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Monday 26 January 2015

सब्स्टीट्यूशन की देवी ( godess of substitution ) ---एक हास्य रचना---


सब्सीट्यूशन की देवी  ( एक हास्य रचना )

स्कूल में पढ़ाते हुए मुझे " सब्स्टीटूशन " का काम मिला, इस काम को करते हुए मेरा जो अनुभव रहा उसे मैंने अपनी इस रचना में व्यक्त किया है -----

न  मैं किसी की   मित्र थी , न कोई  मेरा  मित्र  था
काम ही कुछ ऐसा था कि कोई खास बना ही न था
संकोची   स्वभाव था  सबके प्रति  मान  था
कम  बोलना  ही अपना कुछ स्वभाव   था

प्रायः इस स्वभाव का मिला परिणाम अच्छा ही
पर अब इस स्वभाव का मिला परिणाम उल्टाही
मिला मुझको जबसे इस सब्स्टीट्यूशन का काम
स्वभाव  पर  लगने  लगे  मेरे    इल्ज़ाम

अक्सर  ही एक  दो  होजाती  हैं  गोल
मुझ पर आजाती  है मुसीबत  बेमोल

कोई   कहता  दो क्यों   लगाये ,कोई कहता  कल मत देना
कोई  कहता " फेवर " होता  है ,कोई  कहता मैं  " रेग्युलर " हूँ "why i should be punished "

इस पर भी कुछ तो कुछ नहीं  कहते  ,जिनकी हूँ मैं बड़ी आभारी
पर    कुछ   तो   मार  जाते   हैं  अपनी       मुस्कान  की  कटारी

फिर  भी मिलता है सहयोग इसी से हूँ  आभारी
तभी      निभा पाती हूँ   इतनी बड़ी  ज़िम्मेदारी।

        धन्यवाद  " सब्स्टीट्यूशन की देवी "

                                --------
   

माँ तो केवल माँ होती है


माँ तो केवल माँ होती है --

अनेक बार ऐसा सुना जाता है पर मैंने यह स्वयं देखा है। एक महिला अपनी बेटी के विवाह में उसकी दादी को उसके अशुभ होने की दुहाई देकर विवाह के किसी भी कार्य-क्रम में सम्मिलित होने से रोकती रही। दादी माँ का
आशीर्वाद लेने के लिये बेटी चीखती-चिल्लाती रही पर उसकी माँ ने उसके दादा के न रहने के कारण दादी  से दूर ही रखा। यह रचना एक ऐसे ही दृश्य से प्रेरित होकर लिखी गयी थी----

जीवन के झंझावातों में ,हर मुश्किल और हर तूफाँ में ,
माँ दुर्गा का रूप वहन कर ,हर दुर्गम पथ पर चल देती
                                  तब भी क्या वह --------------        
                                  माँ तो केवल माँ होती है ------

बचपन से वृद्धावस्था तक ,कभी न थकती कभी न दुखती
माँ पत्नी और भगिनी बनकर ,दिन और रात  दुआएँ  देती -----
                                  फिर भी क्या वह -------------- 
                                  माँ तो केवल माँ होती है ----

न वह विधवा न वह सधवा न वह अबला न वह सबला
इकली हो या दुकली हो पर वह तो केवल माँ होती है
                                मंगल की इस मूर्तिमयी इकली माता को ,
                                नमन ,शत नमन   औ '       अभिनन्दन,ऐसी माँ तो माँ होती है।
                                                    ---------







  

Saturday 20 December 2014

आशीर्वाद पितरों का -----

 पितृ-सत्ता होती है,उनका आशीर्वाद भी होता है। लोगों को ऐसा विश्वास है,पर अगर  सचमुच इसका अहसास प्रत्यक्ष हो तो  क्या कहें !मुझे  हुआ है। कोई कह सकता है कि भ्रम हुआ होगा,मैं ये सुनने को तैयार हूँ। पर जो मैंने देखा और महसूस किया  उसे सबके सामने रखना भी मैं आवश्यक समझती हूँ।
                                               (१ )
          हुआ यूँ एक बार मेरे बेटे की परीक्षाएँ चल रही थी ,हमें दिल्ली में हनुमान मंदिर जाना था।मैं,मेरे पति और मेरी बेटी ही मंदिर के लिए रवाना होगये। बेटे के  खाना आदि का प्रबंध कर दिया। मंदिर से आते-आते शाम होगयी। जब घर पहुंचे तो बेटे अनुपम ने दरवाज़ा खोला ,अंदर जाकर एक विचित्र ही दृश्य देखा ,एक प्रौढ़ महिला घर  में बैठी हुई थी। हमें देखते ही खड़ी हुई और बोली बेटा इसे डांटना नहीं ,मेरी वजह से इसने खाना भी नहीं खाया और मेरा ही ध्यान रखता रहा , पढ़ ही रहा है अब मैं चलती हूँ ,पर बेटा इसे डांटना नहीं।मुझे किसी ने बताया था कि यहां कोई किराये का मकान है पर वैसा कुछ नहीं है खैर थक गयी थी इसलिए बैठी रह गयी।
          उसके जाने के बाद सोचा अनुपम नासमझ तो  है नहीं ,एक अनजान को कैसे दरवाज़ा खोल कर सहारा दे सकता है। उससे पूछा भी कि क्यों घुसा लिया,कोई ग़लत इंसान हो सकता था पर उसके पास कोई उचित जवाब नहीं था।बहुत सोच विचारने के बाद उस महिला की बातें याद कर  समझ आया कि ये महिला कोई और नहीं शायद बेटे की दादी ही थीं  परीक्षाओं में व्यस्त पोते को अकेला नहीं देख  सकीं।और उसका सहारा बन कर आगयीं थी।           
                                                     (२ )      ---------------------------
एक और  इसी तरह की घटना ! पितृ-पक्ष चल रहा था। बेटा अनुपम पड़ौस से ही पंडितजी को बुलाने गया था। पंडितजी ने कहा तुम चलो बेटा मैं  आरहा हूँ। अनुपम बापस आरहा था कि साइड की सड़क से एक बुज़र्ग से व्यक्ति आये  पास  आकर बोले -बेटा चलो ,कहाँ जाना है ,मैं साइकल से  छोड़ देता हूँ। अनुपम ने कहा -नहीं,अंकल मैं चला जाऊंगा।  फिर भी उन्होंने बार-बार उससे छोड़ने के लिए कहा और उसके मना  पर फिर वह दूसरी दिशा में चले गए। अनुपम सोचते -सोचते आ रहाथा तभी उसने पीछे मुड़  कर देखा  वहां कोई नहीं था ,दूर तक कोई  नहीं दिखाई दिया। जब श्राद्ध कार्य समाप्त हुआ ,पंडितजी खाना खाकर चले गए तब बेटे ने  सारा वृत्तान्त बताया। समझते देर नहीं लगी कि यह उसके दादाजी ही थे। लगा खाना खाने ज़रूर आये होंगे। सोच कर बहुत अच्छा लगा। विश्वास हुआ कि हमारे परिवार पर पित्रों का आशीर्वाद है।
       
                                                             --------------------------     


Wednesday 17 December 2014

रिटायरमेंट के बाद २००४


रिटायरमेंट के बाद -----२००४ में

चलूँ अब घर की ओर चलूँ,

विद्यालय की बाग़ - डोर को छोड़ ,

करूँ आराम,चलूँ

जीवन के इस सांध्यकाल को खुल कर जीऊँ ,

ना कोई झंझट ना कोई बंधन

चाहे कहीं जाना , चाहे कभी आना

दौड़ - भाग की बहुत,करूँ आराम -

चलूँ अब ,

सीखा बहुत , सिखाया बहुत ,

बच्चों में जी लगाया बहुत ,

मम्मी - पापा खूब सुना ,

अब है इच्छा कुछ और ,

सुनूँ मैं दादी- नानी ,

चलूँ अब ,

खूब परिश्रम किया ,सफलता पाई ,

जीवन के झंझावातों को भूल और निश्चिन्त ,

चलूँ कुछ पूजा - पाठ करूँ,

चलूँ अब घर की ओर चलूँ ,

दादी-नानी सुनने की भी चाह होगई पूरी

जीवन की अब कोई इच्छा  नहीं  अधूरी। 

                 

बाल -मनो विज्ञान


बाल - मनोविज्ञान

विषय बहुत ही संवेदनशील है। समाज की सारी  समस्याएँ एक तरफ और आज के बालकों की समस्याएं एक तरफ ! नित्य ही  होने वाली अकाल्पनिक ,असंभावित और ह्रदय-विदारक कितनी घटनाओं का सामना अबोध और अज्ञानी बालक कर रहा है। निःसंदेह इसका कारण  समाज में  सामाजिक मनोवैज्ञानिक ज्ञान का अभाव है। हर रोज़ होने वाली कितनी घटनाओं में से कोई एक घटना एक बड़ी बहस को जन्म दे देती है लेकिन परिणाम ??!!

अधिकतर ये घटनाएँ बाल्यकाल और किशोरावस्था से जुड़ी होती हैं ---
अभी कुछ   दिनों की ही बात है कक्षा दो के छात्र ने आत्म-हत्या की थी। इस तरह की घटनाएँ ये सोचने पर मजबूर करती हैं कि ये सब क्यों ? इतनी उत्तेजना इतना आक्रोश  उद्वेग कहाँ से उन्हें ऐसा करने के लिए उद्वेलित कर रहा है। कौन उकसा रहा है इन मासूम और अबोध बालकों को ? कौन ज़िम्मेदार है इसका ? बात-बात में एक दूसरे का गला काटना ,नींद की गोली खाना ,किसी पर तेजाब डालदेना , लाइज़ोल पीलेना आदि  !! बच्चे किसके हैं ?क्या पाठशाला में जन्मे हैं?क्या पड़ोस में जन्मे हैं?क्या सड़क पर पैदा हुए है ? क्या बीच समाज में कहीं पैदा हुए हैं?जबाव हाँ और ना दोनों में होसकता है। लेकिन जन्म दिया किसने है ?सीधा जबाव है माता पिता ने। जिनके मुँह से प्रायः यही सुनने में आता है कि बच्चों के लिए ही तो जी रहे हैं उनके लिए सारी सुविधाएँ उपलब्ध करदीं हैं हमें भी तो अपनी ज़िन्दगी जीने का हक़ है। बड़े होकर वो अपनी ज़िन्दगी जीएंगे। बहुत ही ग़ैर ज़म्मेदाराना और अनपेक्षित उत्तर है। माता-पिता का पर्याय यदि बलिदान है  तो उक्त सारे तर्क असंगत और बेबुनियाद ही होंगे।

यहाँ महसूस होता है कि हमारे यहाँ सचमुच बाल - मनोविज्ञान के ज्ञान का अभाव है।उनकी मनःस्थिति को समझने की पर्याप्त मात्रा  में आवश्यकता है। क्या हम जानते नहीं हैं कि आज का बालक पहले के बालक की अपेक्षा अधिक समझदार है ज़रूरत है उसे सही दिशा देने की. इसका अभाव ही उससे अवांछनीय अवाँछनीय कार्य करा रहा है।  यह दिशा उसे उसकी प्रारम्भिक पाठशाला यानि घर से  मिलनी चाहिए।जिसमें बालक के बौद्धिक - स्तर को उसकी वास्तविक आयु के साथ नहीं जोड़ना चाहिए। उसकी आयु के हिसाब से उसके अंदर भी झाँकें। आवश्यक नहीं कि वह अंदर से भी वैसा ही हो। किसी का बौद्धिक स्तर उम्र से कम, किसी का उम्र के समान और किसी का उम्र से अधिक हो सकता है। 

बालक के साथ मित्र भी बनें लेकिन संयमित सीमा में । दायरा अवश्य बनाये रखने की आवश्यकता है। चाहे जब अपनी सुविधा के अनुसार कठोर होजाना और चाहे जब व्यवहार में लचीला होजाना ही बालक के लिए मुश्किलें पैदा करता है। समझना चाहिए वह पहले के बालकों की अपेक्षा अधिक समझदार है, लेकिन है वह बालक ही, जिसकी बुद्धि अभी अपरिपक़्व  है। उसके अपने मित्र भी हैं , स्कूल भी है ,अपना एक विशेष पर्यावरण हैं अपने अध्यापक हैं इन सब के बीच वह कितना सहज और असहज है इसका ज्ञान होना  माता-पिता का ही दायित्व है। बालक के चहरे की प्रत्येक रेखा पर सूक्ष्म नज़र होने की आवश्यकता है। कोई नहीं चाहता कि उनके बच्चे के साथ कोई दुर्घटना हो तो ध्यान रहे "नज़र हटी और दुर्घटना घटी। "

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Tuesday 18 November 2014

स्वास्थ्य और सुरक्षा

            भारत के लिए यह विषय आज इतना गंभीर हैं कि स्वच्छता  के विषय पर ध्यान  दिलाने के लिए उत्साहवर्धन हेतु ध्यान आकर्षित किया जा रहा है। विषय साधारण है पर  ध्यान न देने के कारण असाधारण और समस्यापरक बन गया है।  सुस्वास्थ्य के लिए आवश्यक है स्वच्छता। सुरक्षा के लिए आवश्यक है शौचालय। और इन दोनों की ही अवहेलना का परिणाम सामने है। बीमारियां,यानि नए-नए कीटाणुओं से पैदा होने वाले कितने रोग,दिमागी रोग, टी.बी. ,मलेरिया न जाने और रोग दिन प्रति दिन पनप रहे हैं कारण केवल अस्वस्छता।सफाईकी ओर कोई ध्यान न देना। अस्पताल,पाठशाला,कार्यालय, यानि कोई भी ऐसी जगह नहीं जहाँ व्यक्ति बिना नाक -भौं सकोड़े चला जाय। मजबूरी में जाना और बीमारी समेट  कर लाना।यत्र - तत्र शौचालयों की सर्वत्र यही दशा है।

    इसके अतिरिक्त इनका अभाव इससे भी अधिक गंभीर विषय है, घरों में  शौचालयों का न  होना। यह समस्या गाँवों  तक ही सीमित नहीं बड़े-बड़े शहरों के आस-पास के पिछड़े इलाकों में,शहरों में बसी झुग्गी -झोंपड़ियों में रहने वालों के लिए शौचालयों का अभाव देखा जा सकता है।मोबाइल टॉयलेट भी देखने में आते हैं किन्तु उनकी देख-भाल ,साफ -सफाई की ओर सर्वत्र उपेक्षा होती है। ऐसी स्थिति में  महिलाएँ शौच के लिए कहाँ जाएँ। प्रातः सूर्योदय होने से पूर्व भ्रमण के लिए निकले लोगों को खूब देखने  को मिल जायेगा कि महिलाएँ ,पुरुष गंदे नालों के पानी का प्रयोग कर अपनी प्रातः कालीन क्रिया संपन्न कर अनेक प्रकार की बीमारियों को निमंत्रण देते हैं। इसी सम्बन्ध में एक और बहुत ही शोचनीय और दुःखद परिणाम सुनाई और दिखाई दे जाता है।

    महिलाओं की मजबूरी और भ्रष्ट लोगों का दुराचरण अपनी चरम सीमा पार कर देता है। वे उनकी हविश का शिकार बनती हैं,उनकी दरिंदगी का निशाना बनती हैं -और परिणाम केवल शोर-शराव,बेज्जती,अपमान।और बस खत्म किस्सा! हर महिला  की सुरक्षा, सुस्वास्थ्य ,सम्मान को ध्यान में रखना है। हर घर में एक शौचालय की व्यवस्था होनी अनिवार्य है। डी.टी.ए.के कार्य को हमसब को मिलकर  बढ़ावा देना है।देश का विकास शौचालय की ओर ध्यान देने से होगा।हाल  ही में जो गाँव गोद लेने का कार्य प्रारम्भ हुआ है उसमें प्रगति सबसे पहले शौचालयों की वृद्धि से होनी चाहिए। डी.टी.ए.इस सम्बद्ध में सराहनीय कार्य कर रहा है। उसने ओड़िसा और महाराष्ट्र में यह कार्य शुरू कर दिया है और  २४००० शौचालय बनाने का संकल्प  लिया है ।
यदि शौचालय है तो सुरक्षा और सुस्वास्थ्य कोई समस्या ही नहीं रहेगी। 


You can bring about the change in the lives of millions of kids, thereby showing your support for the Domex Initiative. All you need to do is “click” on the “Contribute Tab” on www.domex.in and Domex will contribute Rs.5 on your behalf to eradicate open defecation, thereby helping kids like Babli live a dignified life.

Monday 17 November 2014

कर्मयोगी "माँ"


कर्मयोगी "माँ "



कर्मयोगी " माँ "


निर्पेक्ष भाव से जुड़े सम्बन्ध को सार्थक करती हुई माँ ,माँ नहीं वह केवल कर्म-योगी होती है। आजतक जो पढ़ा, समझा और देखा उसे शब्द-मुक्ताओं में उतारने का प्रयास है ये मेरी रचना -

चेहरे पर तेज !
माथे पर चमकती लाल बिंदिया !
अति जीर्ण - शीर्ण लाल रंग की साड़ी में लिपटी ,
छोटे कद की वह -
नित्य प्रातः घर आती , कपड़े  धोती और -
उसी उमंग के साथ चली जाती।

एक दिन जिज्ञासु मन ने -
अनायास ही उसे रोक कर परिचय सम्बन्धी
अनेक प्रश्न कर डाले -

सुनकर ठिठकी वह ,
वहीं पास में पड़े पत्थर पर  बैठ   गयी ,
थैले  से बोतल निकाली , पानी पीया ,
बड़ी  ही आश्वस्त होकर बोली -

"साहब , मजदूरी करती हूँ ,
पास की कॉलोनी में घर- घर जाकर -
कहीं साफ-सफाई का
तो कहीं खाना बनाने का
तो कहीं किसी की मालिश करने का काम करलेती हूँ।
साहबजी, दिन भर में जो मिल जाता है,घर चल जाता है।"

घर में कौन-कौन है ?

"जुआरी  पति है,कोई काम नहीं करता। 
अब बीमार भी है,
एक बेटा है,
कार दुर्घटना में दोनों पैर गँवा चुका है
एक पोता है,
उसे स्कूल में डाला है,कुछ अच्छा करले।"
ईश्वर बड़ा दयालु है साहबजी,भूखा नहीं सुलाता।

सो तो है !
पर बाई सा,इतना सब कैसे करती हो! आराम कब करती हो?

"पति को जीवित रखना है,सुहाग है मेरा।
बेटे का इलाज कराना  है.जिगर का टुकड़ा है।
पोते को अच्छा नागरिक बनाना है।
वंशज है मेरा। "

मेरा क्या है ! और गहरी साँस लेकर चुप होगई।

सोचा -छोटे कदवाली का दिल कितना बड़ा !
न चेहरे पर थकान न कोई हताशा ! और

राम- राम कह कर -
योगिनी वह माँ
उसी उत्साह के साथ ,बढ़ गयी अपने "कर्म-पथ" पर--

मैं देखता रहा उसे दूर
पथरीली - काँटों  भरी राह पर जाते हुए जिसका कोई -----


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