बी.एड करने की उठा-पटक मन में चल रही थी,बनस्थली विद्यापीठ में आवेदन किया था। यही डर था,पता नहीं कॉल आएगी या नहीं ;सपनों में खोई रहती थी। न जाने कहाँ कहाँ मन भागता रहता,उसी काल में ये रचना का जन्म हुआ जो प्रत्यक्ष है ---
उछल-कूद के बाद अवस्था वो आयी ;
करने में भी शर्म , शर्म अब शर्मायी।
वाणी होगयी मौन ,नहीं कुछ कह पाती;पर
चपल नेत्र की चंचलता ,सब कह जाती।
अधरों की मुस्कान , निमंत्रण देती है ;
पर नेत्र मिलन होते ही ,धोखा देती हैं।
लुका छिपी का खेल ; चल रहा आँखों में ;
(उठो-उठो आवाज़ लगायी मम्मी ने )
"अब जाकर सपने कर पूरे बनस्थली में।"
और इस प्रकार स्वप्नान्तर से दूर माँसी-मौसाजी के संरक्षण में मेरा बी.एड. का -
सपना साकार हुआ।
धन्यवाद मांसी-मोँसाजी
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