परवरिश
बड़ा ही प्रचलित शब्द ! सामान्य सा अर्थ ! परन्तु अपने आप में कितना गंभीर अर्थ समेटे हुए है, अनभिज्ञ है जन मानस इसकी गंभीरता से !
प्रायः लोग समझते हैं कि परवरिश का अर्थ है,पालन-पोषण यानि बच्चे का खाना-पीना,पढ़ाई-लिखाई,पहनावा।पर क्या यही बस काफी है ! जी नहीं ! बिलकुल ना काफी है। फिर उसके सामाजिक विकास का क्या होगा, पारिवारिक विकास का क्या होगा,व्यावहारिकता कहाँ से सीखेगा, सम्बन्धों की महत्ता कहाँ से समझेगा।ध्यान रहे बालक की प्रथम पाठशाला घर ही है समय से उठना,बड़ों का अभिवादन करना भगवान का स्मरण करना,आदि सभी बातें तो माता-पिता के ही दायित्व में आती हैं। जब तक बालक विद्यालय नहीं जाता तब तक शिष्टाचारगत बातें वह घर से ही सीखता है।जीवन की मज़बूत नींव घर में ही डाली जाती है।
सच तो ये है कि जबसे एकल परिवारों का चलन हुआ है और संयुक्त परिवारों का विघटन हुआ है, पूरी तरह से आज की पीढ़ी का ही मानसिक संतुलन डगमगा गया है, तो सोचिये उनकी सन्तान का क्या होगा, सोचिये ज़रा ! सबके अपने अनुभव भिन्न-भिन्न हो सकते हैं।
असल में,मैं ऐसा मानती हूँ, कि जब से एकल परिवारों का चलन हुआ है,सबसे अधिक दोष समाज में इसी कारण दिखाई दे रहे हैं। एक तो माता-पिता में स्वयं मनोवैज्ञानिक जानकारी का अभाव और उसके ऊपर परिवार की सत्ता की बागडोर, मुखिया-पद की ज़िम्मेदारी,फिर काम-काजी होने की व्यस्तता ने तो आत्म-नियंत्रण का सर्वथा अभाव पैदा कर दिया है !! माता-पिता का पक्ष देखें तो पायेंगे कि कुछ तो हर समय अपने बच्चों में कमियाँ ही देखते रहते हैं उन्हें टोकते रहते हैं और इतना ही नहीं उनकी उन कमियों को औरों के समक्ष उजागर करने में नहीं चूकते।यहाँ पर ये जानना भी ज़रूरी है कि एक तरह से वे खुद की कमियों को ही छुपाते हैं।उनमें खुद संतुलन नहीं,खुद में आत्म-नियंत्रण नहीं,तो अपनी तरफ से ध्यान डाइवर्ट करने के लिए वे ऐसा करते हैं।
इसके विपरीत कुछ माता-पिता ऐसे होते हैं जो अपने बच्चों में गलतियाँ देखना-सुनना ही पसंद नहीं करते हैं।और अपने बच्चों के प्रति इतने पुसेसिव होते हैं कि वे स्वयं उन्हें छूट देते हैं फिर शिकायत आने पर वे भी उनकी कमियों को स्कूल पर या अपने पड़ोसी पर डाल कर अपनी ही कमियों को छुपाने का प्रयास करते हैं। पीड़ित कौन ! वे अबोध बच्चे जो सही-गलत से अनजान हैं, ना समझ होते हैं। वे या तो अंदर ही अंदर घुटते हैं या समय पाकर अपना गुवार कुछ भी उचित-अनुचित तरीके से निकालते हैं। ये ही माता-पिता स्वयं को परम कुशल,निपुण घोषित कर अपनी ही आने वाली पीड़ी के गुनहगार बनते हैं। बच्चों का भविष्य दाँव पर लगाते हैं।
कमियों को छुपानेवाले माता-पिता तो बच्चों के सर्वाधिक घातक व दुश्मन हैं। जैसे यदि बच्चों की कोई शिकायत स्कूल या पड़ोस से मिलती है,वह छोटी भी हो सकती है,जैसे गृह-कार्य,कक्षा-कार्य न करना या पड़ोस में लड़ाई-झगड़े की।और बड़ी तो कई तरह की हो सकती है जैसे क्लास बंक करना,घर से पैसे चुराना,या अन्य किसी प्रकार की।पर समाधान खोजने के बजाय या किसी से डिस्कस करने के बजाय बच्चे की कमी पर न तो उसे कुछ सीख देते हैं न कोई चेतावनी देते कि कभी आगे ऐसा नहीं करना।
यहाँ तक कि माता-पिता आपस में ही बच्चे की कमियों को छुपा कर चुप रह जाते हैं और सारा दोष स्कूल और पड़ोस पर ही डाल कर बच्चे को खुली छूट दे देते हैं।ये माता-पिता का निहित स्वार्थ ही तो है कि 'लोग क्या कहेंगे"। ऐसा ही एक और उदाहरण जब माता-पिता ये कह कर मुक्त होजाते हैं कि "भोगेंगे खुद ही भविष्य में". कमाल के माता-पिता होते हैं वे ! सर्वाधिक स्वार्थ का घिनौना रूप है ! पर अपने सुख-संतोष के लिये उन्हें जो अच्छा लगेगा वो वही करेंगे, परिणाम कुछ भी हो ।
सच तो ये है, संयुक्त परिवार में रह कर बालक का समुचित विकास होता है ,घर के छोटे-बड़ों के साथ,आने-जाने वालों के साथ रह कर अनजाने में ही वह कितना सीख जाता है पता भी नहीं चलता। आज के बच्चे बहुत समझदार हैं,लेकिन सही गलत की जानकारी उसे साथ रहने से ही आती है। माता-पिता जो काम किसी स्थिति में नहीं कर पाते हैं उन्हें पता भी नहीं चलता कि बच्चे ने ये सब कहाँ से और कब सीखा।अनावश्यक रोकना-टोकना गलत है लेकिन सीखने-सिखाने के लिए ये आवश्यक भी है। जिसके अभाव में बच्चा अनेक 'सीखों" से अनभिज्ञ रहता है।शेयर करना, जैसे शब्दों को नहीं जानते,अपनी वस्तु किसी को देना,अपनी समस्या किसी को बताने से सकुचाना जैसी कमी के होने से उनका विकास अवरुद्ध होरहा है। कारण उन्हें वे अवसर ही नहीं मिलते,और इसके ऊपर कोरोना ने तो परिवार में अपना बसेरा ही करलिया है। आइसोलेटेड ही होगया है उनका जीवन !
एकल परिवार और संयुक्त परिवार दोनों की चुनिंदा अच्छाइयों को बच्चे के सम्पूर्ण विकास के लिए ध्यान में रखना होगा। जैसे कुछ दिन बच्चों को अकेले दादा-दादी,नाना-नानी,चाचा-चाची,मांमां-मांमी और मित्रों के घर जहाँ उनके हम उम्र बच्चे हों,भेजना चाहिए। पारस्परिक लड़ाई-झगड़े,छेड़-छाड़,हँसी-मज़ाक से बहुत कुछ स्वतः सीखने को मिलता है।उन्मुक्त वातावरण में रह कर वह स्वावलम्बन का भी पाठ सीखता है।
संयुक्त परिवार में तो अहर्निश जो बातें होती हैं उनमें हमेशा ही कुछ सीखने-सिखाने को मिलता है,जिन्हें हर कोई स्वीकार भी करता हैं,और "जीते" भी हैं उन सीखों को।पर आज की पीढ़ी तो सर्वथा अनभिज्ञ है, उन सीखों से।और अगर कोई कुछ कहता है या समझाने की कोशिश भी करता है तो बड़े ही असहज होकर उन सीखों को हँस कर टाल देते हैं।
सँभलना होगा माता-पिता को। माता-पिता का पर्याय है:बलिदान ! सब-कुछ भूलना होगा,अपने पद की गरिमा के लिए।ये सब करना होगा।
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