एक वर्णीय शब्द " माँ "
सुनील - माँ आज शाम को मैं अपने एक दोस्त के घर खेलने जाऊँ !
माँ - नहीं , कोई ज़रुरत नहीं कहीं जाने की , बैठ के परीक्षा की तैयारी करो।
सुनील - माँ pl जाने दो न !
माँ - अरे ! सुना नहीं ," तुम्हारी माँ हूँ ,मना कर रही हूँ।"
( एक लघु वार्त्तांश )
'माँ' शब्द का प्रयोग दो जगह हुआ है - एक तो माँ के द्वारा और एक बेटे के द्वारा; कुछ अंतर प्रतीत हुआ ?
ज़रा ध्यान दें बच्चे द्वारा पुकारे गए 'माँ' शब्द में उसके अंतर की भावना स्नेह से भरी है,कितना विश्वास कितनी आत्मीयता है, इसके इतर वही 'माँ' शब्द कितना छल-छद्मी होजाता है जब वो स्वयं को माँ कह कर गौरवान्वित कर बच्चे को यह अहसास कराती है कि मैं तुम्हारी माँ हूँ।
बच्चों द्वारा पुकारे गए किसी भी सम्बोधन में अपने पुत्र या पुत्री का माता के प्रति केवल प्यार भरा विश्वास है। लेकिन माँ के द्वारा अपने लिए बार-बार माँ शब्द का कहना घमंड और अभिमान से बोझिल लगता है।
बच्चे माँ कहें तो उसमें कितना प्यार और स्नेहामृत का भाव !! लेकिन माँ कहती है तो स्वयं को गौरवान्वित होने का भाव !!तब इस छल-छद्मी एकवर्णीय शब्द में प्रेम-प्यार स्नेह,अपनापन कुछ नहीं केवल और केवल बच्चों को उनका अपने प्रति कर्तव्य-बोध करने का भाव होता है।
जबकि माँ शब्द तो माँ के लिए केवल और केवल उसके कर्तव्य की ओर प्रेरित करने का बोध जैसा होता है। माँ शब्द सुनते ही माँ को अपना दायित्व याद आना चाहिए। माँ कह कर बच्चा स्वयं को 'सुरक्षा कवच' के घेरे में पाता है।
बच्चे के लिए उसकी हर आवश्यकता की वस्तु जब तक उसे प्राप्त नहीं होती महान चिंता जनक होती है,जिसकी निवृत्ति माँ पुकारने से ही होती है। कितना गूढ़ और गंभीर शब्द है उसके लिए ये माँ शब्द !! पर 'मैं तुम्हारी माँ हूँ', सुनते ही वो स्वयं को सुरक्षा-कवच से दूर एक बड़े चक्रव्यूह में फँसा पाता है।
ये ही अंतर है उक्त वर्णित वार्त्तांश में प्रयुक्त 'माँ' शब्द में !!
बड़ा ही दोहरे चरित्र वाला है ये ' माँ ' शब्द !!
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