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Sunday, 23 May 2021

एक सपना जो टूट कर पूरा हुआ ----------


         बी.एड करने की उठा-पटक मन में चल रही थी,बनस्थली विद्यापीठ में आवेदन किया था। यही डर था,पता नहीं कॉल आएगी या नहीं ;सपनों में खोई रहती थी। न जाने कहाँ कहाँ मन भागता रहता,उसी काल में ये रचना का जन्म हुआ जो प्रत्यक्ष है --- 

 उछल-कूद के बाद अवस्था वो  आयी ;

 करने  में भी  शर्म  , शर्म अब  शर्मायी।

 

 वाणी होगयी मौन ,नहीं कुछ कह पाती;पर 

 चपल नेत्र की चंचलता ,सब कह जाती। 


अधरों की मुस्कान , निमंत्रण देती है ; 

पर नेत्र मिलन होते ही ,धोखा देती हैं। 


लुका छिपी का खेल ;  चल रहा आँखों में ;

     (उठो-उठो आवाज़ लगायी मम्मी ने )

"अब जाकर  सपने कर पूरे बनस्थली में।" 

       और इस प्रकार स्वप्नान्तर से दूर माँसी-मौसाजी के संरक्षण में मेरा बी.एड. का -

सपना साकार हुआ। 

                          धन्यवाद मांसी-मोँसाजी  


                                  ---------------

      


 



  

Tuesday, 4 May 2021

अप्रत्याशित अनूठी "साईं कृपा"----------

घर में थोड़ी समस्या तो चल रही थी पर समयान्तर जो अनुभव हुआ;उसका अनुमान बिलकुल न था। विवरण है इस प्रकार --

    किसी भी पूजा-स्थल से हमारा कोई विरोध नहीं है तथापि हम लोग प्रायः हनुमान- मन्दिर,राम-मन्दिर और शिव-मन्दिर ही जाते रहे हैं।अचानक एक घटना से लगा जैसे "साँई" हमारे इष्ट बन कर कुछ दिन के लिए घर आये और हमारी बेटी को  आशीर्वाद देकर अन्तर्धान  होगये।मेरे पति को किसी अज्ञात प्रेरणा ने साँई मन्दिर जाने के लिए प्रेरित किया;आश्चर्य तो हुआ पर उनकी आस्था और श्रद्धा का प्रश्न था।यदा-कदा मैं भी,बहू-बच्चे भी साथ जाने लगे।प्रति वृहस्पति वार को दोपहर मन्दिर जाना,भोग लगाना और घर आकर श्रद्धा पूर्वक प्रसाद पाना,सबको वितरित कर भोजन करना यह क्रम कुछ समय नियमतः चलता रहा।

      मन्दिर की परम्परा के अनुसार भक्तों के द्वारा चढ़ाई गयी चुनरी समय-समय पर भक्तों को ही बाँट दी जाती थीं।भक्तों की संख्या अधिक होती थी चुनरी कम होती थीं  इसलिए भाग्यशाली भक्त ही प्राप्त करपाते थे,मेरे पति उन्हीं भाग्यशालियों में से एक थे।पुजारी जी ने स्वयं लाकर उन्हें चुनरी दी।लाकर पति ने मुझे दिखाई,बहुत ख़ुशी हुई बेटी  के विवाह की तैयारी भी चल रही थी,सोचा ये उसी के लिए आयी है,विदा इसी से करेंगे।ऐसा किया भी।इत्तिफ़ाक़ से बिटिया को रिटायरमेंट में स्मृति-चिह्न के रूप में साँई की ही तसवीर मिली थी,अन्य विदाई के सामान के साथ भेंट स्वरुप उसे भी देकर बेटी का विदाई-समारोह सम्पन्न किया। 

      कुछ समय ये मन्दिर जाने का क्रम और चला पर कब ये नियम समाप्त होगया नहीं पता।सब कुछ सामान्य था किन्तु जब बेटी पुनः घर आयी और उसने जो बताया तब भगवान् की कृपा का रहस्य ज्ञात हुआ।उसने बताया कि उसके ससुराल में सब साँई के अनन्य भक्त हैं और उन पर अटूट श्रद्धा और विश्वास है।

    लगा भगवान् भी अपनी कृपा के लिए कोई माध्यम चुनते हैं।इस बार साँई को माध्यम  बनाकर बिटिया का घर बसाया।शतशः नमन के साथ भगवान् को धन्यवाद अर्पित किया। 


                                          " जय साँई राम "

                                           " ॐ साँई राम "

                                                 **** 
    




           

Friday, 30 April 2021

एक निस्पृह अवस्था

एक निस्पृह,अनचाही लावारिश अवस्था !!


अचानक दिल की तलहटी से निकले ये शब्द -

सहसा ही पास बैठे किसी को, 

चौंकाने के लिए काफ़ी थे,कि -

एक आवाज़ ने चौंकाया,-

"भई ये कौनसी अवस्था है !" 

 अरे वही -

"जिसमें सब कुछ धुँधला-धुँधला नज़र आता है।"

"आइसोलेटेड है " ये पूरी तरह से -

"पर ये तो वृद्धावस्था होती है,"

नज़र धुँधली हो जाती है,

पर लावारिस कैसे !!

क्योंकि ये अवाँछनीय है,कोई नहीं चाहता इसे;

चारों ओर खालीपन ही खालीपन;

"कोरन्टाइन है," 

हर कोई परेशान !

सिर्फ और सिर्फ धूमिल सी आकृति ;

टेड़ी-मेड़ी सी ,

जो अपने ही पन का अहसास कराती है।

"ओह ! तो ये बात है,

ये तो सामान्य है।"   

हाँ , पर अब ये असामान्य है।

और लाइलाज़ भी ------------- 

अगर एक मुस्कान भी "एक्सचेंज" न हो किसी के साथ !

तो और इसे क्या कहें।  


                      ***  


 



  

    

Wednesday, 7 April 2021

ब्लॉग का आरम्भ

      और तब शरू हुआ ब्लॉग का आरम्भ !!लेखन-कार्य मेरा बहुत प्रारम्भ से ही चल रहा था पर वो समय ऐसा न था कि इस ओर किसी का ध्यान जाता 1967 में मेरी माँ के ऑफिस से किसी कुलीग ने उनसे कहा- मैडम,हमारी पत्रिका के लिए रचना चाहिए कोई हो लिखने वाला तो उसे कहिये।मेरी माँ मेरी इस लेखन कार्य से अवगत थीं। उनके कहने पर लिखी मेरी पहली क्रान्तिकारी  रचना "ये समाज है"। "पत्रिका में प्रकाशित हुई। इस से मुझे प्रोत्साहन मिला किन्तु इसके बाद जीवन में आये एक नए मोड़ से लेखन की गति में विराम आगया किन्तु जब-तब लेखन चलता रहा जो कटे-पिटे कागज़ के टुकड़ों में जमा होता रहा। 

        अचानक ही 5 फरवरी २०१३ की उस काली भयावह रात्रि ने,जिसमें जीवन का सब कुछ स्वाहा होगया, पुनः एकबार बंद पड़ी मेरी लेखनी में प्राणों का संचार कर दिया।और मेरी "कविता-कामिनी" उठ खड़ी हुई।जीवन में आये खालीपन और अभिव्यक्ति की अधीरता ने फिर से अंदर की सोई हुई प्रतिभा को जगाया और लेखन शुरू हुआ।रचनायें लिखीं ,समाचार-पत्र में भी प्रकाशित हुईं किन्तु कोई स्थिर स्तम्भ नहीं मिला जहाँ ये रचनाएँ संकलित करती तभी मेरे बेटे ने कागज़ों पर लिखी इन रचनाओं को देखा कुछ-सोच विचार के उपरान्त बोला माँ, आप अपना ब्लॉग बनाकर इन रचनाओं को उसमें लिखो।बेटे ने कम्प्यूटर पर लिखना तो  सिखा दिया था लेकिन अब अपना पर्सनल लैपटॉप की ज़रुरत थी उसका भी प्रबन्ध बेटी और दामाद ने कर  दिया। इस तरह बेटे के आग्रह और परामर्श ने मुझे आगे बढ़ने की राह दिखाई,सबसे पहले उन कटे-पिटे कागज़ों पर लिखी रचनाओं को टाइप किया उसके बाद बेटे,बहू, पौत्री से भी निरंतर आजतक कम्प्यूटर की तकनीक में सहायता मिलती रही है।और मेरा लेखन सहजता पूर्वक आज तक चल रहा है अब जीवन में खालीपन को कोई स्थान नहीं लेखन चलता रहेगा --------  

            अभी कुछ समय पहले बेटे ने मेरा ब्लॉग देखा तो बोला - "मम्मी आप अपनी किताब पब्लिश कराओ।" तो दिमाग ने इस ओर काम करना शुरू किया। इस प्रकार ----  

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Monday, 5 April 2021

    
        यादों के झरोखों से ----------

कोशिशें होती  रहीं ,       हम सामना करते रहे ;
मन दुखा,और दिल भी टूटा,अश्रु भी बहते रहे। 

          देख कर सपने नए नित ,साथ कोई ढूँढ लेंगे ; 
          जो नहीं बातें कभी की ,  खूब सारी वो करेंगे।
 
"तुम बताओ तुम हो कैसे , हम बताएँ हम हैं कैसे ;
 बिन हमारे तुम हो कैसे , बिन तुम्हारे हम हैं कैसे। 

           रह रहे हैं ठाठ से कैसे ,  तुम्हारे बिन भी    हम ;
           मौन रहकर,मूक रहकर भी तुम्हारे साथ हैं हम।
 
तुम बड़े कमज़ोर दिल के, हम बड़े मजबूत हैं ;
छोड़ करके तुम गए ,  पर हम बड़े मजबूर हैं।
 
         कर्म का लेखा  समझ कर , जीत लेंगे जिंदगी ;
         फिर मिलेंगे , फिर मिलेंगे , फिर मिलेंगे जिंदगी। 


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Saturday, 27 February 2021

भाई के प्रति

भाई के प्रति 

अच्छा ही हुआ मेरे भाई ,जो तुम चले गए ,

मोह-माया ,आसक्ति के भ्रम-जाल से मुक्त गए ,

याद तो बहुत आते हो मेरे भाई ,क्योंकि तुम बहुत प्रिय थे, 

किन्तु बहाना बना कर गए  ,ये अच्छा नहीं लगा।  

चाहे-अनचाहे कर्मों को भी भोग लिया ,

स्वास्थ्य भी साथ नहीं दे रहा था ,

इसलिए अब तुम्हारा जाना ही ठीक लगा। 

आँसू नहीं रुकते ,पर किसी अव्यक्त दुःख से -

मुक्ति मिली ,मेरे भाई, इसलिए 

तुम्हारा जाना ही ज़्यादा अच्छा लगा। 

जहां भी हो खुश रहना ,भाई मेरे। 

    शुभाशीष के साथ -

       बहिन। 

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Sunday, 10 January 2021

                                       दो शब्द 

             

भावों और विचारों की अभिव्यक्ति है ये मेरा ब्लॉग ! समाज,संस्थाओं,परिवार,पड़ोस और मेरे शिक्षण-कार्य  क्षेत्र व साहित्य जगत से जुड़े मेरे अपने गहन अनुभवों का संग्रह है ये मेरा ब्लॉग ! जीवन की यादें ,संस्मरण,कविता,कहानी,हास्य आदि जैसे जीवन से  जुड़े विषयों को मैने अपने ब्लॉग का विषय बनाया है। जीवन के कुछ ग़मगीन महत्त्वपूर्ण पल भी मेरे इस ब्लॉग का विषय हैं। प्रबुद्ध भावुक पाठक सम्भवतः इसे पढ़ना पसन्द करें। प्रयास यही रहा है कि  भाषा सरल,सहज हो पर कभी भावों की गूढ़ता के अनुसार भाषा में साहित्यिकता का भी निर्बहण हुआ है जो स्वाभाविक ही लगता है। 

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