Visitors

Sunday, 30 January 2022

 अनाम - शीर्षक ?? (1987) 
 
       जीवन की व्यथा-कथा ! जिसे क्या नाम दूँ,रोमांचक, ह्रदय-विदारक,या फिर दुःखद या सुखद।डरावनी भयावह वो शाम जो अँधेरे को कुछ ही पल में अपने आगोश में सिमटने को तैयार!! वह पल जब दिमाग कितनी ऊहापोह में था,उलझनों में जकड़ा  बहुत ही अन्यमनस्क था,जीवन का वो चिंतनीय या अचिंतनीय पल!अति दुरूह अवस्था में डूबी ,किंकर्तव्य विमूढ़ सी, नयी दिल्ली ,नेहरू प्लेस का बस-स्टैंड,समय का भी ध्यान नहीं ! नोएडा आना था,छोटे बच्चे दोनों थे साथ,बेटा पास ही अपने पापा को लेने के लिए ऑफिस गया था,अँधेरा होगया था लेकिन वापस नहीं आपाया तो परेशान घबराई हुई,डरते हुए न जाने कैसे मैंने तीन टिकिट भी लेलीं बस की।
       बेचैनी पल पल बढ़ रही थी,क्या करूँ क्या न करूँ ,घर भी लौटना था बस का भी टाइम हो रहा था ,व्यग्र और आतुर मन,कैसे मेरा बेटा मेरे पास आजाये पशोपेश में थी अवाक् निःशब्द ! सोच रही  थी उसके पास पैसे भी नहीं हैं कि वो विनोद ड्राइवर पड़ोसी के यहाँ जा सके कि तभी अचानक मेरे बेटे ने जो इस समय वो "हमारा" नहीं सिर्फ और सिर्फ "मेरा" था,आकर मेरे कंधे पर हाथ रख कर पुकारा- मम्मी, ओह ! मेरे तो मानो ही प्राण लौट आये हों। मेरा रोम रोम कितनी ख़ुशी से भर गया,शब्द नहीं,आँसुओं को रोक,बस एक गहरी साँस ली और दोनों बच्चों को लेकर बस में आकर बैठ कर चैन की साँस ली।
   प्रकाश से जगमगाते  घर पहुँच कर बस ----कुछ नहीं।भगवान् को धन्यवाद दिया कुछ नहीं बोली,कुछ नहीं कहा सोचती रही -----
     कैसी माँ हूँ टिकिट लेकर क्या आने की तैयारी में थी ! क्या करने जारही थी  कैसे ऐसा सोच भी पारही थी,पर करती भी क्या !! ईश्वर दयालु,कृपालु होता है.वो परीक्षा लेता है फिर यथावत  परिणाम भी देता है।
    जीवन के अनेक अनकहे लम्हो,प्रसंगों को लेखनी का सहारा मिला लेकिन इस      " व्यथा-कथा " को लेखनी आज मिली। भूल नहीं पारही हूँ अपनी इस मनोव्यथा को जिसे कभी किसी से कह कर,किसी से विमर्श कर उसके विचार सुनूँ  या जानूँ  पर शायद लिख कर ही मन की यह उथल-पुथल शांत हो पायी हो,क्योंकि वो पल आज भी तरोताज़ा और वैसा ही आक्रान्तक है।
 
            मेरी लेखनी को साभार अभिनन्दन !! 
            ईश्वर को शत - शत नमन , प्रणाम  !!

                                   ***




 
    



  
 






    


    

No comments:

Post a Comment