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Tuesday 31 January 2023

वो कौन थी -------

 वो कौन थी     !!

      उसने कभी अपना कोई मित्र नहीं बनाया,क्योंकि हर सम्बन्ध  त्याग और समर्पण की अपेक्षा रखता है इसका सीधा मतलब किसी न किसी की उपेक्षा करना।लेकिन  उसे बिना किसी उपेक्षा-अपेक्षा के शांति व सन्तोष से जीना था।   

      इसी विश्वास के साथ उसने एक बहुत सीधी-सादी घटना,जो उसके जीवन में सालों से उसका उत्पीड़न कर रही थी,बताई। बड़ी मुश्किल से उसके ओठ खुले और तब अटक-अटक कर,सहमी सी,डरी सी जमीन में आँखें टिका कर एक सांस में उसने सब कुछ उड़ेल दिया,बोली - एक संस्थान जहां वह कार्यरत थी,एक दिन लिफ्ट में जाते हुए उसकी नज़र लिफ्ट में  पड़ी हुई एक चमकदार वस्तु पर पड़ी, चमकती आँखों से उसने उसे उठा लिया।मुफ्त की चीज़ मिली बस ये चमक थी आँखों में। न लोभ था,न लालसा थी, न उससे कोई लाभ था,और नाहीं घर के किसी अभाव की पूर्ति हो रही थी।पर मन व्यग्र था,द्विविधा में था।बात इतनी सी कि फिर करे क्या उसका ! क्या lost nd found प्रॉपर्टी में जमा कराये पर सोचा वो वस्तु वहां से जिसकी है उसे तो नहीं मिलेगी कोई और के ही हाथ लगेगी। इसी मनःस्थिति में 3-4 घंटे निकल गए मन शान्त नहीं हुआ।तभी कुछ शोर सुनाई दिया,अमुक व्यक्ति की वह वस्तु कहीं खोगई। यह सुन हालत ज़्यादा ख़राब होगयी। सोचा उसने कि अब दूँ  तो अनेक प्रश्न होंगे,अबतक क्यों नहीं बताया आदि आदि ----तो घर लेजाना ही उचित लगा।पर उसके बाद भी उसका मन बेचैन;उसका करे क्या ?किसी मंदिर में चढ़ादे या सड़क पर फेंकदे;इसी पशोपेश में समय निकलता गया उलझन बढ़ती गयी।तभी एक बड़े घनिष्ठ का विवाह का निमंत्रण मिला राहत मिली ये वस्तु उपहार स्वरुप उसे ही भेट करदूँ। और उसने वैसा ही किया। तब उसे कुछ शांति मिली।

     उसने बताया पर ईश्वर बहुत दयावान होता है,वह तबसे लगातार मेरी मनःस्थिति को समझते हुए मेरे ही साथ था। उसने बताया जैसे ही उसने वह वस्तु उपहार में दी, उसके 2-3 दिन के उपरान्त उसके गले के पेन्डेन्ट पर किसी ने हाथ मार दिया। वो थी असली शांति !!

        समझते बिलकुल देर न लगी,सुना था दान करो तो दस गुना बढ़ कर लाभ मिलता है इसी तरह किसी की वस्तु को अपने प्रयोग में लो तो भी दस गुना या इससे भी अधिक बढ़ कर हानि होती है। तो बस पेन्डेन्ट खोने का कोई दुःख नहीं,कोई पछतावा नहीं बल्कि सच्ची और पूर्ण शांति अब मिली। इतना कहकर ख़ुशी के आँसुओं के साथ उसने बहुत गहरी सांस ली।न किसी की उपेक्षा हुई न किसी की अपेक्षा हुई। आज दिल में छिपी बात कह कर शांति से वह मुझी में समा गयी। 


                         मेरी लेखनी !! मेरी लेखनी !! मेरी लेखनी !!  

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Saturday 28 January 2023

वृद्धावस्था : युवावस्था

 

वृद्धावस्था  :  युवावस्था 


समस्या है ,सामंजस्य की।

     बच्चे चाहते हैं माता-पिता के साथ रहें या परिस्थिति के अनुसार वे हमारे साथ रहें। पर कैसे !! इसे अब एक नए परिप्रेक्ष्य में समझें तो वृद्धावस्था का बचपन बहुत जल्दी व्यतीत होजाता है जिसे खुद ये अवस्था समझ ही नहीं पाती।वो अपने यौवन में ही विचरण कर रही होती है,वो अपनी खूबसूरती,आकर्षण,यश-मान प्रतिष्ठा के भुलावे में ही खोयी हुई होती है कि अचानक पढ़ने में लिखे हुए शब्द हिलते से,डबल-डबल दिखाई देने लगते हैं। चश्मा लग गया तो एक दिन सहसा ही दाँत में दर्द हुआ,ज़्यादा तकलीफ हुई तो डॉक्टर के उपचार से ही दर्द से मुक्ति मिली तो अचानक एक दिन किसी ने कहा कि आपको शायद सुन ने में प्रॉब्लम है और इस तरह विकारों का सिलसिला शुरू होगया। 

      इस तरह लगभग 55 की उम्र से करीब 65 -----तक ये सिलसिला चलता रहा। तब जाके महसूस हुआ,अच्छा ये तो वृद्धावस्था की ज़ोरदार एंट्री अपने पूरे जोश के साथ हो चुकी है वो भी तब जब एक दिन डॉक्टर ने कहा - माताजी , इस उम्र में तो अपना ध्यान रखिये।

       यकायक लगा झटका सोचा,ध्यान ही न था इस ओर तो। यानि कि वृद्धावस्था अपने चरम वेग पर है बचपन यौवन सब समाप्त ! सामान्य विकारों के उपचारों के साथ अब औपचारिक साधन भी जुटाने हैं ; जैसे - खाना सादा-सरल,पहनावे में परिवर्तन,सीमित मेल-मिलाप,आवश्यकता की हर वस्तु अपने निकटतम रखना,जिस से वृद्धावस्था की ये अवस्था किसी ओर के कष्ट का कारण न बने। 

       अब सोचिये आजके इस बदलते ,दौड़ते-भागते जीवन में किसी के साथ कैसे सामंजस्य बिठाया जा सकता है ! आज युवावस्था की आवश्यकताएँ पूर्णतया भिन्न हैं। डिजिटल की दुनिया में अशिक्षित युवा भी बिलकुल बदल गया है वो भी वह सब करता है जिसे वृद्ध शिक्षित भी नहीं कर सकते।दिनभर की कार्य-शैली भिन्न,कार्यालय का काम-काज भिन्न,उनका स्वयं का भी समय मानो उन्हीं के लिए कम पड़ गया हो।

    डिजिटल की दुनिया बिलकुल अलग है। घर में हैं पर सारी दुनिया से जुड़े हुए,काम-काज, पारिवारिक दायित्वों को पूरा करने में व्यस्त युवा,यानि एक दिमाग और एक ही समय में इतने सारे दायित्वों को सफलता पूर्वक निभाने में तत्पर !! माता-पिता का यथोचित मान-सम्मान व उनकी उचित आवश्यकताओं को पूरा करना।इतना करने भर से भी वृद्ध और युवा दोनों अपनी ओर से सामंजस्य बिठाने में प्रयत्नरत ,क्या संतुष्ट रह पाते हैं ? जबाव है नहीं। युवाओं का हँसना-बोलना,खान-पान,रहन-सहन शौक-मौज कहीं भी तो मेल नहीं खाता। 

       फिर सामंजस्य कैसे संभव ! पर समझदारी से सबकुछ संभव ! यहाँ दायित्व इस कमज़ोर,मजबूर,विवश बूढ़ी वृद्धावस्था का ही हो जाता है। होना भी चाहिए क्योंकि -

" वे उस युवावस्था के अनुभवों से गुज़र चुके होते हैं उनकी आवश्यकताओं से चिर-परिचित होते हैं  और युवावस्था ने तो वृद्धावस्था के अनुभवों को जाना ही नहीं।वे उनके मानसिक स्तर,उनकी पीड़ा उनकी वेदना तक कैसे पहुँच सकते हैं।" तो उनका पक्ष तो सबकुछ करते हुए कमज़ोर ही होगा।इसलिए दायित्व इस बूढ़ी वृद्धावस्था का ही है। 

                                सोचिये सोचिये सोचिये  ------- 

            

        




   

Wednesday 25 January 2023

रिटायरमेंट

 

         रिटायरमेंट  !!!

      

                    एक प्रश्न बार बार मेरे शांत मन को उद्विग्न करता है कि -

   " क्या रिटायरमेंट का दरवाज़ा मृत्यु की ओर जाता है ?"

   " क्या रिटायरमेंट कोई ' सांकेतिक दस्तक ' है ?"

                 ध्यान नहीं ; उक्त कथन कहीं पढ़े हैं या स्वयं मेरे मस्तिष्क की उपज, पर जो भी है ,मेरा मन इस ऊहापोह से उद्वेलित हो उठा कि यदि ये सच है तो फिर ये सिद्धांत या संकेत स्त्री- पुरुष दोनों पर लागू होना चाहिए।एक सुघड़ , सुशिक्षित विचारों से परिपक्व महिला रिटायरमेंट के पश्चात् कार्यकाल की ड्यूटी का निर्वाह कर एक तरह से अपने आशियाने में बापस आती है। बाह्य चिंताओं से मुक्त उन्मुक्तता का अनुभव करती है , अपने घर की बनायी दीवारों को निहारती है , खुश होती है लौट कर, विवाहित या अविवाहित अपने बच्चों और पति के साथ आनंदमय जीवन जीना चाहती है।अपने कार्य-काल यानि अपने व्यावसायिक कार्य के दायित्व से मुक्त हो बहुत ही सहज और सरल संतोषप्रद जीवन जीना चाहती है , परिवार के साथ नए उत्साह के साथ जीवन जीना चाहती है - पर कैसे ------!!

        प्रश्न यहीं खड़ा होता है !! पति तो रिटायरमेंट के पश्चात् बहुत ही असहज  बेरोजगार एक युवक की भाँति असन्तुलित हो जाता है। 

      महिला और पुरुष इस पड़ाव पर इतने भिन्न क्यों ? पुरुष इतने असहज इतने निर्बल क्यों महसूस करते हैं ! ओहदा कुछ भी हो कुछ आवश्यक बचत तो होती ही है , कहीं न कहीं निवेश भी करता है भविष्य के लिए। भविष्य भी ऐसा कि इस अवस्था तक आते-आते परिवार के महत्वपूर्ण दायित्वों से लगभग मुक्त हो चुका होता है। फिर इतनी असहजता क्यों !! 

     प्रयासरत होते हुए कोई काम अपनी रूचि के अनुकूल मिलजाय ,बहुत अच्छा किन्तु न मिलने पर किसी भी तरह के मानसिक दबाव में आजाना बहुत ही नासमझी और असंगत है भयंकर बीमारियों का कारण बन सकता है।

       प्रयास तो ये होना चाहिए जो इच्छाएँ कार्यरत रहते या बच्चों की देख-भाल में पूरी  नहीं कर पाए अब शुरू करें।कभी बच्चों के परिवार के साथ रह कर,कभी स्वयं कहीं घूमने हेतु प्रोग्राम बनायें कभी धार्मिक स्थलों पर दर्शन हेतु जाएँ।पर ये विचार इन पुरुषों के मस्तिष्क में क्यों नहीं आते। जिनको लेकर पत्नी सारा जीवन इसी प्रतीक्षा में व्यतीत कर देती है ! उसका जीवन तो नितांत एकांगी रह जाता है। 

      फिर से पति की देख-रेख , उनकी बीमारी की चिंता में अपनी युवावस्था से भी अधिक व्यस्त हो जाती है।बच्चे भी पास नहीं होते,उस पर पति की इस तरह की असहजता,व्यवसाय के लिए उत्तरोत्तर बेचैनी पत्नी को वास्तविक आयु से अधिक वृद्धावस्था की ओर धकेल देती है। 

      ऐसी ही स्थिति में प्रारम्भ में उठाये प्रश्न यहाँ खड़े होते हैं।यहाँ ये कहना आवश्यक है कि ऐसा  हर पुरुष के साथ नहीं होता वे भी समय और आवश्यकता  के अनुसार स्वयं को और अपने परिवार को खुश व सन्तुष्ट रख कर आनन्द व संतोष के साथ जीवन यापन करते हैं। 

      किन्तु अधिकतर मैंने ऐसा ही पाया है  " रिटायरमेंट सच में पुरुष वर्ग के लिए एक बोझिल और नाकारा अवस्था होती है।" 

                            *************        

   



                

 


एक कमज़ोर,विवश अवस्था ऐसी भी ------------


एक कमज़ोर , विवश अवस्था  ऐसी भी --------


समझ नहीं आता कि कौन गलत 

स्वयं खुद या कि सामने वाला  !!

अपनी मजबूरी का दोष भी दूसरों में देखना ,

कभी उसी के सहज भाव से किये कार्यों की प्रशंसा करना,

बड़ी ही अन्यमनस्क स्थिति !!

समीक्षा की ,विचार किया ;

किन्तु पशोपेश दूर नहीं हुआ ,

ऊहापोह की स्थिति जस की तस !

क्यों ??

क्योंकि मानव स्वयं में कम ,और 

सामने वाले में दोष अधिक देखना चाहता है। 

किन्तु फिर भी स्थिति तो यथावत -----

गम्भीर विचारों के सागर में डूबता रहा ,

सामने वाले पर ही प्रश्न उठाता रहा ,लेकिन 

नतीजा ------

किंकर्तव्यविमूढ़ !

आखिर में 

खोजते खोजते जिस बिंदु पर पहुँचा  तो -

घेराव में आया  ईश्वर !

सोचा इस अवस्था तक पहुँचाने में यही एकमात्र काऱण है। 

लो अब कल्लो बात !

जब कोई अनुकूल कारण नहीं मिला तो ,

पकड़ो इसे ही ,

पर सही पकड़ा ,सही पकड़ा ,

अन्ततः राह दिखाई उसने !

कोई गलत नहीं ,कोई दोषी नहीं ,

दोषी स्वयं खुद ही हैं हमारी सोच,हमारा स्वार्थ !

हमारे विचारों का संकुचित क्षेत्र ,

तब जाकर प्राप्त अन्यमनस्क अवस्था  में सुधार आया ,

लगा हम स्वयं ही अपनी हर समस्या,कष्ट तकलीफ के कारण हैं। 

आत्म निरीक्षण ,आत्म समीक्षा ,आत्म चिंतन बहुत आवश्यक है ;

अपनी इस अवस्था से मुक्ति पाने के लिए।।

    सकारात्मक " सोच "


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मतलब सबकुछ उसी का किया धरा है 









 

Tuesday 8 February 2022

 एक वर्णीय शब्द " माँ "


सुनील - माँ आज शाम को मैं अपने एक दोस्त के घर खेलने जाऊँ !

माँ      - नहीं , कोई ज़रुरत नहीं कहीं जाने की , बैठ के परीक्षा की तैयारी करो। 

सुनील - माँ pl जाने दो न !

माँ      - अरे ! सुना नहीं ," तुम्हारी माँ हूँ ,मना कर रही हूँ।" 

           ( एक लघु वार्त्तांश  )

'माँ' शब्द का प्रयोग दो जगह हुआ है  - एक तो माँ के द्वारा और एक बेटे के द्वारा; कुछ अंतर प्रतीत हुआ ?

      ज़रा ध्यान दें बच्चे द्वारा पुकारे गए 'माँ' शब्द में उसके अंतर की भावना स्नेह से भरी है,कितना विश्वास कितनी आत्मीयता है, इसके इतर वही 'माँ' शब्द कितना छल-छद्मी होजाता है जब वो स्वयं को माँ कह कर बच्चे को यह अहसास कराती है कि मैं तुम्हारी माँ हूँ। 

        बच्चों द्वारा पुकारे गए किसी भी सम्बोधन में अपने पुत्र या पुत्री का माता के प्रति केवल प्यार भरा विश्वास है। लेकिन माँ के द्वारा अपने लिए बार-बार माँ शब्द का कहना घमंड और अभिमान से बोझिल लगता है।  

       बच्चे माँ कहें तो उसमें कितना प्यार और स्नेहामृत का भाव !! लेकिन माँ कहती है तो स्वयं को गौरवान्वित होने का भाव !!तब इस छल-छद्मी एकवर्णीय शब्द में प्रेम-प्यार स्नेह,अपनापन कुछ नहीं केवल और केवल बच्चों को उनका अपने प्रति कर्तव्य-बोध करने का भाव होता है। 

          जबकि माँ शब्द तो माँ के लिए केवल और केवल उसके कर्तव्य की ओर प्रेरित करने का बोध जैसा होता है। माँ शब्द सुनते ही माँ को अपना दायित्व याद आना चाहिए। माँ कह कर बच्चा स्वयं को 'सुरक्षा कवच' के घेरे में पाता है। 

         बच्चे के लिए उसकी हर आवश्यकता की वस्तु जब तक उसे प्राप्त नहीं होती महान चिंता जनक  होती है,जिसकी निवृत्ति माँ पुकारने से ही होती है। कितना गूढ़ और गंभीर शब्द है उसके लिए ये माँ शब्द !! पर 'मैं तुम्हारी माँ हूँ', सुनते ही वो स्वयं को सुरक्षा-कवच से दूर एक बड़े चक्रव्यूह में फँसा पाता है। 

        ये ही अंतर है उक्त वर्णित वार्त्तांश में प्रयुक्त 'माँ' शब्द में !!

        बड़ा ही दोहरे चरित्र वाला है ये ' माँ ' शब्द !!


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मानसिक तनाव 

क्षणे रुष्टाः क्षणे तुष्टाः,रुष्टा तुष्टा क्षणे क्षणे 

अव्यवस्थित चित्तानां प्रसादोsपि भयंकरः। 

( अर्थात क्षण क्षण में रुष्ट और तुष्ट होने वालों की प्रसन्नता भी खतरनाक होती है। )

यहाँ एक ऐसे ही पात्र के व्यक्तित्व का वर्णन हैकिया गया है। 

   ज़ोर ज़ोर से चीखने की आवाज़ सुनकर सब दौड़े,जाके देखा तो सब हक़-बके रह गए। कमरे में रखा सब सामान तोड़-फोड़ दिया,सारी वस्तुओं को तितर-बितर कर दिया।रो रही थी चिल्ला रही थी,समझ में नहीं आया ये सब क्यों किया।२५-२६ वर्ष की आयु,शिक्षित,नौकरी पेशा,अचानक ये हरकत ! पूछने पर कहा - पता नहीं,मुझे नहीं पता और दिखा-दिखाकर कहा - देखो ये भी तोड़ दिया,ये फाइलें भी फाड़ दीं,अलवारी के कपड़े भी सब बाहर फेंक दिए और फिर रोना चिल्लाना शुरू ! 

          किसी के कुछ समझ नहीं आया इसे क्या हुआ थोड़ी देर में सब नार्मल उसने क्या किया उसे भी कुछ नहीं पता।नित्य-प्रति के कार्य किये और फिर जाकर अपने शयन-कक्ष की बत्ती बुझा दरवाज़ा बंद कर लिया। 

         ये सारा काण्ड लगभग ४-५ घंटे चला शाम का समय था सब बस्तुएँ यथावत व्यवस्थित कर दीं। पर समस्या जटिल थी,आखिर ऐसा क्यों किया दिमाग में चल क्या रहा है विचार विमर्श करते सभी अपने अपने कक्ष में चले गए। लगा कोई सपना देखा होगा। 

       लेकिन ये क्या २-३ दिन बाद फिर वही सब कुछ रोना-चिल्लाना सारा सामान अस्त-व्यस्त कर दिया।और कुछ देर बाद पूर्ववत सामान्य स्थिति। अब लगा समस्या जटिल ही नहीं विकट है। उसके ऑफिस जाने के बाद वातावरण गंभीर हो गया और किसी मनःचिकित्सक से परामर्श लेना तय हुआ।मनः चिकिस्तक के पास जाकर माता-पिता ने पूरा वृत्तान्त सुनाया। डॉ ने अनेक प्रश्न किये किन्तु एक प्रश्न के उत्तर पर डॉ अटक गया। जानकारी में जो डॉ को जो ज्ञात हुआ वो इस प्रकार है ------बताया गया --

  तीन वर्ष पहले उसका तलाक हुआ था। विवाह आपसी रज़ामंदी से हुआ था,कोई समस्या नहीं थी।लड़का जिसका नाम सुनील था,सुन्दर था,हँसमुख था,पढ़ा-लिखा,समझदार अच्छी कम्पनी में ऊँचे पद पर आसीन था यानि उसमें कोई कमी नहीं थी। रीना उसकी पत्नी भी पढ़ी लिखी समझदार एक कम्पनी में अच्छे वेतन पर काम करती थी।विवाहोपरांत सब कुछ ठीक चल रहा था.किन्तु समाज में पति का  सम्मान  और प्रतिष्ठा  रीना को चुभने लगी।गुरूर और अहंकार रीना पर हावी होने लगा।मन में विद्वेष और ईर्ष्या घर करने लगी। पहले चुप-चुप रहने लगी फिर किसी न किसी बहाने से झगड़ा करने लगी।बात-बात पर व्यर्थ ही सुनील का अपमान और तिरस्कार भी करती।सुनील नहीं समझ पा रहा  था कि वो ऐसा क्यों कर रही है, वो उसे बहुत प्यार करता था उसे हर तरह से समझाने की कोशिश करता।रीना के माता-पिता भी उसे समझाते लेकिन उसके दिमाग का फितूर कम नहीं हुआ अन्ततः बात तलाक पर ही जाकर रुकी। 

    अब रीना माता-पिता के पास थी,कार्य रत थी,संतुष्ट व खुश दिखाई देती थी पर अब उसकी ये समस्या शुरू हो गयी है।डॉ ने सारी बात बड़े ध्यान से सुनी,एक एक बिंदु पर विमर्श किया,समाधान के लिए डॉ ने  कुछ समय माँगा।इसके बाद लगभग छः महीने तक किसी ने किसी से कोई संपर्क नहीं किया। डॉ ने बहुत सोच-विचार कर सुनील से सम्पर्क किया और ज्ञात हुआ वो आज भी रीना को बहुत प्यार करता है।सुनील से बात करके डॉक्टर  को कुछ सकारात्मक संकेत दिखाई दिए। कुछ उम्मीद की किरण जगी। डॉ की सलाह पर सुनील ने रीना की ही कम्पनी ज्वाइन करली बस यही था रीना की बीमारी का इलाज। आयु की अपरिपक्वता की बीमारी को परिपक्वता की  समझदारी ने दूर किया। 

    रोज़ ही दोनों का मिलना,एक दूसरे की ओर पुनः आकर्षित होना,मूक हाव-भावों के  सम्प्रेषण ने दोनों को एक दूसरे के निकट ला दिया। ये क्रम छह महीने चला होगा और तब दोनों ने अपनी समझदारी से बिना किसी को घर में बताये तलाक-मुक्त होने की सभी औपचारिकताएँ पूरी कीं।और कोर्ट के सब पेपर लेकर सबसे पहले आभार सहित गिफ्ट लेकर डॉ के पास पहुँचे कुछ देर बैठ कर,डॉ के साथ ही माता-पिता के पास घर पहुँचे और एक मीठी मुस्कान के साथ कोर्ट के पेपर प्रस्तुत किये।ये मुस्कान अपने आप में मूक भाषा में बहुत कुछ  कह रही थी।और इस प्रकार बिखरे हुए दाम्पत्य-जीवन की पुनः एक नयी शरुवात हुई ।हर्ष-पूर्वक माता-पिता ने शुभ कामनाओं के साथ विदा कर भगवान को धन्यवाद दिया। 

     देखते रहे माता-पिता बेटी दामाद को एक साथ उनके नए आशियाने की ओर जाते हुए  ------

        अल्पायु और युवावस्था का आवेश कभी-कभी जीवन में इस प्रकार के मानसिक तनाव को जन्म दे देता है।पर हमेशा परिणाम सुखद ही होगा या दुःखद ही होगा ये आवश्यक नहीं। 


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ये बुढ़ियाई आँखें ( हास्य-व्यंग्य )

 ये बुढ़ियाई आँखें (हास्य-व्यंग्य)

    ना ! ना ! इन्हें निरीह और बेचारी समझने की भूल मत करना।इन आँखों की तरलता में पूरी जीवन्तता है।इनकी जिजीविषा का आप अनुमान नहीं लगा सकते। इसलिए इनसे सावधान रहने की आवश्यकता है।इनके टिमटिमाते दीदों की नमी से भ्रमित नहीं होना है।इन भीगी आँखों की गहराई का आप अन्दाज़ा भी नहीं लगा सकते क्योंकि इनकी पहुँच कहाँ तक है,क्या चाहती हैं,सोच के बाहर है।कितनी गंभीरता में कितनी शरारत, कितनी जड़ता में कितनी व्याकुलता, कितनी शांति में कितनी उद्विग्नता है इनमें ! इन छटपटाती आँखों के विषय में जो भी, जितना भी कहा जाय कम है।क्रोध में, प्रेम में, नींद में, नशे में व्याकुल नम, भीगी आँखें किसी को भी, कहीं भी बहा ले जाने की क्षमता रखती हैं।तो जनाव, सच तो यह है कि आयु का बुढ़ापा इन आँखों को कभी  बुढ़ियाने नहीं देता।इन आँखों के मसखरेपन को समझ ही नहीं सकते।इनकी पहुँच तो कवि की पहुँच से भी बाहर है।झुकी गर्दन, झुकी कमर, बेंत पकड़के काँपते हुए चलते हुए ज़रा इनको देखो तो ! सब कुछ झुक गया पर इनकी पलकें नहीं झुकतीं, वो तो चतुर्दिक नज़ारे को आँखों में समेट लेना चाहती हैं। जिन्हें आप बुढ़ियाई समझने की भूल कर रहे हैं वे जबानों की आँखों से अधिक चंचल और चपल हैं जो विना जीभ के भी अपनी वाचालता दिखा देती हैं, कितना कुछ कह जाती हैं कि सामने वाला हकवका ही रह जाता है।  

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