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Tuesday 20 July 2021


नारी के सन्दर्भ में प्रायः लिखती रही हूँ ,आज मन किया कि उसे भारतीय-संस्कृति का भी ध्यान दिलाया जाय तो कुछ शब्द लेखनी से बरबस निकल पड़े --


अरे कभी तो -----------------!!


अरे कभी तो पत्नी बन कर देखो ;

कितना आनंद है !

कभी एक मीठी मुस्कान के साथ -

नयन चार करके देखो ;

मौसम बदल जायेगा !

कभी एक कप कॉफी ऑफर कर देखो ;

अद्भुत दृश्य समक्ष होगा !

कभी डोर पर आने से पहले -

दरवाज़े पर खड़ी होकर तो देखो -

दिन-भर की थकान दूर होजायेगी !

कभी कोरोना काल के बचाआत्मसंवाद व के साथ -

एकाकी घूमने की इच्छा तो व्यक्त करके देखो -

खुला आसमान बाहें फैला कर तुम्हारा स्वागत करेगा !

कभी जन्म-दिवस पर गिफ्ट न देकर -

होटल में खाना न खाकर -

भारतीय शैली में भारतीय खाना खिला कर तो देखो ;

जीवन की सारी  शिकायतें दूर हो जाएँगी !

कभी सॉरी तो कभी प्लीज़ भी कह कर ,

कभी छोटी-बड़ी किसी भूल को ,

इग्नोर करके तो देखो ;

जीवन के रंग बदल जायेंगे !

 अरे कभी तो  --------------


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Monday 12 July 2021

 श्री कृष्ण : कुब्जा उद्धार -    ( 1 )


   एकबार भगवान् कृष्ण अपने भाई बलदाऊ के साथ कंस के यज्ञ में इस्तेमाल होने वाले धनुष के दर्शन के लिए मथुरा जारहे थे,तभी रास्ते में उन्हें भीनी- भीनी सुगन्ध आने लगी,कृष्ण जी ने कहा-दाऊ भैया ये खुशबू कहाँ से आरही है। देखो वो सामने स्त्री आरही है शायद उसके ही पास से आरही है,चलो देखते हैं।

   वो स्त्री,ही कुब्जा थी। कंस की दासी थी,वो हर-दिन कंस के शरीर पर चन्दन और अंगराग का लेप लगाती है  इसलिए कंस के राज भवन जा रही थी,.

  कृष्ण जी बोले -सुंदरी ! ये डलिया में चंदन और अंगराग लेकर कहाँ जा रही हो।इसे हमें देदो।  

  कुब्जा को ये सुन कर बहुत गुस्सा आया.बोली - तुम मेरा मज़ाक बना रहे हो,आज तक किसी ने मेरा ऐसा मज़ाक नहीं बनाया,हमेशा छुपते-छुपाते निकल जाती थी कि कोई मेरा मज़ाक न बनाये,लेकिन हमेशा कोई न कोई मिल ही जाता है पर इतना गन्दा मज़ाक किसी ने नहीं किया।

  श्री कृष्ण बोले-सुंदरी,मैं कोई मज़ाक नहीं बना रहा मैं तो वही कह रहा हूँ जो सच है। कुब्जा बोली-तुम्हें मैं सुन्दर दिखाई देती हूँ ? मैं कुरूप,कुबड़ी तुम्हें सुन्दर दिखाई देती हूँ। आज तक सबके व्यंग्य-बाण मैं सुन लेती हूँ क्योंकि ये सच है,मैं कुरूप हूँ,कुबड़ी हूँ पर ऐसा भद्दा उपहास किसीने नहीं किया। तुमने मेरे हृदय पर गहरे घाव किये हैं,मेरा हृदय छलनी कर दिया। 

    कृष्ण जी बोले-सुंदरी गुस्से में तो तुम और भी अधिक सुन्दर लगती हो। मैंने ने तो   वही कहा जो सच है। मैं किसी के शरीर को नहीं देखता, मैं तो उसकी आत्मा को देखता हूँ।मैंने तो तुम्हारी परम सुन्दर आत्मा देखी है।

  कुब्जा ने कहा- आत्मा को कौन देखता है। 

   भगवान् कहते हैं-मैं देखता हूँ। सुंदरता तो मनुष्य के कर्मों के अनुसार होती है। वृद्धावस्था में तो सुन्दर शरीर भी मुरझा जाता है और जब कर्मों का  समय बदलता है और पुण्य कर्म उदय होते हैं तो कुरूप शरीर भी कमल की तरह सुन्दर हो जाता है।  

   मैं देख रहा हूँ कि तुम्हें जिन कर्मों के कारण ये शरीर मिला है उन कर्मों के भी समाप्त होने का समय आगया है। तनिक स्थिर तो हो जाओ,उसकी लाठी लेते हैं और उसका हाथ पकड़ते हैं। 

  तभी कुब्जा कहती है,अरे अरे ये क्या कर रहे हो ये चंदन और अंगराग तो मैं महाराज कंस के लिए ले जारही थी अगर ये मिट्टी में मिल गया, तो वो मेरी गर्दन ही काट देंगे।

 भगवान कहते हैं कि देवी,जब मैंने तुम्हारा हाथ पकड़ लिया तो अब तुम्हारा कोई कुछ नहीं कर सकता। अब ये डलिया मुझे देदो।

  कुब्जा एकटक देखती है और कहती है ,तुम कौन हो ! लगता है ये चन्दन और अंगराग  वर्षों से तुम्हारे लिए ही ला रही हूँ। मेरी आत्मा के अंदर से आवाज़ आ रही है,पगली,क्या सोच रही है,अपना सर्वस्व इनके चरणों में समर्पित करदे। मैं नहीं जानती तुम कौन हो पर मन कर रहा है कि जिस चन्दन अंगराग से उस पापी कंस के शरीर पर लेप करती आरही हूँ वैसे ही आज तुम्हारे अंगों को इस से सुबासित करदूँ।

  श्री कृष्ण कहते हैं-फिर तुम्हारे महाराज क्या कहेंगे। 

  कुब्जा कहती है ,कौन महाराज, कैसा महाराज ! अब तो मुझे कुछ नहीं दिखाई दे रहा चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश दिखाई देरहा है। और उस  प्रकाश में मैं डूबती चली जा रही हूँ। जैसे मेरा अस्तित्व ही नहीं रहा। और वह गिरती है वैसे ही भगवान् ने उसके पैरों को अपने पैरों से दबाया और हाथ से उसकी ठोड़ी को उठाया,और कुब्जा को एक सुन्दर सजी-सजाई नव युवती का रूप प्रदान किया। 

  कुब्जा अपने आपको देखती है,दोनों हाथ फैलती है जैसे कुछ चाहती है,    

  भगवान् बोले ,बताओ तुम्हें अब क्या चाहिए ? कुब्जा कहती है तुम्हीं ने तो मुझमें  ये भावना जगाई है, लो ,ले लो,ये डलिया,अब तुम मेरी कुटिया में चलो तुम्हारा शरीर  चन्दन और अंगराग से सुबासित करूंगी। भगवन कहते हैं,अभी नहीं। तुम्हारा हम पर पिछले जन्म का ऋण है हमें वो भी चुकाना है। पिछले जन्म में जब हम राम अवतार में धरती पर आये थे तब तुमने हमारे लिए तपस्या की थी ,तपस्या का फल इस जन्म में अवश्य पूरा करेंगे।किन्तु अभी नहीं। हम अवश्य एक दिन तुम्हारी कुटिया में आकर तुम्हें सेवा का अवसर प्रदान  करेंगे ।

सुन कर शान्त होकर,कुब्जा कहती है-कोई बात नहीं। जब इतने वर्ष प्रतीक्षा की है तो कुछ दिन और अपनी कुटिया में आपके आने की राह देखूँगी। चरणों में झुकती है शीश नवाती है। 

       आशीर्वाद देते हुए भगवान् अदृश्य हो जाते हैं।

     





 



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परवरिश 

     बड़ा ही प्रचलित शब्द ! सामान्य सा अर्थ ! परन्तु अपने आप में कितना गंभीर अर्थ समेटे हुए है, अनभिज्ञ है जन मानस इसकी गंभीरता से ! 

    प्रायः लोग समझते हैं कि परवरिश का अर्थ है,पालन-पोषण यानि बच्चे का खाना-पीना,पढ़ाई-लिखाई,पहनावा।पर क्या यही बस काफी है ! जी नहीं ! बिलकुल ना काफी है। फिर उसके सामाजिक विकास का क्या होगा, पारिवारिक विकास का क्या होगा,व्यावहारिकता  कहाँ से सीखेगा, सम्बन्धों की महत्ता कहाँ से समझेगा।ध्यान रहे बालक की प्रथम पाठशाला घर ही है समय से उठना,बड़ों का अभिवादन करना भगवान का स्मरण करना,आदि सभी बाते तो माता-पिता के ही दायित्व में आती हैं।  जब तक बालक विद्यालय नहीं जाता तब तक शिष्टाचारगत बातें वह घर से ही सीखता है।जीवन की मज़बूत नींव घर में ही डाली जाती है।  

 सच तो ये है कि जबसे एकल परिवारों का चलन हुआ है और संयुक्त परिवारों का विघटन हुआ है, पूरी तरह से आज की पीढ़ी का ही मानसिक संतुलन डगमगा गया है, तो सोचिये उनकी सन्तान का क्या होगा, सोचिये ज़रा ! सबके अपने अनुभव भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। 

       असल में,मैं ऐसा मानती हूँ, कि जब से एकल परिवारों का चलन हुआ है,सबसे अधिक दोष समाज में इसी कारण  दिखाई दे रहे हैं। एक तो माता-पिता में स्वयं  मनोवैज्ञानिक जानकारी का अभाव और उसके ऊपर परिवार की सत्ता की बागडोर, मुखिया-पद की ज़िम्मेदारी,फिर काम-काजी होने की व्यस्तता ने तो आत्म-नियंत्रण का सर्वथा अभाव पैदा कर दिया है !! माता-पिता का पक्ष देखें तो पायेंगे कि कुछ तो हर समय अपने बच्चों में कमियाँ ही देखते रहते हैं उन्हें टोकते रहते हैं और इतना ही नहीं उनकी उन कमियों को औरों के समक्ष उजागर करने में नहीं चूकते।यहाँ पर ये जानना भी ज़रूरी है कि एक तरह से वे खुद की कमियों को ही छुपाते हैं।उनमें खुद संतुलन नहीं,खुद में आत्म-नियंत्रण नहीं,तो  अपनी तरफ से ध्यान डाइवर्ट करने के लिए वे ऐसा करते हैं।

     इसके विपरीत कुछ माता-पिता ऐसे होते हैं जो अपने बच्चों में गलतियाँ देखना-सुनना ही पसंद नहीं करते हैं।और अपने बच्चों के प्रति इतने पुसेसिव होते हैं कि वे स्वयं उन्हें छूट देते हैं फिर शिकायत आने पर वे भी उनकी कमियों को स्कूल पर या अपने पड़ोसी पर डाल कर अपनी ही कमियों को छुपाने का प्रयास करते हैं। पीड़ित कौन ! वे अबोध बच्चे जो सही-गलत से अनजान हैं, ना समझ होते हैं। वे या तो अंदर ही अंदर घुटते हैं या समय पाकर अपना गुवार कुछ भी उचित-अनुचित तरीके से निकालते हैं। ये ही माता-पिता स्वयं को परम कुशल,निपुण घोषित कर अपनी ही आने वाली पीड़ी के गुनहगार बनते हैं। बच्चों का भविष्य दाँव पर लगाते हैं।

      कमियों को छुपानेवाले माता-पिता तो बच्चों के सर्वाधिक घातक  व दुश्मन हैं। जैसे यदि बच्चों की कोई शिकायत स्कूल या पड़ोस से मिलती है,वह छोटी भी हो सकती है,जैसे गृह-कार्य,कक्षा-कार्य न करना या पड़ोस में लड़ाई-झगड़े की।और बड़ी तो कई तरह की हो सकती है जैसे क्लास बंक करना,घर से पैसे चुराना,या अन्य किसी प्रकार की।पर समाधान खोजने के बजाय या किसी से डिस्कस करने के बजाय बच्चे की कमी पर न तो उसे कुछ सीख देते हैं न कोई चेतावनी देते कि कभी आगे ऐसा नहीं करना। 

      यहाँ तक कि माता-पिता आपस में ही बच्चे की कमियों को छुपा कर चुप रह जाते हैं और सारा दोष स्कूल और  पड़ोस पर ही डाल कर बच्चे को खुली छूट दे देते हैं।ये  माता-पिता का निहित स्वार्थ ही तो है कि 'लोग क्या कहेंगे"। ऐसा ही एक और उदाहरण  जब माता-पिता ये कह कर मुक्त होजाते हैं कि "भोगेंगे खुद ही भविष्य में".कमाल के माता-पिता होते हैं वे ! सर्वाधिक स्वार्थ का घिनौना  रूप है ! पर अपने सुख-संतोष के लिये उन्हें जो अच्छा लगेगा वो वही करेंगे, परिणाम कुछ भी हो ।  

      सच तो ये है, संयुक्त परिवार में रह कर बालक का समुचित विकास होता है ,घर के छोटे-बड़ों के साथ,आने-जाने वालों के साथ रह कर अनजाने में ही वह कितना सीख जाता है पता भी नहीं चलता। आज के बच्चे बहुत समझदार हैं,लेकिन सही गलत की जानकारी उसे साथ रहने से ही आती है। माता-पिता जो काम किसी स्थिति में नहीं कर पाते हैं उन्हें पता भी नहीं चलता कि बच्चे ने ये सब कहाँ से और कब सीखा।अनावश्यक रोकना-टोकना गलत है लेकिन सीखने-सिखाने के लिए ये आवश्यक भी है। जिसके अभाव में बच्चा अनेक 'सीखों" से अनभिज्ञ रहता है।शेयर करना, जैसे शब्दों को नहीं जानते,अपनी वस्तु किसी को देना,अपनी समस्या किसी को बताने से सकुचाना जैसी कमी के होने से उनका विकास अवरुद्ध  होरहा है। कारण उन्हें वे अवसर ही नहीं मिलते,और इसके ऊपर  कोरोना ने तो परिवार में अपना बसेरा ही करलिया है। आइसोलेटेड ही होगया है उनका जीवन ! 

    एकल परिवार और संयुक्त परिवार दोनों की चुनिंदा अच्छाइयों को बच्चे के सम्पूर्ण विकास के लिए ध्यान में रखना होगा। जैसे कुछ दिन बच्चों को अकेले दादा-दादी,नाना-नानी,चाचा-चाची,मांमां-मांमी और मित्रों के घर जहाँ उनके हम उम्र बच्चे हों,भेजना चाहिए। पारस्परिक लड़ाई-झगड़े,छेड़-छाड़,हँसी-मज़ाक से बहुत कुछ स्वतः सीखने को मिलता है।उन्मुक्त वातावरण में रह कर वह स्वावलम्बन का भी पाठ सीखता है। 

   संयुक्त परिवार में तो अहर्निश जो बातें होती हैं उनमें हमेशा ही कुछ सीखने-सिखाने को मिलता है,जिन्हें हर कोई स्वीकार भी करता हैं,और "जीते" भी हैं उन सीखों को।पर  आज की पीढ़ी तो सर्वथा अनभिज्ञ है, उन सीखों से।और अगर कोई कुछ कहता है या समझाने की कोशिश भी करता है तो बड़े ही असहज होकर उन सीखों को हँस कर टाल देते हैं।    

    सँभलना होगा माता-पिता को। माता-पिता का पर्याय है:बलिदान ! सब-कुछ भूलना होगा,अपने पद की गरिमा के लिए।ये सब करना होगा। 


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Tuesday 15 June 2021

कथा : ध्रुव

ध्रुव  :  एक पौराणिक कथा       ( 2 )

      राजा मनु और सतरूपा के दो पुत्र थे,प्रियव्रत और उत्तानपाद। उत्तानपाद की दो पत्नियाँ थीं,सुरुचि और सुनीति।सुरुचि के पुत्र का नाम उत्तम और सुनीति के पुत्र नाम ध्रुव था। एक बार ध्रुव खेल कर आये तो वो पिता की गोदी में बैठने की कोशिश करने  लगे लेकिन तभी उनकी विमाता सुरुचि ने उन्हें डाँटा और कहा "इस गोदी में तुझे बैठने का अधिकार नहीं है,अगर तुझे इस गोदी में बैठना है तो जाकर भजन कर,और मेरा पुत्र बन तब तुझे इस गोदी में बैठने का अधिकार मिलेगा।"ध्रुव रोते हुए अपने माता के पास आये,और सारी व्यथा सुनाई। सुनीति ने ध्रुव को समझाया और कहा - बेटा,उन्होंने ठीक ही तो कहा है तुम्हें जो वस्तु चाहिए भगवान से माँगो वही  तुम पर कृपा करेंगे,तुम्हें प्रेम से बुलाएँगे,गोदी में बिठायेंगे और तुम्हारी परइ वस्तु भी तुम्हें प्रदान करेंगे। अब तुम वन में जाकर नारायण का भजन करो।  

       माँ की आज्ञा पाकर ध्रुव वन में भगवान की खोज के लिए निकल पड़े।रास्ते में उन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। लेकिन वे घबराये नहीं आगे बढ़ते ही रहे। जब वे वन के रास्ते में भटक रहे थे तभी उन्हें नारद जी मिले,ऋषि नारदजी ने देखा पाँच साल का बच्चा यहाँ क्या कर रहा है,जानने के लिए ध्रुव के पास आये और पूछा-बच्चे ! तुम यहाँ घने जंगल में क्यों घूम रहे हो ? ध्रुव ने कहा - मैं यहाँ नारायण की खोज पर निकला हूँ ,क्या आप मुझे उनका पता बतायेंगे। ऋषि नारद जी बोले - बेटा ये कार्य तो बहुत कठिन है , बड़े बड़े ऋषि-मुनि भी नहीं कर पाए , तुम अभी बहुत छोटे हो,नहीं कर पाओगे,अभी तुम घर जाओ,अगर माँ ने कुछ कह दिया तो उनकी बात का बुरा नहीं मानते। एकबार फिर से विचार करलो। ध्रुव-बोले ,महाराज आप मेरा सहयोग कर सकें तो करिये वार्ना मुझे सलाह मत दीजिये। मैं ये रास्ता नहीं छोड़ने वाला हूँ। ध्रुव का दृढ़ संकल्प सुन कर,ऋषि बहुत प्रभावित हुए। और उन्हें बिना ही दीक्षा माँगे अपना शिष्य बना लिया। 

         नारद जी ने कहा - पुत्र मैं तुम्हें एक मन्त्र देता हूँ,वृन्दावन जाकर इस मन्त्र का जप करो.और मन से श्री भगवान की सेवा करना,मंत्र है "ॐ नमः शिवाय" ध्रव जी वृन्दावन में मधुवन जाकर भगवान की साधना करने लगे। तपस्या में अनेक बाधाएँ  आयीं पर ध्रुव को कोई न  डिगा पायी।इंद्र देव ने भी बहुत तरह से उनकी तपस्या को रोकने का प्रयत्न किया क्योंकि उन्हें लगता था कि ध्रुव उनका सिंहासन प्राप्त करने के लिए तपस्या कर रहे हैं, लेकिन ध्रुव अचल अटल जप करते रहे। अन्न-जल भी छोड़ दिया ,आँधी-तूफ़ान किसी से बिना घबराये तप करते रहे।

   तब एक दिन ध्रुव को महसूस हुआ कि उनके अन्दर भगवान जी आगये हैं वो अचानक चीख उठे-गुरुदेव गुरुदेव ! आप कहाँ है ! तभी नारद जी प्रकट हुए बोले पुत्र क्या हुआ, ध्रुव बोले-गुरु जी, मुझे ऐसा लग रहा है जैसे वासुदेव मेरे अंदर हैं,नारद जी बोले-तो फिर तुम्हारी साधना पूरी हुई ,भगवान् के दर्शन तो होगये, अब घर जाओ। ध्रुव बोले - नहीं ,मुझे तो उनको अपने सामने देखना है,मैं तब-तक घर नहीं जाऊँगा जब-तक मुझे मेरे प्रश्नों के जबाव भगवान् से नहींमिल जाते।नारद जी ने कहा - पुत्र ये तो बहुत कठिन है। इसके लिए तो और भी कठिन  तपस्या करनी होगी। ध्रुव बोले - मैं सब करूँगा भगवान् से मिलने के लिए मैं सब करूँगा,आप बताइये तो सही। नारद ही ने कहा इसके लिए तुम्हे सांस रोकनी होगी ध्रुब बोले-वो कैसे !नारद जी ने कहा-ॐ बोल कर लम्बी सांस खींचनी होगी। ध्रुव बोले - मैं करूँगा,और ध्रुव ने अपनी वो तपस्या शुरू करदी। उनकी तपस्या शुरू करते ही प्रकृति के चर-अचर,जीब जंतु,पशु पक्षी सभी स्थिर होगये सबकी जान मुश्किल में।

       सभी देवता भागे-भागे ब्रह्मा जी के पास रक्षा के लिए पहुँचे सारी  व्यथा सुनाई, ब्रह्मा  जी बोले- ये काम तो वासुदेव का है वहीँ चलते हैं और जाकर भगवान् को सारी परेशानी बताई,अब भगवान् को चिंता हुई पहुँचे बालक ध्रुव के पास। तभी ध्रुव को पुनः अपने अंदर श्री वासुदेव महसूस हुए,पुकारने लगे वासुदेव वासुदेव आप कहाँ हैं !वासुदेव बोले - पुत्र मैं यहाँ हूँ ,तुमने पुकारा मैं आगया ,देख कर ध्रुव स्तम्भित हुए, भगवान बोले - पुत्र अब तुम साँस लो ध्रुव के सांस लेते ही सब प्रकृति प्राणियों  में चेतना आगयी जीवन का संचार होगया। भगवान बोले-अब तो तुम्हें मेरे दर्शन होगये, तुम घर जासकते हो। ध्रुव ने कहा - नहीं,अभी मैं घर नहीं जाऊँगा पहले आपको मेरे प्रश्नों का जबाव देना होगा। प्रश्न ? कौनसे प्रश्न , पूछो ,क्या पूछना है.--

 

आप बताइये "मेरी छोटी माँ मुझे अपना पुत्र क्यों नहीं मानतीं ?

बताइये - वो मेरी माँ को दासी क्यों मानती हैं ?

बताइये - उन्होंने मुझे मेरे पिता की गोदी से क्यों उतारा ?

बताइये - मेरे पिता ने ऐसा करने से उन्हें क्यों नहीं रोका ?

भगवांन बोले-अरे अरे अरे इतने सारे प्रश्न !बताओ,तुम्हें सबसे पहले किस प्रश्न का उत्तर चाहिए ? 

ध्रुव ने कहा - उन्होंने मुझे अपनी गोदी से क्यों उतारा ?

भगवान् ने कहा- अच्छा मेरे पास आओ,और पास आओ और भगवान् ने अपनी गोदी में बिठालिया,उनके सर पर प्यार से हाथ फेरा,और पूछा - और किस प्रश्न का उत्तर चाहिए ?

ध्रुव ने कहा - वासुदेव ! अब मुझे कुछ नहीं चाहिए,अब मुझे सब मिलगया। 

भगवान् ने कहा- तो अब घर जाओ। 

ध्रुव ने कहा - अब मुझे घर नहीं जाना।

भगवान् ने समझाया - पुत्र अभी तुम्हें माता-पिता की सेवा करनी है। समाज की सेवा करनी है। फिर संसार की सेवा करनी है। और उसके बाद वो ऊपर देखो आकाश में मैं तुम्हें वहाँ पर पहुँचाऊँगा जहाँ इतनी छोटी उम्र में कोई नहीं पहुँचा। अब चलें घर।तभी नारद प्रकट हुए और बोले- मैं ध्रुव को घर छोड़के आता हूँ। भगवान् बोले- नहीं महर्षि-हम भी चलेंगे ध्रुव को छोड़ने। उसका बाद ध्रुव ने पहले भगवान् के आदेश का पालन किया।और उसके बाद भगवान ने ध्रुव को अपने परम धाम पहुँचाया।  

 इस प्रकार ध्रुव ने अपने संकल्प से भगवान् को प्राप्त किया। और भगवद्धाम पहुँचे।  

 

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Sunday 23 May 2021

सुलझ गयी --------


      सात दशकों से उलझी औत्सुक्य भरी अनबूझ पहेली को यकायक एक मनहूस खबर ने एक ही झटके में सुलझा दिया। 

       दिसम्बर 16.12.2020 उसके दिवंगत होने से तसवीर एकदम दर्पण की तरह  साफ़ होगयी। लगा जैसे समुद्र की गहराई को चीर कर सारे रहस्य उजागर होगये हों। सब कुछ चल-चित्र की भाँति स्पष्ट होगया।उम्र के सात दशक तक इस पहेली ने मन को उलझाए रखा था;अनेकों प्रश्न, क्या सत्य,क्या असत्य। उलझनों के जाल में फँसा मन उम्र के दशकों पार करता रहा और देखता रहा अपने बिखरते हुए  परिवार को ; पर अब  सब कुछ साफ़ !! कोई प्रश्न नहीं,कोई जिज्ञासा नहीं,कोई पहेली नहीं ! सुन्दर चेहरे में छुपी विद्रूपता अचानक स्पष्टतः गोचर होगयी।

         लगा ये संपत्ति,दौलत इंसान को इतना गिरा देती है कि वो भूल जाता है कि वो कितना जघन्य पाप करने जारहा है।इस दौलत का नशा माँ को भी इतना स्तर हीन कार्य करने पर विवश कर देता है कि वो भी ये भूल जाती है कि वो इन्सान है, भगवान नहीं है।  विश्वास न होने पर भी करना पड़ा अब ! सुना था पापा को उनकी सौतेली माँ ने कुछ खिला दिया था जिसका उनके मनो-मस्तिष्क पर ऐसा  प्रभाव पड़ा कि उन्होंने काम पर भी जाना  बंद कर दिया था। माँ ने बताया था मेरी छोटी बहिन को भी अफ़ीम खिलवा कर सुलवा देतीं थीं।

      ये सब कही सुनी बातें थीं। पर माँ को तो दादी ने ही कहा था कि तीन-तीन लड़कियों का बोझ हम कैसे संभालेंगे। जब ये बात नानाजी ने सुनी तो उन्होंने माँ सहित हम सबको अपने  पास ही बुला लिया।(कुछ समय बीतने पर माँ ने भाई को जन्म दिया) पर हमारा परिवार बुरी तरह बिखर गया। लेकिन अब लगता है जैसे भगवान की मानो ये भी कोई सुनियोजित योजना थी,क्योंकि नानाजी ने माँ और हम चारों बच्चों को पढ़ा लिखा कर इस योग्य बना दिया कि आज हम पास्ट भूल गए। पापा की दशा और स्थिति पर सब्र किया और कर्मों का भोग्य मान कर नानाजी के दिशा-निर्देश पर आगे बढ़ते गए। 

             तभी नानाजी ने सख़्त आदेश देकर कहा था कि भाई को दादी के घर कभी नहीं भेजना है जिसको माँ ने दृढ़ता-पूर्वक मजबूती से निभाया भी। लेकिन विधि का विधान ; आगे चल कर निभाना मुश्किल होगया और माँ की इच्छा न होते हुए भी भाई का दादी के घर जाने का क्रम शुरू होगया। अच्छे से संपर्क साधा गया,विवाह आदि अवसरों पर भी नियमतः जाने-आने का क्रम चलता रहा।भाई ने तो यह भी लिख कर दे दिया कि हमें आपकी प्रॉपर्टी से भी कुछ नहीं चाहिए।

    और इस सबका परिणाम यह हुआ कि हमारा इकलौता छोटा भाई १६ दिसंबर २०२० को हम सबको छोड़ कर चला गया। यानि कि जब तक नाना जी का आशीर्वाद रहा,भाई का परिवार खूब फला-फूला लेकिन उनका आशीर्वाद का समय पूरा हुआ और लगा भाई का भी समय पूरा होगया। स्तब्ध परिवार बिलखता हुआ रह गया। लेकिन अब सारे प्रश्नों के उत्तर साफ़ होगये,तस्वीर शीशे की तरह बिल्कुल स्पष्ट होगयी।उपरोक्त विवरण की प्रमाणिकता के लिए इतना और काफी है कि भाई के जाने के बाद आज तक उधर से चाचा-बुआ किसी का भी परिवार के लिए एक सान्त्वना सन्देश नहीं मिला।  जीवन-चक्र रुक गया। अब कुछ भी न कहने को बचा,न सुनने को बचा,न सोचने को रहा। 

                  मानती हूँ जो होना है जैसे होना होता है वो सब हमारे कर्मों के अनुसार ही होता है ;पर भगवान किस प्रकार किसी को माध्यम बना कर कुछ संकेत अवश्य देते हैं। इस पर भी विचार करना आवश्यक है।संभव है कोई इसे मेरी कपोल-कल्पना समझे पर जो सात दशकों में हुआ वो उल्लेखनीय अवश्य है। 

                                     " जय श्री राम "


                                                             


 

एक सपना जो टूट कर पूरा हुआ ----------


         बी.एड करने की उठा-पटक मन में चल रही थी,बनस्थली विद्यापीठ में आवेदन किया था। यही डर था,पता नहीं कॉल आएगी या नहीं ;सपनों में खोई रहती थी। न जाने कहाँ कहाँ मन भागता रहता,उसी काल में ये रचना का जन्म हुआ जो प्रत्यक्ष है --- 

 उछल-कूद के बाद अवस्था वो  आयी ;

 करने  में भी  शर्म  , शर्म अब  शर्मायी।

 

 वाणी होगयी मौन ,नहीं कुछ कह पाती;पर 

 चपल नेत्र की चंचलता ,सब कह जाती। 


अधरों की मुस्कान , निमंत्रण देती है ; 

पर नेत्र मिलन होते ही ,धोखा देती हैं। 


लुका छिपी का खेल ;  चल रहा आँखों में ;

     (उठो-उठो आवाज़ लगायी मम्मी ने )

"अब जाकर  सपने कर पूरे बनस्थली में।" 

       और इस प्रकार स्वप्नान्तर से दूर माँसी-मौसाजी के संरक्षण में मेरा बी.एड. का -

सपना साकार हुआ। 

                          धन्यवाद मांसी-मोँसाजी  


                                  ---------------

      


 



  

Tuesday 4 May 2021

अप्रत्याशित अनूठी "साईं कृपा"----------

घर में थोड़ी समस्या तो चल रही थी पर समयान्तर जो अनुभव हुआ;उसका अनुमान बिलकुल न था। विवरण है इस प्रकार --

    किसी भी पूजा-स्थल से हमारा कोई विरोध नहीं है तथापि हम लोग प्रायः हनुमान- मन्दिर,राम-मन्दिर और शिव-मन्दिर ही जाते रहे हैं।अचानक एक घटना से लगा जैसे "साँई" हमारे इष्ट बन कर कुछ दिन के लिए घर आये और हमारी बेटी को  आशीर्वाद देकर अन्तर्धान  होगये।मेरे पति को किसी अज्ञात प्रेरणा ने साँई मन्दिर जाने के लिए प्रेरित किया;आश्चर्य तो हुआ पर उनकी आस्था और श्रद्धा का प्रश्न था।यदा-कदा मैं भी,बहू-बच्चे भी साथ जाने लगे।प्रति वृहस्पति वार को दोपहर मन्दिर जाना,भोग लगाना और घर आकर श्रद्धा पूर्वक प्रसाद पाना,सबको वितरित कर भोजन करना यह क्रम कुछ समय नियमतः चलता रहा।

      मन्दिर की परम्परा के अनुसार भक्तों के द्वारा चढ़ाई गयी चुनरी समय-समय पर भक्तों को ही बाँट दी जाती थीं।भक्तों की संख्या अधिक होती थी चुनरी कम होती थीं  इसलिए भाग्यशाली भक्त ही प्राप्त करपाते थे,मेरे पति उन्हीं भाग्यशालियों में से एक थे।पुजारी जी ने स्वयं लाकर उन्हें चुनरी दी।लाकर पति ने मुझे दिखाई,बहुत ख़ुशी हुई बेटी  के विवाह की तैयारी भी चल रही थी,सोचा ये उसी के लिए आयी है,विदा इसी से करेंगे।ऐसा किया भी।इत्तिफ़ाक़ से बिटिया को रिटायरमेंट में स्मृति-चिह्न के रूप में साँई की ही तसवीर मिली थी,अन्य विदाई के सामान के साथ भेंट स्वरुप उसे भी देकर बेटी का विदाई-समारोह सम्पन्न किया। 

      कुछ समय ये मन्दिर जाने का क्रम और चला पर कब ये नियम समाप्त होगया नहीं पता।सब कुछ सामान्य था किन्तु जब बेटी पुनः घर आयी और उसने जो बताया तब भगवान् की कृपा का रहस्य ज्ञात हुआ।उसने बताया कि उसके ससुराल में सब साँई के अनन्य भक्त हैं और उन पर अटूट श्रद्धा और विश्वास है।

    लगा भगवान् भी अपनी कृपा के लिए कोई माध्यम चुनते हैं।इस बार साँई को माध्यम  बनाकर बिटिया का घर बसाया।शतशः नमन के साथ भगवान् को धन्यवाद अर्पित किया। 


                                          " जय साँई राम "

                                           " ॐ साँई राम "

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