एक कमज़ोर , विवश अवस्था
ऐसी भी --------
समझ नहीं आता कि कौन गलत
स्वयं खुद या कि सामने वाला !!
अपनी मजबूरी का दोष भी दूसरों में देखना ,
कभी उसी के सहज भाव से किये कार्यों की प्रशंसा करना,
बड़ी ही अन्यमनस्क स्थिति !!
समीक्षा की ,विचार किया ;
किन्तु पशोपेश दूर नहीं हुआ ,
ऊहापोह की स्थिति जस की तस !
क्यों ??
क्योंकि मानव स्वयं में कम ,और
सामने वाले में दोष अधिक देखना चाहता है।
किन्तु फिर भी स्थिति तो यथावत -----
गम्भीर विचारों के सागर में डूबता रहा ,
सामने वाले पर ही प्रश्न उठाता रहा ,लेकिन
नतीजा ------
किंकर्तव्यविमूढ़ !
आखिर में
खोजते खोजते जिस बिंदु पर पहुँचा तो -
घेराव में आया ईश्वर !
सोचा इस अवस्था तक पहुँचाने में यही एकमात्र काऱण है।
लो अब कल्लो बात !
जब कोई अनुकूल कारण नहीं मिला तो ,
पकड़ो इसे ही ,
पर सही पकड़ा ,सही पकड़ा ,
अन्ततः राह दिखाई उसने !
कोई गलत नहीं ,कोई दोषी नहीं ,
दोषी स्वयं खुद ही हैं हमारी सोच,हमारा स्वार्थ !
हमारे विचारों का संकुचित क्षेत्र ,
तब जाकर प्राप्त अन्यमनस्क अवस्था में सुधार आया ,
लगा हम स्वयं ही अपनी हर समस्या,कष्ट तकलीफ के कारण हैं।
आत्म निरीक्षण ,आत्म समीक्षा ,आत्म चिंतन बहुत आवश्यक है ;
अपनी इस अवस्था से मुक्ति पाने के लिए।।
सकारात्मक " सोच "
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मतलब सबकुछ उसी का किया धरा है
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