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Thursday, 20 July 2023

क्योंकि मैं अपनी ही नहीं सुनती

 क्योंकि मैं अपनी ही नहीं सुनती 

          (आत्म-समीक्षा) 

 

हरबार मन को समझाती हूँ कि अपने को स्वस्थ रखना है तो भूल जा अपना पास्ट,भूल जा कि तू अब वही सब कर सकती है जो अब तक शौक से,बिना किसी परेशानी  के कर पायी ,अब भी कर सकती है। फिर एक तो स्वभाव और फिर शौक काम करने का ,मन नहीं मानता और -------।

कई बार सोचा कि काम करना छोड़ूँ यानि किसी का मुँह देखूँ,आदत ही नहीं किसी से कुछ भी काम के लिए कहने की, तो मुश्किल होती थी ,और फिर चल पड़ती।  सच तो ये है कि ये तो भगवान् भी नहीं चाहते  कि बिना काम किये बैठे रहो,कुछ तो करना होगा बड़ा करने की सामर्थ्य नहीं तो हल्का काम करो पर कुछ तो करना होगा,सोचा कैसे इस आदत से निवृत्ति पाऊँ ,क्या करूँ!पर समाधान नहीं मिला,बार बार मन कहता ,सब छोड़ो,सब हो जायेगा।जब मन कहता है मन को नियंत्रण में रखो,चिंता न करो,औरों को मौका दो,मोह ममता का ही तो रूप है ये कि मन चाहा काम करो, खर्चा करके नहीं,हाथ पैर चला कर लेकिन वो रास्ता नहीं सूझता।और फिर चल देती उसी राह पर !

लेकिन फिर कुछ ऐसा हुआ।मेरे मन की उलझन,परेशानी,समस्या से मुक्ति दिलाने भगवान् ने सख्त रास्ता दिखाकर मार्ग दर्शन किया।असल में घर में साफ़ सफाई का काम शुरू हुआ, उम्र और शारीरिक क्षमता को ध्यान में रखते हुए मन तैयार नहीं था पर बच्चों का मन था,सफाई की आवश्यकता भी थी इसलिए काम शुरू हुआ।

भगवान  का यही मार्गदर्शन था,अवसर था थोड़ा सोचने समझने का लेकिन मनुष्य की यही कमी है कि ठीक से सोचता विचारता नहीं।बस स्वभाव के वशीभूत सामान को हटाना ,लगाना सब में दौड़ती भागती रही,और बस मेरे एक  घुटने ने अचानक साथ छोड़ दिया ,बहुत तकलीफ होगयी,असहाय महसूस करने लगी,बहुत परेशान होगयी,किसी से काम न लेने की आदत कमज़ोर होगयी। वाशरूम तक  के लिए दिन में ३-४ बार बहू को बुलाना पड़ा सहारे के लिए ,अंत में सोचा मेडिकल रिम्बरसमेंट तो होता ही है इसलिए होस्पिटलाइज़्ड होगयी ,एक वीक में सुधार हुआ चलने फिरने लायक हुई तो घर आगयी।(१७फरबरी से २३ फरबरी )

तब से आज तक भगवान ने केवल इस लायक रखा कि अपना काम कर पाऊँ। लेकिन तकलीफ है।समय आज ऐसा है कि अस्पताल,डॉ.पर विश्वास कर पाना मुश्किल होगया है। पर विवशता और मजबूरी अस्पताल और डॉ तक पहुँचा ही देती है। कुछ दिन और प्रतीक्षा की कि शायद अपने आप तकलीफ दूर हो,पर ऐसा हुआ नहीं।अंत में बेटे से कहा बेटा अब तो लगता है घुटने के लिए कुछ करना ही पड़ेगा। तब उसने अपने मित्र और अपने कुछ जानकारों से बात की।उनमें से एक मित्र ने एक डॉ का पता बताया।उसने कहा - अपनी मम्मी का उपचार कराया,अच्छा डॉ है कहीं और जाने की ज़रूरत नहीं।बेटे ने नाम पता लेकर गूगल सर्च किया ,डॉ से बात हुई पता चला वह मेरा स्टूडेंट है,कहा वो मेरी मैंम हैं ,पढ़ाया है मुझे। बेटे ने जब बताया तो अटूट विश्वास के साथ उससे समय माँगा,मीटिंग की ,उससे मिलकर मुझे और अधिक संतोष हुआ।उसने बताया-45 मिनट की सर्जरी है एक दिन  एडमीशन टेस्ट,दूसरे दिन सर्जरी तीसरे दिन डिस्चार्ज भी हो सकते हैं.उसी समय अपॉइटमेंट लिया और 12 जुलाई को एडमिट हो गयी ,13 जुलाई को सर्जरी और 14जुलाई को  डिस्चार्ज कर दिया।

घर आने की हिम्मत न थी दर्द बहुत था चलने मैं बहुत तकलीफ थी,पर डॉ की हिम्मत देने से हिम्मत की और बच्चों के सहारे से झीना चढ़ कर घर आगयी।आज एक महीना होगया तकलीफ बहुत कम है पर अभी भी बहुत है। डॉ ने कहा है एज फैक्टर है और २-३ महीने का समय लगेगा।पर संतोष है।

बात वही कि "मैं अपनी ही नहीं सुनती"। आज अपनी नहीं,ज़रुरत की सुनी और मुझे सहायता के लिए बोलने,कहने की आदत स्वभाव में आगयी।आज जितना संभव है अपना काम स्वयं कर पाती हूँ बाकी बहू-बेटे का सहारा लेती हूँ।संकोच होता है पर कह पाती हूँ कोई परेशानी नहीं।

कभी-कभी स्वाभिमान इतना अधिक आड़े आता है कि फिर जिंदगी तकलीफ उठाने के बाद अपना रास्ता स्वतः ढूँढ लेती है।स्वाभिमान के स्थान पर इसे 'अहं' भी कहा जा सकता है।मुख्य रूप से परेशानी का कारण भी यही बनता है। 

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Saturday, 8 July 2023

दादी-पोती संवाद ( हास्य प्रसंग )

 दादी-पोती संवाद ( हास्य प्रसंग )

कई महीने के बाद मध्य रात्रि 2 बजे पोती अपने हॉस्टल से छुट्टियाँ बिताने घर आयी थी।थकी हुई थी,अपनी दादी से मिलने के बाद तुरंत सोगई।सुबह देर तक सोती रही कि अचानक दादी की प्यार भरी कड़क आवाज़ ने  सोती हुई बच्ची को कुलमुला दिया पुनः आवाज़ दी -अरी बिटिया अभी उठी नहीं! उठके आ मेरा काम कर,-2 दिन को आयी है, दादी याद करेगी फिर - सुनते ही पोती दौड़ी-दौड़ी आयी - बोलो दादी,क्या काम है,जल्दी बताओ मुझे नींद आरही है।  

दादी (हँसती हुई) -अरे अभी सोना बाकी है,अच्छा जा ज़रा मेरी लठिया तो ला,जाना है पड़ौस में भजन कीर्तन है,देर होरही है।

पोती - लो दादी,अब मैं जाऊँ ? 

दादी - अरे मेरा चस्मा तो लाके दे।

पोती-ओके दादी, ये लो चश्मा अब जाऊँ ? 

दादी - ठैर तो लाली, मेरी लम्बी वाली ड्रेस तो ला,जो तेरी माँ ने मंगाई थी।(पहनी हुई ड्रैस की ओर)इशारा कर,ये पहनके थोड़े ही जाऊँगी।

पोती-ओके दादी,कहाँ रखी है।

दादी -वो मेरी  अलवारी में कपड़ों के नीचे चौथे नंबर पै रखी है,जा दौड़के ला,भजन शुरू हो जायेँगे,देर हो रही है।

पोती -लो दादी,अब मैं जाऊँ? 

दादी-अरी मेरा बटुआ तो ला,पैसे भी तो चढ़ाने को चाहिए और ले,तनिक जाकर 2 केले भी मदर डेरी से दौड़के लादे।

पोती हँसते हुए- दादी,मेरी सारी नींद उड़ादी,अब जाऊँ ?

 दादी-अरी बिटिया इतना काम कर दिया,अब मुझे पड़ौसन के घर छोड़ भी आ,बिटिया चौथी मंजिल  पर घर है,कैसे जा पाऊँगी, कहीं गिर गयी तो ---!

पोती- चलो दादी वहाँ भी छोड़ आती हूँ।पोती (छोड़ कर) बोली- अब जाऊँ ?

 अरी थोड़ा बैठ ले,मत्था टेक, भजन सुन,मुझे वापस भी ले चलना,आधा घंटे बाद।(पोती बैठ जाती है)

दादी-चल अब घर चल,चल कर अब सोजाना, नींद पूरी कर लेना,कितनी अच्छी बिटिया है।

पोती (हँसती है),हाथ पकड़ कर,आदर-प्यार से घर ले जाती है।  

अब जाकर जो उसकी हँसी का गुब्बारा फूटा - ज़ोर-ज़ोर से अकेले ही हँसने लगती है।और जब सबने हँसने का कारण पूछा तो  बैठ कर,हँसी के मारे उस से बोला ही न जाये फिर  दादी की ओर देखते हुए घर में सबको सारा किस्सा सुना-सुना कर खूब मजे ले लेकर हँसाया। फिर हँसते हुए-  

बोली दादी- अब जाऊँ सोने ? 

दादी भी पल्लू से मुँहु ढक कर मुस्कराती हैं -------- 

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Tuesday, 4 July 2023

मेरी माँ (जीवन के कुछ अनछुए अंश )

         मेरी माँ (जीवन के कुछ अनछुए अंश ) 

आज माँ बहुत याद आरही थीं तो वह भी आज मेरी लेखनी का आलम्बन बन गयीं और लिखने बैठ गयी उनकी आत्म कथा अपने शब्दों में - जितना बेटी होने के नाते समझ पायी कि विभिन्न परिस्थितियों में वो क्या सोचती होंगीं कल्पना कर लिखने का प्रयास किया है लेकिन बाहरीतौर पर आज इस उम्र में जो समझ पारही हूँ वो इस प्रकार है -(  जो सुना बचपन में और जो देखा आँखों से और जो समझ पारही  हूँ इस पड़ाव पर आकर --)

16 वर्ष की थीं,तब माँ का विवाह हुआ था,धौलपुर के उच्च घराने में जिनके नाम के आगे "रईस" लिखा जाता था।24 वर्ष की अवस्था तक हम तीन बहिनों  का जन्म हो चुका था।इस बीच पापा का स्वास्थ्य ऐसा होगया कि वो काम पर भी नहीं जा पाये, बी ए, ऐल  ऐल बी थे पापा।दादा ने बहुत इलाज कराया मानसिक चिकित्सक से भी कराया लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ तब नानाजी ने हमें हाथरस ही बुला लिया आने के कुछ समय बाद हमारे एक भाई ने जन्म लिया। हम सबकी पढ़ाई नानाजी के पास हो रही थी।भाई भी स्कूल जाने लगा। 

तब नानाजी ने माँ की पढ़ाई के बारे में सोचा और इस तरह धीरे-धीरे माँ ने बी ए तक की शिक्षा प्राप्त करली। अब नानाजी चाहने लगे कि माँ को कोई प्रशिक्षण कोर्स भी  कराया जाय जिस से वो पैरों पर खड़ी हो स्वावलम्बी बने।समय आने पर अपने बच्चों की आगे देख-भाल कर सकें। ये समय माँ के लिए  कितना कठिन रहा होगा।लेकिन वो हालतों को देखते हुए तैयार होगयीं।

आज इस बात का एहसास कर पारही हूँ।अंततः नानाजी के एक मित्र के सहयोग से माँ लखनऊ तीन महीने की ट्रेनिंग के लिए गयीं, जहां से उन्हें सोशल वर्कर का प्रमाणपत्र मिला।वहां से लौट कर उन्हें महिला अस्पताल में फेमिली प्लानिंग डिपार्टमेंट में नियुक्ति मिली।इस कार्य  के लिए माँ को घर से निकलना,नौकरी करने के लिए गॉंव-गाँव घर-घर  घूमना होता था।हर परिवार में जा-जा कर महिलाओं को परिवार नियोजन के बारे में समझाना कितना कठिन रहा होगा वो माँ ही जानती होंगी।इस योजना के लाभ हानि समझाना, उन अशिक्षित महिलाओं को विश्वास में लेना कितना जटिल था कई बार बहुत उल्टा-पुल्टा भी सुनना  पड़ता था पर धीरे धीरे माँ को सफलता मिलती गयी।

सरकारी आदेश के अनुसार एक महीने में २-3 केस लाने  होते थे।भगवान की दया से पुरुष सहकर्मियों से उन्हें इस काम में सहायता मिल जाती थी।तेज धूप,बारिश में घर-घर विजिट करना, दूभर कार्य था।माँ के पैरों में छाले पड़ जाते थे।तब जूते चप्पल भी आज की तरह सुविधा जनक नहीं मिलते थे।सुबह से निकल कर दो पहर के २-3 बज जाते थे। वापिसी के लिए कभी इक्का कभी ताँगा मिलता था।तब तक हम उनकी प्रतीक्षा करते थे।उस पर भी यह कि माँ बाहर का कुछ नहीं खातीं थीं  पानी तक नहीं पीतीं थीं। कभी-कभी किसी के यहाँ स्वच्छता  का विश्वास होता तो पानी लस्सी ग्रहण कर लेती थीं।बस नानाजी का सहारा था कि वह ये सब कर पायीं। 

तब माँ की मानसिक पीड़ा का अनुमान हम नहीं लगा पाते थे। पापा के विषय में कितना कुछ मन में सोचती होंगी,नहीं समझ पाते थे।अपने मन की बात वो किस से करतीं,बच्चों से नहीं,पिता से नहीं,नानी बहुत पहले ही चली गयीं थीं।बाकी भाभी भाई से भी क्या और कैसे ----कभी-कभी पापा आते,हमें अच्छा लगता।अपनी परेशानियां बताते लेकिन अधिक नहीं और फिर धौलपुर जाने के लिए कहते और चले जाते थे।माँ से कहते तुमने पढ़ाई करली है पर नौकरी मत करना। छुप-छुपा कर नौकरी के लिए जातीं। पापा जब हमारे पास होते तो घूमने जाते,बगीची जाते, स्नान आदि वहीँ करते।हमें देख कर खुश होते पर बात बहुत कम करते।उनके सामने हम बच्चे कभी बीमार होते तो  बाजार से दवा भी लाते।पैसे नानाजी देते रहते थे।माँ का मन उस समय क्या सोचता होगा,कितनी  दुखी होतीं होंगी,अकाल्पनिक है।

इस तरह पापा का सामीप्य या प्यार स्नेह कुछ-कुछ अंतराल के बाद मिलता रहता।माँ को भी पापा को इतना भर ही देखने का लाभ हासिल हुआ कि अचानक वो भी सब समाप्त होगया। खबर मिली मामाजी के एक मित्रसे जो धौलपुर वासी थे,उनके ऑफिस में ही कार्य रत थे,उन्होंने बताया कि पापा हमें छोड़ सदा के लिए भगवान् के पास चले गए। टूट गयीं माँ और हम सब।संभाला अपने आपको,नानाजी का वरद  हस्त तो था ही और उससे भी अधिक भगवान् के प्रति विश्वास सर्वोपरि !!   

शांत मन से माँ हमारे बारे में,हमारी शादी के बारे में चिंता करतीं रहती होंगी।इन्हीं सब चिंताओं के कारण  वो बीमार भी रहने लगीं थीं।सारा शरीर सूज जाता था , स्नोफीलिया की भी शिकायत होगयी,इलाज होता रहा,थोड़ा बहुत लाभ  भी होता रहता पर किसी तरह सरकारी सेवा चलती रही।

हम सबकी शादी भी होगयी।पर भाई की करने से पहले नानाजी भी भगवान् के पास चले गए।बाद में भाई की भी शादी मामाजी के सहयोग से होगयी।उसके कुछ समय बाद माँ रिटायर हुईं।किराये के मकान को खाली कर अब वो भाई के पास रहने लगीं थीं।दुखम सुखम समय गुज़रता रहा,नाती पोते के साथ खुशी से समय व्यतीत होता रहा,पर अधिक समय नहीं गुजार पायीं,और वृन्द्रावन में जाकर आश्रम में रहने लगीं।जयपुर जातीं-आतीं रहतीं थीं।सरकार से पेंशन मिलती थी,सेविंग थी,उससे समय व्यतीत होता रहा। कभी बेटियों के पास भी हो आतीं।इस तरह 87 वर्ष की आयु में एक बार जब जयपुर गयीं तो पुनः लौटना नहीं हुआ।

जयपुर में दोपहर मंदिर से दर्शन कर लौटीं,बहू के कथनानुसार माँ ने खाना खाया और सोगयीं।सब सोगये।घर में जब शाम बहू उठी तो देखा,माँ उल्टी करके सोई  हुईं थीं,पता नहीं कब उल्टी हुई, कब क्या हुआ। भाई को फोन कर ऑफिस से बुलाया।अस्पताल लेगये,बस वहां 15 दिन बेहोशी में ही रहीं और एक सुबह उनकी आत्मा परमात्मा में विलीन होगयी।हम उस समय 2 बहिनें पास थीं पर माँ को कुछ नहीं ज्ञात था। हमारे सर से एक आखिरी साया भी सदा के लिए हमसे छूट गया।संक्षेप में ये था हमारी माँ का जीवन के अनछुए अंश --------!! 

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Monday, 6 February 2023

कुछ सनातनी मान्यताएँ

कुछ सनातनी मान्यताएँ 

  ( 1 )      कहते हैं,मानव योनि में पूर्व जन्म के संस्कार विद्यमान रहते हैं।शेष योनियों में केवल उसी योनि के संस्कार जाग्रत रहते हैं,पूर्व योनि के संस्कार दबे रहते हैं।इसीलिए मनुष्य जिस भी संग में रहता है वैसा बन जाता है। क्योंकि संग के द्वारा सजातीय ( पूर्व योनि ) संस्कार जोर पकड़ते हैं और बलबान होकर स्वाभाव बन जाते हैं।

( 2 )  जन्म से पूर्व मनुष्य की सुषुम्ना नाड़ी खुली होती है तो उसे गत जन्म का सब कुछ याद रहता है।अपने किया कर्मों के लिए भगवान से कभी प्रार्थना करता है,कभी मांफी मांगता है कि इस बार कारागार से छुट्टी मिलेगी तो मैं साधना,भजन करके मोक्ष प्राप्त कर लूँगा , लेकिन जन्म के बाद उसकी सुषम्ना नाड़ी बंद हो जाती है और वह सब भूल जाता है। परिणाम फिर भोग-विलास में लिप्त हो जाता है। 

( 3 )                               पितृपक्ष -श्राद्ध 

         श्राद्ध पितृपक्ष के दौरान किये जाने चाहिए। लेकिन अमावस्या का श्राद्ध ऐसे भूले-बिसरे लोगों के लिए होता है जिन्हें परिस्थितिवश श्राद्ध का भाग नहीं मिल पाया। इस दिन ज्ञात-अज्ञात पूर्वजों का विधि-विधान से पिंडदान,तर्पण और श्राद्ध कर सकते हैं। इस दिन को ही ' सर्वपितृ-श्राद्ध ' कहा गया है। 

  मान्यता है  कि 

      पितृ पक्ष के दौरान कुछ समय के लिए यमराज पितरों को मुक्त कर देते हैं ताकि वे अपने वंशजों से श्राद्ध ग्रहण कर सकें। हर व्यक्ति के तीन पूर्वज-पिता,दादा,और परदादा क्रम से  वसु,रूद्र औरआदित्य के समान  माने जाते हैं। श्राद्ध में वे ही अन्य सभी पूर्वजों के प्रतिनिधि होते हैं। जीवन के पश्चात् प्रत्येक मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण होते हैं। देव ऋण ,ऋषि ऋण,और पितृ ऋण श्राद्ध करके अपने इन तीन ऋणों से मुक्त होता है। 

                ( दैनिक भास्कर ,मधुरिमा - 21 सितम्बर 2016 )

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Wednesday, 1 February 2023

जिंदगी

             जिंदगी ( मुक्तक )


जिंदगी       बहुत      खूबसूरत है 

यदि देखने का नज़रिया सही हो !

         जिंदगी   का हर - दर्द    सुखद  है 

         यदि उसके  परिणाम पर नज़र हो !

जिंदगी    का   हर - पल  स्वर्ग    है 

यदि जीने का तरीका इन्द्रधनुषी हो !


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Tuesday, 31 January 2023

वो कौन थी -------

 वो कौन थी     !!

      उसने कभी अपना कोई मित्र नहीं बनाया,क्योंकि हर सम्बन्ध "त्याग और समर्पण" की अपेक्षा रखता है इसका सीधा मतलब किसी न किसी की उपेक्षा करना।लेकिन  उसे बिना किसी उपेक्षा-अपेक्षा के शांति व सन्तोष से जीना था।   

      इसी विश्वास के साथ उसने एक बहुत सीधी-सादी घटना,जो उसके जीवन में सालों से उसका उत्पीड़न कर रही थी,बताई। बड़ी मुश्किल से उसके ओठ खुले और तब अटक-अटक कर,सहमी सी,डरी सी जमीन में आँखें टिका कर एक सांस में उसने सब कुछ उड़ेल दिया,बोली - एक संस्थान जहां वह कार्यरत थी,एक दिन लिफ्ट में जाते हुए उसकी नज़र लिफ्ट में  पड़ी हुई एक चमकदार वस्तु पर पड़ी, चमकती आँखों से उसने उसे उठा लिया।मुफ्त की चीज़ मिली बस ये चमक थी आँखों में। न लोभ था,न लालसा थी, न उससे कोई लाभ था,और नाहीं घर के किसी अभाव की पूर्ति हो रही थी।पर मन व्यग्र था,द्विविधा में था।बात इतनी सी कि फिर करे क्या उसका ! क्या lost nd found प्रॉपर्टी में जमा कराये पर सोचा वो वस्तु वहां से जिसकी है उसे तो नहीं मिलेगी कोई और के ही हाथ लगेगी। इसी मनःस्थिति में 3-4 घंटे निकल गए मन शान्त नहीं हुआ।तभी कुछ शोर सुनाई दिया,अमुक व्यक्ति की वह वस्तु कहीं खोगई। यह सुन हालत ज़्यादा ख़राब होगयी। सोचा उसने कि अब दूँ  तो अनेक प्रश्न होंगे,अबतक क्यों नहीं बताया आदि आदि ----तो घर लेजाना ही उचित लगा।पर उसके बाद भी उसका मन बेचैन;उसका करे क्या ?किसी मंदिर में चढ़ादे या सड़क पर फेंकदे;इसी पशोपेश में समय निकलता गया उलझन बढ़ती गयी।तभी एक बड़े घनिष्ठ का विवाह का निमंत्रण मिला राहत मिली ये वस्तु उपहार स्वरुप उसे ही भेट करदूँ। और उसने वैसा ही किया। तब उसे कुछ शांति मिली।

     उसने बताया पर ईश्वर बहुत दयावान होता है,वह तबसे लगातार मेरी मनःस्थिति को समझते हुए मेरे ही साथ था। उसने बताया जैसे ही उसने वह वस्तु उपहार में दी, उसके 2-3 दिन के उपरान्त उसके गले के पेन्डेन्ट पर किसी ने हाथ मार दिया। वो थी असली शांति !!

        समझते बिलकुल देर न लगी,सुना था दान करो तो दस गुना बढ़ कर लाभ मिलता है इसी तरह किसी की वस्तु को अपने प्रयोग में लो तो भी दस गुना या इससे भी अधिक बढ़ कर हानि होती है। तो बस पेन्डेन्ट खोने का कोई दुःख नहीं,कोई पछतावा नहीं बल्कि सच्ची और पूर्ण शांति अब मिली। इतना कहकर ख़ुशी के आँसुओं के साथ उसने बहुत गहरी सांस ली।न किसी की उपेक्षा हुई न किसी की अपेक्षा हुई। आज दिल में छिपी बात कह कर शांति से वह मुझी में समा गयी। 


                         मेरी लेखनी !! मेरी लेखनी !! मेरी लेखनी !!  

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Saturday, 28 January 2023

वृद्धावस्था : युवावस्था

 

वृद्धावस्था  :  युवावस्था 


समस्या है ,सामंजस्य की।

     बच्चे चाहते हैं माता-पिता के साथ रहें या परिस्थिति के अनुसार वे हमारे साथ रहें। पर कैसे !! इसे अब एक नए परिप्रेक्ष्य में समझें तो ये कि वृद्धावस्था का बचपन बहुत जल्दी व्यतीत होजाता है जिसे खुद ये अवस्था समझ ही नहीं पाती।वो अपने यौवन में ही विचरण कर रही होती है,वो अपनी खूबसूरती,आकर्षण,यश-मान प्रतिष्ठा के भुलावे में ही खोयी हुई होती है कि अचानक पढ़ने में लिखे हुए शब्द हिलते से,डबल-डबल दिखाई देने लगते हैं। चश्मा लग गया तो एक दिन सहसा ही दाँत में दर्द हुआ,ज़्यादा तकलीफ हुई तो डॉक्टर के उपचार से ही दर्द से मुक्ति मिली तो अचानक एक दिन किसी ने कहा कि आपको शायद सुन ने में प्रॉब्लम है और इस तरह विकारों का सिलसिला शुरू होगया। 

      इस तरह लगभग 55 की उम्र से करीब 65 -----तक ये सिलसिला चलता रहा। तब जाके महसूस हुआ,अच्छा ये तो वृद्धावस्था की ज़ोरदार एंट्री अपने पूरे जोश के साथ हो चुकी है वो भी तब जब एक दिन डॉक्टर ने कहा - माताजी , इस उम्र में तो अपना ध्यान रखिये।

 यकायक लगा झटका सोचा,ध्यान ही न था इस ओर तो। यानि कि वृद्धावस्था अपने चरम वेग पर है बचपन यौवन सब समाप्त ! सामान्य विकारों के उपचारों के साथ अब औपचारिक साधन भी जुटाने हैं ; जैसे - खाना सादा-सरल,पहनावे में परिवर्तन,सीमित मेल-मिलाप,आवश्यकता की हर वस्तु अपने निकटतम रखना  जिस से वृद्धावस्था की ये अवस्था किसी ओर के कष्ट का कारण न बने। 

अब सोचिये आजके इस बदलते ,दौड़ते-भागते जीवन में किसी के साथ कैसे सामंजस्य बिठाया जा सकता है ! आज युवावस्था की आवश्यकताएँ पूर्णतया भिन्न हैं। डिजिटल की दुनिया में अशिक्षित युवा भी बिलकुल बदल गया है वो भी वह सब करता है जिसे वृद्ध शिक्षित भी नहीं कर सकते।दिनभर की कार्य-शैली भिन्न,कार्यालय का काम-काज भिन्न,उनका स्वयं का भी समय मानो उन्हीं के लिए कम पड़ गया हो।

डिजिटल की दुनिया बिलकुल अलग है। घर में हैं पर सारी दुनिया से जुड़े हुए,काम-काज, पारिवारिक दायित्वों को पूरा करने में व्यस्त युवा,यानि एक दिमाग और एक ही समय में इतने सारे दायित्वों को सफलता पूर्वक निभाने में तत्पर !! माता-पिता का यथोचित मान-सम्मान व उनकी उचित आवश्यकताओं को पूरा करना।इतना करने भर से भी वृद्ध और युवा दोनों अपनी ओर से सामंजस्य बिठाने में प्रयत्नरत पर क्या वे संतुष्ट रह पाते हैं ? जबाव है नहीं। युवाओं का हँसना-बोलना,खान-पान, रहन-सहन शौक-मौज कहीं भी तो मेल नहीं खाता। 

फिर सामंजस्य कैसे संभव ! पर समझदारी से सब कुछ संभव ! यहाँ दायित्व इस कमज़ोर,मजबूर,विवश बूढ़ी वृद्धावस्था का ही हो जाता है। होना भी चाहिए क्योंकि -

" वे उस युवावस्था के अनुभवों से गुज़र चुके होते हैं उनकी आवश्यकताओं से चिर-परिचित होते हैं  और युवावस्था ने तो वृद्धावस्था के अनुभवों को जाना ही नहीं।वे उनके मानसिक स्तर,उनकी पीड़ा उनकी वेदना तक कैसे पहुँच सकते हैं।"

तो उनका पक्ष तो सबकुछ करते हुए कमज़ोर ही होगा।इसलिए दायित्व इस बूढ़ी वृद्धावस्था का ही है। 

                                सोचिये सोचिये सोचिये  -------