ शब्द लेखनी से बरबस निकल पड़े --


अरे कभी तो -----------------!!


अरे कभी तो पत्नी बन कर देखो ;

कितना आनंद है !

कभी एक मीठी मुस्कान के साथ -

नयन चार करके देखो ;

मौसम बदल जायेगा !

कभी एक कप कॉफी ऑफर कर देखो ;

अद्भुत दृश्य समक्ष होगा !

कभी डोर पर आने से पहले -

दरवाज़े पर खड़ी होकर तो देखो -

दिन-भर की थकान दूर होजायेगी !

कभी कोरोना काल के बचाआत्मसंवाद व के साथ -

एकाकी घूमने की इच्छा तो व्यक्त करके देखो -

खुला आसमान बाहें फैला कर तुम्हारा स्वागत करेगा !

कभी जन्म-दिवस पर गिफ्ट न देकर -

होटल में खाना न खाकर -

भारतीय शैली में भारतीय खाना खिला कर तो देखो ;

जीवन की सारी  शिकायतें दूर हो जाएँगी !

कभी सॉरी तो कभी प्लीज़ भी कह कर ,

कभी छोटी-बड़ी किसी भूल को ,

इग्नोर करके तो देखो ;

जीवन के रंग बदल जायेंगे !

 अरे कभी तो  --------------


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