मेरी माँ (जीवन के कुछ अनछुए अंश )
आज माँ बहुत याद आरही थीं तो वह भी आज मेरी लेखनी का आलम्बन बन गयीं और लिखने बैठ गयी उनकी आत्म कथा अपने शब्दों में - जितना बेटी होने के नाते समझ पायी कि विभिन्न परिस्थितियों में वो क्या सोचती होंगीं कल्पना कर लिखने का प्रयास किया है लेकिन बाहरीतौर पर आज इस उम्र में जो समझ पारही हूँ वो इस प्रकार है -( जो सुना बचपन में और जो देखा आँखों से और जो समझ पारही हूँ इस पड़ाव पर आकर --)
16 वर्ष की थीं,तब माँ का विवाह हुआ था,धौलपुर के उच्च घराने में जिनके नाम के आगे "रईस" लिखा जाता था।24 वर्ष की अवस्था तक हम तीन बहिनों का जन्म हो चुका था।इस बीच पापा का स्वास्थ्य ऐसा होगया कि वो काम पर भी नहीं जा पाये, बी ए, ऐल ऐल बी थे पापा।दादा ने बहुत इलाज कराया मानसिक चिकित्सक से भी कराया लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ तब नानाजी ने हमें हाथरस ही बुला लिया आने के कुछ समय बाद हमारे एक भाई ने जन्म लिया। हम सबकी पढ़ाई नानाजी के पास हो रही थी।भाई भी स्कूल जाने लगा।
तब नानाजी ने माँ की पढ़ाई के बारे में सोचा और इस तरह धीरे-धीरे माँ ने बी ए तक की शिक्षा प्राप्त करली। अब नानाजी चाहने लगे कि माँ को कोई प्रशिक्षण कोर्स भी कराया जाय जिस से वो पैरों पर खड़ी हो स्वावलम्बी बने।समय आने पर अपने बच्चों की आगे देख-भाल कर सकें। ये समय माँ के लिए कितना कठिन रहा होगा।लेकिन वो हालतों को देखते हुए तैयार होगयीं।
आज इस बात का एहसास कर पारही हूँ।अंततः नानाजी के एक मित्र के सहयोग से माँ लखनऊ तीन महीने की ट्रेनिंग के लिए गयीं, जहां से उन्हें सोशल वर्कर का प्रमाणपत्र मिला।वहां से लौट कर उन्हें महिला अस्पताल में फेमिली प्लानिंग डिपार्टमेंट में नियुक्ति मिली।इस कार्य के लिए माँ को घर से निकलना,नौकरी करने के लिए गॉंव-गाँव घर-घर घूमना होता था।हर परिवार में जा-जा कर महिलाओं को परिवार नियोजन के बारे में समझाना कितना कठिन रहा होगा वो माँ ही जानती होंगी।इस योजना के लाभ हानि समझाना, उन अशिक्षित महिलाओं को विश्वास में लेना कितना जटिल था कई बार बहुत उल्टा-पुल्टा भी सुनना पड़ता था पर धीरे धीरे माँ को सफलता मिलती गयी।
सरकारी आदेश के अनुसार एक महीने में २-3 केस लाने होते थे।भगवान की दया से पुरुष सहकर्मियों से उन्हें इस काम में सहायता मिल जाती थी।तेज धूप,बारिश में घर-घर विजिट करना, दूभर कार्य था।माँ के पैरों में छाले पड़ जाते थे।तब जूते चप्पल भी आज की तरह सुविधा जनक नहीं मिलते थे।सुबह से निकल कर दो पहर के २-3 बज जाते थे। वापिसी के लिए कभी इक्का कभी ताँगा मिलता था।तब तक हम उनकी प्रतीक्षा करते थे।उस पर भी यह कि माँ बाहर का कुछ नहीं खातीं थीं पानी तक नहीं पीतीं थीं। कभी-कभी किसी के यहाँ स्वच्छता का विश्वास होता तो पानी लस्सी ग्रहण कर लेती थीं।बस नानाजी का सहारा था कि वह ये सब कर पायीं।
तब माँ की मानसिक पीड़ा का अनुमान हम नहीं लगा पाते थे। पापा के विषय में कितना कुछ मन में सोचती होंगी,नहीं समझ पाते थे।अपने मन की बात वो किस से करतीं,बच्चों से नहीं,पिता से नहीं,नानी बहुत पहले ही चली गयीं थीं।बाकी भाभी भाई से भी क्या और कैसे ----कभी-कभी पापा आते,हमें अच्छा लगता।अपनी परेशानियां बताते लेकिन अधिक नहीं और फिर धौलपुर जाने के लिए कहते और चले जाते थे।माँ से कहते तुमने पढ़ाई करली है पर नौकरी मत करना। छुप-छुपा कर नौकरी के लिए जातीं। पापा जब हमारे पास होते तो घूमने जाते,बगीची जाते, स्नान आदि वहीँ करते।हमें देख कर खुश होते पर बात बहुत कम करते।उनके सामने हम बच्चे कभी बीमार होते तो बाजार से दवा भी लाते।पैसे नानाजी देते रहते थे।माँ का मन उस समय क्या सोचता होगा,कितनी दुखी होतीं होंगी,अकाल्पनिक है।
इस तरह पापा का सामीप्य या प्यार स्नेह कुछ-कुछ अंतराल के बाद मिलता रहता।माँ को भी पापा को इतना भर ही देखने का लाभ हासिल हुआ कि अचानक वो भी सब समाप्त होगया। खबर मिली मामाजी के एक मित्रसे जो धौलपुर वासी थे,उनके ऑफिस में ही कार्य रत थे,उन्होंने बताया कि पापा हमें छोड़ सदा के लिए भगवान् के पास चले गए। टूट गयीं माँ और हम सब।संभाला अपने आपको,नानाजी का वरद हस्त तो था ही और उससे भी अधिक भगवान् के प्रति विश्वास सर्वोपरि !!
शांत मन से माँ हमारे बारे में,हमारी शादी के बारे में चिंता करतीं रहती होंगी।इन्हीं सब चिंताओं के कारण वो बीमार भी रहने लगीं थीं।सारा शरीर सूज जाता था , स्नोफीलिया की भी शिकायत होगयी,इलाज होता रहा,थोड़ा बहुत लाभ भी होता रहता पर किसी तरह सरकारी सेवा चलती रही।
हम सबकी शादी भी होगयी।पर भाई की करने से पहले नानाजी भी भगवान् के पास चले गए।बाद में भाई की भी शादी मामाजी के सहयोग से होगयी।उसके कुछ समय बाद माँ रिटायर हुईं।किराये के मकान को खाली कर अब वो भाई के पास रहने लगीं थीं।दुखम सुखम समय गुज़रता रहा,नाती पोते के साथ खुशी से समय व्यतीत होता रहा,पर अधिक समय नहीं गुजार पायीं,और वृन्द्रावन में जाकर आश्रम में रहने लगीं।जयपुर जातीं-आतीं रहतीं थीं।सरकार से पेंशन मिलती थी,सेविंग थी,उससे समय व्यतीत होता रहा। कभी बेटियों के पास भी हो आतीं।इस तरह 87 वर्ष की आयु में एक बार जब जयपुर गयीं तो पुनः लौटना नहीं हुआ।
जयपुर में दोपहर मंदिर से दर्शन कर लौटीं,बहू के कथनानुसार माँ ने खाना खाया और सोगयीं।सब सोगये।घर में जब शाम बहू उठी तो देखा,माँ उल्टी करके सोई हुईं थीं,पता नहीं कब उल्टी हुई, कब क्या हुआ। भाई को फोन कर ऑफिस से बुलाया।अस्पताल लेगये,बस वहां 15 दिन बेहोशी में ही रहीं और एक सुबह उनकी आत्मा परमात्मा में विलीन होगयी।हम उस समय 2 बहिनें पास थीं पर माँ को कुछ नहीं ज्ञात था। हमारे सर से एक आखिरी साया भी सदा के लिए हमसे छूट गया।संक्षेप में ये था हमारी माँ का जीवन के अनछुए अंश --------!!
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