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Wednesday, 23 July 2025

नारद मोह भंग

 नारद मोह भंग 

एक बार नारद मुनि को हिमालय पर घूमते हुए एक गुफा दिखाई दी,उसे देख वो वहीं तपस्या करने बैठ गए,अखण्ड समाधि लगाली।उनकी तपस्या देख इंद्र डर गए उन्हें लगा कि नारदजी मेरे पद को लेने के लिए ही तपस्या कर रहे होंगे। इसलिए उन्होंने नारद जी की तपस्या भंग करने के लिए कामदेव को भेजा। कामदेव अपने पूरे परिकर के साथ पहुँच गए नारद जी की तपस्या भंग करने।अनेक प्रकार के प्रयत्न किये,पूरा ताण्डव किया लेकिन नारद जी की तपस्या पर कोई असर नहीं हुआ तो कामदेव बोले-ऋषिवर,मैं हार गया ये कहकर नारद जी के चरणों में समर्पण कर दिया।नारद जी हँसे, बोले जाओ कामदेव,मैंने तुम्हें माँफ किया।

पर नारद जी के मन में  घमंड आगया,सोचा कि मुझ पर काम का भी प्रभाव नहीं पड़ा और उस पर क्रोध भी नहीं आया और पहुंचे शिव जी के पास सोचा उन्हें बताएँगे कि आप ने काम को जीत लिया आप कामारि हैं लेकिन मैने तो काम और क्रोध दोनों को जीत लिया।राम भक्त शिव जी ने नारद जी को आते हुए देखा तो सोचा कि नारद जी आगये हैं,वो राम कथा कहेंगे,राम चरित्र सुनाएंगे तो समय सानंद व्यतीत होगा।लेकिन हुआ सब उल्टा,उन्होंने तो राम चरित्र नहीं काम-चरित्र सुनाया दिया।शिव जी समझ गए,बोले-मुनिदेव यहॉं तो आपने ये चर्चा कहदी पर और कहीं मत सुनाना,कोई पूछे तो भी नहीं कहना।भगवान् हरि के सामने तो बिलकुल नहीं।

पर नारद जी कहाँ रुकने वाले थे सीधे पहुँचे भगवान् के पास भगवान तो लीला कर रहे थे।जान गए कि नारद को अभिमान होगया है  इसे ठीक करना पड़ेगा क्योंकि  भगवान् अपने भक्त में घमण्ड नहीं देख सकते जैसे ही नारद जी भगवान् के पास पहुँचे उन्होंने अपनी माया का जाल फैला दिया और वे तुरंत उनके स्वागत में खड़े होकर बोले-आइये मुनिवर; आइये और अपने पास ही सिंहासन पर बिठाया,बोले आपने बड़ी कृपा की जो दर्शन दिए।इतना सुनते ही नारद जी तो फूल गए सोचने लगे,अब तो मेरी भी कृपा का महत्व होगया। भगवान् भी मेरी कृपा के इच्छुक होगये।भगवान् ने पूछा, कहो मुनिवर कैसे आना हुआ।

 नारद जी समझ गए कि अब तो मेरा भी स्थान बड़ा होगया और सारा काम-चरित्र सुना दिया। यद्यपि शिवजी ने मना किया था तथापि नारद जी तो अभिमान में चूर थे।भगवान् मुस्कराये यही भगवान् की माया है।बोले-ऋषिवर काम आपका क्या बिगाड़ सकता है। आपके तो स्मरण मात्र से सब का काम-क्रोध मिट जायेगा।  नारद जी ने सोचा-वाह !अब तो मैं भगवान् के बराबर हो गया। पहले भगवान् का नाम लेने से काम-क्रोध मिटता था,अब मेरा भी नाम लेने से काम क्रोध मिट जायेगा।  ये सोचते हुए अभिमान में चूर नारद जी चले गए।रास्ते में भगवान् ने माया नगर प्रकट कर दिया।उस नगर के राजा थे,शीलनिधि। उन्हें अपनी पुत्री विश्वमोहिनी का विवाह करना था।नारदजी से मिले तो अपनी पुत्री का हाथ दिखाया।हाथ देख कर नारद जी ने कहा इसका पति विश्व विजयी होगा,समादरणीय सारे ब्रह्माण्ड का स्वामी होगा और ये कहते-कहते नारदजी के हृदय में काम का प्रवेश होगया।सोचने लगे इस कन्या से तो मेरा ही विवाह होजाय तो अच्छा लेकिन मेरे इस रूप को देख तो कन्या मुझे अपना पति नहीं चुनेगी।और उन्होंने भगवान् का स्मरण किया और  भगवान् प्रकट होगये,नारदजी  बोले-प्रभु आप अपना रूप मुझे दे दो जिससे वो कन्या मेरा वरण करले,इस के लिए जिसमें मेरा हित हो वही करना।भगवान् ने कहा-बिल्कुल वही करूँगा, जिस में आपका हित होगा।  

और भगवान ने सुन्दर बनाने के बजाय उनका चेहरा बन्दर जैसा बना दिया।नारद जी चले गए स्वयंवर में।स्वयंवर शुरू हुआ तो नारद जी बार-बार उचक-उचक कर देख रहे थे उन्हें तो विश्वास था कि कन्या उनके ही गले में वरमाला डालेगी। उन्हें तो लग रहा था कि उनसे अधिक खूबसूरत और कौन होगा। लेकिन इसी बीच ऐसा हुआ कि उनकी आशा के विपरीत भगवान् राजकुमार के वेश में आये और विश्वमोहिनी के गले में वरमाला डाल कर लेगये। उधर शंकर जी के गण घूंम रहे थे,वो नारद जी की हालत देख रहे थे।जाकर हँसते हुए बोले-नारद जी,जाकर अपना चेहरा तो देखिये,आपका चेहरा देख कर कौन कन्या चुनेगी आपको अपना पति । नारद जी ने  जाकर पानी में अपना बन्दर का  चेहरा देखा तो आग बबूला होगये। 

तमतमाते हुए भगवान जी के पास जा रहे थे कि आज तो मैं भगवान् को श्राप दूँगा,कहूँगा कि मैने आपसे सुन्दर रूप माँगा और मुझे आपने बंदर बना दिया,मेरा इतना अपमान किया, मेरा उपहास कराया कि तभी रास्ते में उन्हें लक्ष्मी जी और राजकुमारी जी के साथ भगवान् मिल गये।देखते ही नारदजी तो बरस पड़े बोले-आप तो परम स्वतंत्र हैं।मैंने अपने रक विवाह के लिए आपसे सुन्दर रूप माँगा था और आपने मुझे बन्दर का चेहरा दे दिया।आप दो-दो के साथ घूँम रहे हैं।आज मैं आपको श्राप देता हूँ जाओ आपको भी नारी विरह सताएगा।भविष्य में बन्दर ही आपकी सहायता करेंगे।इतना कह कर जब नारदजी चुप होगये तो भगवान् ने अपनी माया हटा दी।

अब न वहाँ लक्ष्मीजी थीं न राजकुमारी।भगवान् ने उनका श्राप स्वीकार किया और मुस्करा कर बोले-नारद अब आप मुझे परम स्वतंत्र नहीं कह सकते।आपका श्राप मेने शिरोधार्य किया।नारदजी समझ गए उनको को लगा ये तो बड़ा अपराध होगया और भगवान् के चरणों में गिर पड़े और बोले भगवन-मेरी वाणी झूठी हो जाय, मेरा श्राप झूठा हो जाय। भगवान् बोले- उठो नारद तुम्हारे अंदर काम-क्रोध देख कर ये सब मैंने ही किया।मैं अपने भक्त में कोई दोष नहीं देख सकता।नारद जी  बोले-पर मुझे शांति कैसे मिलेगी। भगवान् बोले जाओ, भगवान् शंकर के सतनाम का जप करो और इस प्रकार नारद जी का मोह भंग हुआ और नारद जी पुनः तपस्या के लिए चले गए। 

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