वृद्धावस्था : युवावस्था
समस्या है ,सामंजस्य की।
बच्चे चाहते हैं माता-पिता के साथ रहें या परिस्थिति के अनुसार वे हमारे साथ रहें। पर कैसे !! इसे अब एक नए परिप्रेक्ष्य में समझें तो ये कि वृद्धावस्था का बचपन बहुत जल्दी व्यतीत होजाता है जिसे खुद ये अवस्था समझ ही नहीं पाती।वो अपने यौवन में ही विचरण कर रही होती है,वो अपनी खूबसूरती,आकर्षण,यश-मान प्रतिष्ठा के भुलावे में ही खोयी हुई होती है कि अचानक पढ़ने में लिखे हुए शब्द हिलते से,डबल-डबल दिखाई देने लगते हैं। चश्मा लग गया तो एक दिन सहसा ही दाँत में दर्द हुआ,ज़्यादा तकलीफ हुई तो डॉक्टर के उपचार से ही दर्द से मुक्ति मिली तो अचानक एक दिन किसी ने कहा कि आपको शायद सुन ने में प्रॉब्लम है और इस तरह विकारों का सिलसिला शुरू होगया।
इस तरह लगभग 55 की उम्र से करीब 65 -----तक ये सिलसिला चलता रहा। तब जाके महसूस हुआ,अच्छा ये तो वृद्धावस्था की ज़ोरदार एंट्री अपने पूरे जोश के साथ हो चुकी है वो भी तब जब एक दिन डॉक्टर ने कहा - माताजी , इस उम्र में तो अपना ध्यान रखिये।
यकायक लगा झटका सोचा,ध्यान ही न था इस ओर तो। यानि कि वृद्धावस्था अपने चरम वेग पर है बचपन यौवन सब समाप्त ! सामान्य विकारों के उपचारों के साथ अब औपचारिक साधन भी जुटाने हैं ; जैसे - खाना सादा-सरल,पहनावे में परिवर्तन,सीमित मेल-मिलाप,आवश्यकता की हर वस्तु अपने निकटतम रखना जिस से वृद्धावस्था की ये अवस्था किसी ओर के कष्ट का कारण न बने।
अब सोचिये आजके इस बदलते ,दौड़ते-भागते जीवन में किसी के साथ कैसे सामंजस्य बिठाया जा सकता है ! आज युवावस्था की आवश्यकताएँ पूर्णतया भिन्न हैं। डिजिटल की दुनिया में अशिक्षित युवा भी बिलकुल बदल गया है वो भी वह सब करता है जिसे वृद्ध शिक्षित भी नहीं कर सकते।दिनभर की कार्य-शैली भिन्न,कार्यालय का काम-काज भिन्न,उनका स्वयं का भी समय मानो उन्हीं के लिए कम पड़ गया हो।
डिजिटल की दुनिया बिलकुल अलग है। घर में हैं पर सारी दुनिया से जुड़े हुए,काम-काज, पारिवारिक दायित्वों को पूरा करने में व्यस्त युवा,यानि एक दिमाग और एक ही समय में इतने सारे दायित्वों को सफलता पूर्वक निभाने में तत्पर !! माता-पिता का यथोचित मान-सम्मान व उनकी उचित आवश्यकताओं को पूरा करना।इतना करने भर से भी वृद्ध और युवा दोनों अपनी ओर से सामंजस्य बिठाने में प्रयत्नरत पर क्या वे संतुष्ट रह पाते हैं ? जबाव है नहीं। युवाओं का हँसना-बोलना,खान-पान, रहन-सहन शौक-मौज कहीं भी तो मेल नहीं खाता।
फिर सामंजस्य कैसे संभव ! पर समझदारी से सब कुछ संभव ! यहाँ दायित्व इस कमज़ोर,मजबूर,विवश बूढ़ी वृद्धावस्था का ही हो जाता है। होना भी चाहिए क्योंकि -
" वे उस युवावस्था के अनुभवों से गुज़र चुके होते हैं उनकी आवश्यकताओं से चिर-परिचित होते हैं और युवावस्था ने तो वृद्धावस्था के अनुभवों को जाना ही नहीं।वे उनके मानसिक स्तर,उनकी पीड़ा उनकी वेदना तक कैसे पहुँच सकते हैं।"
तो उनका पक्ष तो सबकुछ करते हुए कमज़ोर ही होगा।इसलिए दायित्व इस बूढ़ी वृद्धावस्था का ही है।
सोचिये सोचिये सोचिये -------
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