ये बुढ़ियाई आँखें (हास्य-व्यंग्य)
ना ! ना ! इन्हें निरीह और बेचारी समझने की भूल मत करना।इन आँखों की तरलता में पूरी जीवन्तता है।इनकी जिजीविषा का आप अनुमान नहीं लगा सकते। इसलिए इनसे सावधान रहने की आवश्यकता है।इनके टिमटिमाते दीदों की नमी से भ्रमित नहीं होना है।इन भीगी आँखों की गहराई का आप अन्दाज़ा भी नहीं लगा सकते क्योंकि इनकी पहुँच कहाँ तक है,क्या चाहती हैं,सोच के बाहर है।कितनी गंभीरता में कितनी शरारत, कितनी जड़ता में कितनी व्याकुलता, कितनी शांति में कितनी उद्विग्नता है इनमें ! इन छटपटाती आँखों के विषय में जो भी, जितना भी कहा जाय कम है।क्रोध में, प्रेम में, नींद में, नशे में व्याकुल नम, भीगी आँखें किसी को भी, कहीं भी बहा ले जाने की क्षमता रखती हैं।तो जनाव, सच तो यह है कि आयु का बुढ़ापा इन आँखों को कभी बुढ़ियाने नहीं देता।इन आँखों के मसखरेपन को समझ ही नहीं सकते।इनकी पहुँच तो कवि की पहुँच से भी बाहर है।झुकी गर्दन, झुकी कमर, बेंत पकड़के काँपते हुए चलते हुए ज़रा इनको देखो तो ! सब कुछ झुक गया पर इनकी पलकें नहीं झुकतीं, वो तो चतुर्दिक नज़ारे को आँखों में समेट लेना चाहती हैं। जिन्हें आप बुढ़ियाई समझने की भूल कर रहे हैं वे जबानों की आँखों से अधिक चंचल और चपल हैं जो विना जीभ के भी अपनी वाचालता दिखा देती हैं, कितना कुछ कह जाती हैं कि सामने वाला हकवका ही रह जाता है।
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बहुत भावनाशील और मार्मिक रचना
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