श्री कृष्ण : कुब्जा उद्धार
एकबार भगवान् कृष्ण अपने भाई बलदाऊ के साथ कंस के यज्ञ में इस्तेमाल होने वाले धनुष के दर्शन के लिए मथुरा जारहे थे,तभी रास्ते में उन्हें भीनी-भीनी सुगन्ध आने लगी,कृष्ण जी ने कहा-दाऊ भैया, ये खुशबू कहाँ से आरही है। देखो वो सामने स्त्री आरही है, शायद उसके ही पास से आरही है,चलो देखते हैं।
वो स्त्री,ही कुब्जा थी। कंस की दासी थी,वो हर-दिन कंस के शरीर पर चन्दन और अंगराग का लेप लगाती है इसलिए कंस के राज भवन जा रही थी।
कृष्ण जी बोले -सुंदरी ! ये डलिया में चंदन और अंगराग लेकर कहाँ जा रही हो।इसे हमें देदो।
कुब्जा को ये सुन कर बहुत गुस्सा आया.बोली - तुम मेरा मज़ाक बना रहे हो,आज तक किसी ने मेरा ऐसा मज़ाक नहीं बनाया,हमेशा छुपते-छुपाते निकल जाती थी कि कोई मेरा मज़ाक न बनाये,लेकिन हमेशा कोई न कोई मिल ही जाता है पर इतना गन्दा मज़ाक किसी ने नहीं किया।
श्री कृष्ण बोले-सुंदरी,मैं कोई मज़ाक नहीं बना रहा मैं तो वही कह रहा हूँ जो सच है। कुब्जा बोली-तुम्हें मैं सुन्दर दिखाई देती हूँ ? मैं कुरूप,कुबड़ी तुम्हें सुन्दर दिखाई देती हूँ। आज तक सबके व्यंग्य-बाण मैं सुन लेती हूँ क्योंकि ये सच है,मैं कुरूप हूँ,कुबड़ी हूँ पर ऐसा भद्दा उपहास किसीने नहीं किया। तुमने मेरे हृदय पर गहरे घाव किये हैं,मेरा हृदय छलनी कर दिया।
कृष्ण जी बोले-सुंदरी गुस्से में तो तुम और भी अधिक सुन्दर लगती हो। मैंने तो वही कहा जो सच है। मैं किसी के शरीर को नहीं देखता, मैं तो उसकी आत्मा को देखता हूँ।मैंने तो तुम्हारी परम सुन्दर आत्मा देखी है।
कुब्जा ने कहा- आत्मा को कौन देखता है।
भगवान् कहते हैं-मैं देखता हूँ। सुंदरता तो मनुष्य के कर्मों के अनुसार होती है। वृद्धावस्था में तो सुन्दर शरीर भी मुरझा जाता है और जब कर्मों का समय बदलता है और पुण्य कर्म उदय होते हैं तो कुरूप शरीर भी कमल की तरह सुन्दर हो जाता है।मैं देख रहा हूँ कि तुम्हें जिन कर्मों के कारण ये शरीर मिला है उन कर्मों के भी समाप्त होने का समय आगया है। तनिक स्थिर तो हो जाओ,उसकी लाठी लेते हैं और उसका हाथ पकड़ते हैं।
तभी कुब्जा कहती है,अरे अरे ये क्या कर रहे हो ! ये चंदन और अंगराग तो मैं महाराज कंस के लिए ले जारही थी अगर ये मिट्टी में मिल गया, तो वो मेरी गर्दन ही काट देंगे।
भगवान कहते हैं कि देवी,जब मैंने तुम्हारा हाथ पकड़ लिया तो अब तुम्हारा कोई कुछ नहीं कर सकता। अब ये डलिया मुझे देदो।
कुब्जा एकटक देखती है और कहती है ,तुम कौन हो ! लगता है ये चन्दन और अंगराग वर्षों से तुम्हारे लिए ही ला रही हूँ। मेरी आत्मा के अंदर से आवाज़ आ रही है,पगली,क्या सोच रही है,अपना सर्वस्व इनके चरणों में समर्पित करदे। मैं नहीं जानती तुम कौन हो पर मन कर रहा है कि जिस चन्दन अंगराग से उस पापी कंस के शरीर पर लेप करती आरही हूँ वैसे ही आज तुम्हारे अंगों को इस से सुबासित करदूँ।
श्री कृष्ण कहते हैं-फिर तुम्हारे महाराज क्या कहेंगे।
कुब्जा कहती है ,कौन महाराज, कैसा महाराज ! अब तो मुझे कुछ नहीं दिखाई दे रहा चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश दिखाई देरहा है। और उस प्रकाश में मैं डूबती चली जा रही हूँ। जैसे मेरा अस्तित्व ही नहीं रहा। और वह गिरती है वैसे ही भगवान् ने उसके पैरों को अपने पैरों से दबाया और हाथ से उसकी ठोड़ी को उठाया,और कुब्जा को एक सुन्दर सजी-सजाई नव युवती का रूप प्रदान किया।
कुब्जा अपने आपको देखती है,दोनों हाथ फैलाती है जैसे कुछ चाहती है।
भगवान् बोले ,बताओ तुम्हें अब क्या चाहिए ? कुब्जा कहती है तुम्हीं ने तो मुझमें ये भावना जगाई है, लो ,ले लो,ये डलिया,अब तुम मेरी कुटिया में चलो तुम्हारा शरीर चन्दन और अंगराग से सुबासित करूंगी। भगवान कहते हैं,अभी नहीं। तुम्हारा हम पर पिछले जन्म का ऋण है हमें वो भी चुकाना है। पिछले जन्म में जब हम राम अवतार में धरती पर आये थे तब तुमने हमारे लिए तपस्या की थी, तपस्या का फल इस जन्म में अवश्य पूरा करेंगे।किन्तु अभी नहीं। हम अवश्य एक दिन तुम्हारी कुटिया में आकर तुम्हें सेवा का अवसर प्रदान करेंगे ।
सुन कर शान्त होकर,कुब्जा कहती है-कोई बात नहीं। जब इतने वर्ष प्रतीक्षा की है तो कुछ दिन और अपनी कुटिया में आपके आने की राह देखूँगी। चरणों में झुकती है शीश नवाती है।
आशीर्वाद देते हुए भगवान् अदृश्य हो जाते हैं।
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