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Thursday 5 February 2015

मनोगत भाव

                                                            (  1 )

भगवान ने हमें दो बहुत खूबसूरत वरदान दिए ,जिनकी परवरिश में उनका पूरा सहयोग रहा ,  उनकी खशबू फैली सर्वत्र। लेकिन हमारी ओर से ही एक कमी रहगयी ,हमने उन्हें प्यार दिया ,उचित संरक्षण दिया ,लेकिन उसमें जिस लगाव एवं आसक्ति की आवश्यकता होती है ,उसे नहीं दिखा  पाये। लगाव और आसक्ति व्यक्ति को प्रायः कमज़ोर बनाती है इसलिए मैं इसे बुरा  भी नहीं मानती।पर कमी तो है ही। वैसे ये  कमी हमें अधिक महसूस होती है वह भी वृद्धावस्था में ,पर ये  कमी उनके जीवन के विकास में कभी बाधा  नहीं बनी। पर ऐसा भी नहीं है कि उन्हें कभी महसूस ही नहीं हुई हो। हमेशा होती रहेगी। ये माता -पिता का त्याग है जो कभी उनकी उन्नति में बाधा न बना, न बनेगा। इसीलिये वे पूर्णतया आत्मनिर्भर हैं। शुभकामनाओं के साथ --माँ



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                                                                (  2   )

कभी -कभी आप बहुत याद आते हैं, आप पर बहुत प्यार आता है,क्योंकि साथ रहते हुए तो हमेशा आपके    अकारण क्रोध से भय-भीत रहती थी।हमेशा मानसिक तनाव में ही रहती थी। आपके जाने के बाद तनाव ख़त्म और अब केवल और केवल आपको याद करती हूँ। साथ रहते हुए तो आपके प्रति सहानुभूति, दया और आदर  के ही भाव थे और जब-तब तनातनी ही रहती थी। भर-पूर  प्यार को तो आपने कभी मौका ही नहीं दिया। साथ-साथ घूमे -फिरे पर हम दोनों ही एक प्यार का अभाव महसूस करते रहे। आपके जाने के बाद आपकी यादों को ही प्यार करती हूँ।



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                                                                 (  3  )

कहते हैं कि व्यक्ति की आखिरी इच्छा ज़रूर पूरी करनी चाहिये।अब बताइए मेरी इच्छा कौन पूरी करेगा। आपने तो अपनी सारी इच्छाएँ पूरी करालीं लेकिन मैं ? मैंने चाहा था बच्चों की पोस्टिंग आने वाली है उनके जाने के बाद मैं आपके साथ रहकर आपके मन का खाना खिलाऊँगी तो आपका स्वास्थ्य ठीक हो जायेगा।लेकिन वैसा नहीं हुआ। क्योंकि किसी का घर में रहना,आना,दो घंटे भी टिकना पसंद नहीं था। बच्चे आपकी परमिशन लेकर आये थे ,पर आपको कुछ दिन बाद ही मुश्किल होने लगी थी लेकिन बच्चे हमारे हैं क्या करते और आप चले गए। किसी का कोई कुसूर नहीं था ,समय प्रबल था  अच्छा हुआ। पर अब आप बताइये कि मेरी इच्छा कैसे पूरी हो सकती है। आपने हमेशा अपनी इच्छा पूरी कीं और जब नहीं होपाईं तो चल दिए।भाग्य मेरा  !!!

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                                                             (  ४  )


एक वर्ष बहुत दुःखी रही ,बहुत सन्तप्त रही,अपने आप से बहुत ग्लानि होती रही। पर  अचानक उत्पन्न ऊर्जा में सब कुछ भस्म होगया। वह पल जिसे मैं घातक समझ रही थी ,मेरी ज़िदगी का प्रेरक पल था ,ईश्वरीय सत्ता से प्रेरित था। इसे मैंने एक वर्ष व्यतीत होजाने पर स्वयं महसूस किया। आज मैं खुश हूँ, संतुष्ट हूँ,शान्त हूँ,मन में  शिकवा ,शिकायत नहीं है।  यह ऊर्जा ईश्वरीय प्रेरणा ही थी। हे ईश्वर !आपको कोटिशः प्रणाम !!


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                                                               ( ५  )

मैंने तो चाहा था कि मैं नॉएडा में ही रहूँ और जब-तब जैसे आपके साथ आती - जाती रहती थी वैसे ही बच्चों के पास जाती रहूँगी। लेकिन वैसा हो न पाया। बहुत से सवालों का सामना करना पड़ रहा था। आप तो चले गए ,समय तो मुझे व्यतीत करना था ,वह भी नहीं पता कितना !फिर सोचा मेरे वहाँ अकेले रहने से  अनुपम भी तो चिंतित  रहता ही होगा ,वह कुछ कहे या न कहे साथ रहने का आग्रह तो करता ही था। इसलिए सबकुछ भुला कर बच्चों के साथ ही रहने का निश्चय किया और यही ठीक भी लगा। अपनी इच्छाएँ समाप्त करो ,क्या ,क्यों बंद करो और जो है उसी में खुश रहो। बस इसके बाद तो दुःख काहेका !बल्किअनुपमके चेहरे पर जो संतोष दिखाई देता है मैं उसी में संतुष्ट हो लेती हूँ। फिर आपकी बहू और ईलू का अच्छा साथ है। ईलू बहुत अच्छी बातें कर हँसाती रहती है। अरमान ज़्यादा न रखो तो तकलीफ किस बात की !बच्चों के साथ खुश हूँ। समय व्यतीत करने में भी कोई मुश्किल नहीं होती। आपको और भगवान को याद कर कट ही रहा है,कब तक यह तो पता नहीं।

                                                     
                                                                (  6  )                        
                                                           

सुहाग के वो आखिरी पल जो  ---जुलाई २०१५।

 
    ज़िंदगी के सर्वाधिक दुखदायी थे ह्रदय- विदारक और कष्ट -पूर्ण थे ,आँखों के सामने का  वह अविस्मरणीय दृश्य ,जिसे भोगा जो विचलित करनेवाला अत्यधिक  शोक पूर्ण था , बहुत याद आता है। न जाने क्या था उन पलों में कैसा संतोष था उन दुखद पलों में भी, जो यादगार बनगया -
     चाय के दो - तीन घूँट पिलाना और -
     बीच - बीच में बिस्किट खिलाना उसके बाद
     एक सेंड विच का पीस खिलाना और फिर उनकी डाँट -
    "खिलाना है तो बिस्किट खिलादो नहीं तो रहने दो "
आखिरी उनके ये मूल्यवान शब्द ,जिसके बाद उनकी वह आवाज़ सदा - सदा के लिए शून्य में विलीन होगयी वे मर्म भेदी पल बहुत याद आते हैं पर एक संतोष के साथ !! न जाने कौनसा सन्तोष !!!
और महसूस होता है जैसे इन पलों में मेरा उनसे साक्षात्कार हो रहा है। शायद यही सन्तोष है।

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Monday 2 February 2015

कसक

कसक:आन्तरिक - पीड़ा 

मैंने सदा आपका साथ दिया अपने घरवालों  भुला दिया। अपने बच्चों का भी उतना ही साथ दिया जो बहुत आवश्यक था। हमारी बेटी के साथ जो हुआ नियति का ही विधान था। उस समय को याद करती हूँ तो आज भी घबरा जाती हूँ। आप केवल चिन्ता करते थे , गुस्सा करते थे और मानसिक रूप से अस्वस्थ हुए चले जारहे थे उसको भी लेकर परेशान। हमारी बेटी का परेशान चेहरा जिस पर न जाने कितने प्रश्न। ऊपर से वह वकील जोअपना ही नहीं रहा था,हमारी तो सुन ही नहीं रहा था।और हमारी बेटी उसे पूरा पैसा दे रही थी ,उसके  परिवारके लिए भी खाना अरेन्ज करतीं ,जूस लेकर पिलाती।घर से शिकंजी या कुछ और ठंडा लेकर जाती। पूरा भरोसा करती कि सब कुछ ठीक होगा। लेकिन नतीजा ज़ीरो मिला।
      सारी उलझन का असर था कि सब परेशान और ऊपर से  आप तो आप मैं भी अपनी बेटी के साथ  अनुचित और असंगत व्यवहार कर जाती थी जिसका दुःख आज भी मुझे है। कभी आप,कभी बेटी का चेहरा !! बिलकुल अकेली पड़गयी थी मैं। तब किसी तरह बेटी को समझा-बुझाकर नेट पर लड़का ढूँढने का आग्रह किया और ईश्वर ने दया की ,उसे इस काम के लिए आज्ञा दी।सब काम को उसने कितने संतोष व धैर्य से किया आपको कोई मतलब नहीं था। विवाह होने तक आप इस पूरे मुकाम से ऐसे छिटक कर दूर रहे थे जैसे किसी और का काम होरहा है।
    उस समय मैं बेटी को समझाती रहती ,प्रोत्साहित करती उसे सहारा देती क्योंकि काम तो सारा उसे ही करना था। कभी सिटी मजिस्ट्रेट के दफ्तर, कभी नोटरी दफ्तर ,कभी कुण्डली मिलवाने पंडित के पास ,कभी  नॉएडा कोर्ट में पेपर सबमिट करने ,कभी आर्य -समाज मंदिर में ,कभी गिफ्ट देने के लिए सामान खरीदने  लिए जाना ,कभी कैटरर फिक्स करना ,इन सब कामों में आप कहाँ थे। आभारी रहूँगी आपकी कि नकारात्मकता तो दिखाई किन्तु विरोधी बनकर सामने खड़े नहीं हुए ,आगे बढ़ने से रोका नहीं। आपने  खड़े होकर परिवार के सम्मान को बनाये रखा उस पर  आंच नहीं आने दी। और काम सकुशल संपन्न हुआ।
     
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Monday 26 January 2015

सब्स्टीट्यूशन की देवी ( godess of substitution ) ---एक हास्य रचना---


सब्सीट्यूशन की देवी  ( एक हास्य रचना )

स्कूल में पढ़ाते हुए मुझे " सब्स्टीटूशन " का काम मिला, इस काम को करते हुए मेरा जो अनुभव रहा उसे मैंने अपनी इस रचना में व्यक्त किया है -----

न  मैं किसी की   मित्र थी , न कोई  मेरा  मित्र  था
काम ही कुछ ऐसा था कि कोई खास बना ही न था
संकोची   स्वभाव था  सबके प्रति  मान  था
कम  बोलना  ही अपना कुछ स्वभाव   था

प्रायः इस स्वभाव का मिला परिणाम अच्छा ही
पर अब इस स्वभाव का मिला परिणाम उल्टाही
मिला मुझको जबसे इस सब्स्टीट्यूशन का काम
स्वभाव  पर  लगने  लगे  मेरे    इल्ज़ाम

अक्सर  ही एक  दो  होजाती  हैं  गोल
मुझ पर आजाती  है मुसीबत  बेमोल

कोई   कहता  दो क्यों   लगाये ,कोई कहता  कल मत देना
कोई  कहता " फेवर " होता  है ,कोई  कहता मैं  " रेग्युलर " हूँ "why i should be punished "

इस पर भी कुछ तो कुछ नहीं  कहते  ,जिनकी हूँ मैं बड़ी आभारी
पर    कुछ   तो   मार  जाते   हैं  अपनी       मुस्कान  की  कटारी

फिर  भी मिलता है सहयोग इसी से हूँ  आभारी
तभी      निभा पाती हूँ   इतनी बड़ी  ज़िम्मेदारी।

        धन्यवाद  " सब्स्टीट्यूशन की देवी "

                                --------
   

माँ तो केवल माँ होती है


माँ तो केवल माँ होती है --

अनेक बार ऐसा सुना जाता है पर मैंने यह स्वयं देखा है। एक महिला अपनी बेटी के विवाह में उसकी दादी को उसके अशुभ होने की दुहाई देकर विवाह के किसी भी कार्य-क्रम में सम्मिलित होने से रोकती रही। दादी माँ का
आशीर्वाद लेने के लिये बेटी चीखती-चिल्लाती रही पर उसकी माँ ने उसके दादा के न रहने के कारण दादी  से दूर ही रखा। यह रचना एक ऐसे ही दृश्य से प्रेरित होकर लिखी गयी थी----

जीवन के झंझावातों में ,हर मुश्किल और हर तूफाँ में ,
माँ दुर्गा का रूप वहन कर ,हर दुर्गम पथ पर चल देती
                                  तब भी क्या वह --------------        
                                  माँ तो केवल माँ होती है ------

बचपन से वृद्धावस्था तक ,कभी न थकती कभी न दुखती
माँ पत्नी और भगिनी बनकर ,दिन और रात  दुआएँ  देती -----
                                  फिर भी क्या वह -------------- 
                                  माँ तो केवल माँ होती है ----

न वह विधवा न वह सधवा न वह अबला न वह सबला
इकली हो या दुकली हो पर वह तो केवल माँ होती है
                                मंगल की इस मूर्तिमयी इकली माता को ,
                                नमन ,शत नमन   औ '       अभिनन्दन,ऐसी माँ तो माँ होती है।
                                                    ---------







  

Saturday 20 December 2014

आशीर्वाद पितरों का -----

 पितृ-सत्ता होती है,उनका आशीर्वाद भी होता है। लोगों को ऐसा विश्वास है,पर अगर  सचमुच इसका अहसास प्रत्यक्ष हो तो  क्या कहें !मुझे  हुआ है। कोई कह सकता है कि भ्रम हुआ होगा,मैं ये सुनने को तैयार हूँ। पर जो मैंने देखा और महसूस किया  उसे सबके सामने रखना भी मैं आवश्यक समझती हूँ।
                                               (१ )
          हुआ यूँ एक बार मेरे बेटे की परीक्षाएँ चल रही थी ,हमें दिल्ली में हनुमान मंदिर जाना था।मैं,मेरे पति और मेरी बेटी ही मंदिर के लिए रवाना होगये। बेटे के  खाना आदि का प्रबंध कर दिया। मंदिर से आते-आते शाम होगयी। जब घर पहुंचे तो बेटे अनुपम ने दरवाज़ा खोला ,अंदर जाकर एक विचित्र ही दृश्य देखा ,एक प्रौढ़ महिला घर  में बैठी हुई थी। हमें देखते ही खड़ी हुई और बोली बेटा इसे डांटना नहीं ,मेरी वजह से इसने खाना भी नहीं खाया और मेरा ही ध्यान रखता रहा , पढ़ ही रहा है अब मैं चलती हूँ ,पर बेटा इसे डांटना नहीं।मुझे किसी ने बताया था कि यहां कोई किराये का मकान है पर वैसा कुछ नहीं है खैर थक गयी थी इसलिए बैठी रह गयी।
          उसके जाने के बाद सोचा अनुपम नासमझ तो  है नहीं ,एक अनजान को कैसे दरवाज़ा खोल कर सहारा दे सकता है। उससे पूछा भी कि क्यों घुसा लिया,कोई ग़लत इंसान हो सकता था पर उसके पास कोई उचित जवाब नहीं था।बहुत सोच विचारने के बाद उस महिला की बातें याद कर  समझ आया कि ये महिला कोई और नहीं शायद बेटे की दादी ही थीं  परीक्षाओं में व्यस्त पोते को अकेला नहीं देख  सकीं।और उसका सहारा बन कर आगयीं थी।           
                                                     (२ )      ---------------------------
एक और  इसी तरह की घटना ! पितृ-पक्ष चल रहा था। बेटा अनुपम पड़ौस से ही पंडितजी को बुलाने गया था। पंडितजी ने कहा तुम चलो बेटा मैं  आरहा हूँ। अनुपम बापस आरहा था कि साइड की सड़क से एक बुज़र्ग से व्यक्ति आये  पास  आकर बोले -बेटा चलो ,कहाँ जाना है ,मैं साइकल से  छोड़ देता हूँ। अनुपम ने कहा -नहीं,अंकल मैं चला जाऊंगा।  फिर भी उन्होंने बार-बार उससे छोड़ने के लिए कहा और उसके मना  पर फिर वह दूसरी दिशा में चले गए। अनुपम सोचते -सोचते आ रहाथा तभी उसने पीछे मुड़  कर देखा  वहां कोई नहीं था ,दूर तक कोई  नहीं दिखाई दिया। जब श्राद्ध कार्य समाप्त हुआ ,पंडितजी खाना खाकर चले गए तब बेटे ने  सारा वृत्तान्त बताया। समझते देर नहीं लगी कि यह उसके दादाजी ही थे। लगा खाना खाने ज़रूर आये होंगे। सोच कर बहुत अच्छा लगा। विश्वास हुआ कि हमारे परिवार पर पित्रों का आशीर्वाद है।
       
                                                             --------------------------     


Wednesday 17 December 2014

रिटायरमेंट के बाद २००४


रिटायरमेंट के बाद -----२००४ में

चलूँ अब घर की ओर चलूँ,

विद्यालय की बाग़ - डोर को छोड़ ,

करूँ आराम,चलूँ

जीवन के इस सांध्यकाल को खुल कर जीऊँ ,

ना कोई झंझट ना कोई बंधन

चाहे कहीं जाना , चाहे कभी आना

दौड़ - भाग की बहुत,करूँ आराम -

चलूँ अब ,

सीखा बहुत , सिखाया बहुत ,

बच्चों में जी लगाया बहुत ,

मम्मी - पापा खूब सुना ,

अब है इच्छा कुछ और ,

सुनूँ मैं दादी- नानी ,

चलूँ अब ,

खूब परिश्रम किया ,सफलता पाई ,

जीवन के झंझावातों को भूल और निश्चिन्त ,

चलूँ कुछ पूजा - पाठ करूँ,

चलूँ अब घर की ओर चलूँ ,

दादी-नानी सुनने की भी चाह होगई पूरी

जीवन की अब कोई इच्छा  नहीं  अधूरी। 

                 

बाल -मनो विज्ञान


बाल - मनोविज्ञान

विषय बहुत ही संवेदनशील है। समाज की सारी  समस्याएँ एक तरफ और आज के बालकों की समस्याएं एक तरफ ! नित्य ही  होने वाली अकाल्पनिक ,असंभावित और ह्रदय-विदारक कितनी घटनाओं का सामना अबोध और अज्ञानी बालक कर रहा है। निःसंदेह इसका कारण  समाज में  सामाजिक मनोवैज्ञानिक ज्ञान का अभाव है। हर रोज़ होने वाली कितनी घटनाओं में से कोई एक घटना एक बड़ी बहस को जन्म दे देती है लेकिन परिणाम ??!!

अधिकतर ये घटनाएँ बाल्यकाल और किशोरावस्था से जुड़ी होती हैं ---
अभी कुछ   दिनों की ही बात है कक्षा दो के छात्र ने आत्म-हत्या की थी। इस तरह की घटनाएँ ये सोचने पर मजबूर करती हैं कि ये सब क्यों ? इतनी उत्तेजना इतना आक्रोश  उद्वेग कहाँ से उन्हें ऐसा करने के लिए उद्वेलित कर रहा है। कौन उकसा रहा है इन मासूम और अबोध बालकों को ? कौन ज़िम्मेदार है इसका ? बात-बात में एक दूसरे का गला काटना ,नींद की गोली खाना ,किसी पर तेजाब डालदेना , लाइज़ोल पीलेना आदि  !! बच्चे किसके हैं ?क्या पाठशाला में जन्मे हैं?क्या पड़ोस में जन्मे हैं?क्या सड़क पर पैदा हुए है ? क्या बीच समाज में कहीं पैदा हुए हैं?जबाव हाँ और ना दोनों में होसकता है। लेकिन जन्म दिया किसने है ?सीधा जबाव है माता पिता ने। जिनके मुँह से प्रायः यही सुनने में आता है कि बच्चों के लिए ही तो जी रहे हैं उनके लिए सारी सुविधाएँ उपलब्ध करदीं हैं हमें भी तो अपनी ज़िन्दगी जीने का हक़ है। बड़े होकर वो अपनी ज़िन्दगी जीएंगे। बहुत ही ग़ैर ज़म्मेदाराना और अनपेक्षित उत्तर है। माता-पिता का पर्याय यदि बलिदान है  तो उक्त सारे तर्क असंगत और बेबुनियाद ही होंगे।

यहाँ महसूस होता है कि हमारे यहाँ सचमुच बाल - मनोविज्ञान के ज्ञान का अभाव है।उनकी मनःस्थिति को समझने की पर्याप्त मात्रा  में आवश्यकता है। क्या हम जानते नहीं हैं कि आज का बालक पहले के बालक की अपेक्षा अधिक समझदार है ज़रूरत है उसे सही दिशा देने की. इसका अभाव ही उससे अवांछनीय अवाँछनीय कार्य करा रहा है।  यह दिशा उसे उसकी प्रारम्भिक पाठशाला यानि घर से  मिलनी चाहिए।जिसमें बालक के बौद्धिक - स्तर को उसकी वास्तविक आयु के साथ नहीं जोड़ना चाहिए। उसकी आयु के हिसाब से उसके अंदर भी झाँकें। आवश्यक नहीं कि वह अंदर से भी वैसा ही हो। किसी का बौद्धिक स्तर उम्र से कम, किसी का उम्र के समान और किसी का उम्र से अधिक हो सकता है। 

बालक के साथ मित्र भी बनें लेकिन संयमित सीमा में । दायरा अवश्य बनाये रखने की आवश्यकता है। चाहे जब अपनी सुविधा के अनुसार कठोर होजाना और चाहे जब व्यवहार में लचीला होजाना ही बालक के लिए मुश्किलें पैदा करता है। समझना चाहिए वह पहले के बालकों की अपेक्षा अधिक समझदार है, लेकिन है वह बालक ही, जिसकी बुद्धि अभी अपरिपक़्व  है। उसके अपने मित्र भी हैं , स्कूल भी है ,अपना एक विशेष पर्यावरण हैं अपने अध्यापक हैं इन सब के बीच वह कितना सहज और असहज है इसका ज्ञान होना  माता-पिता का ही दायित्व है। बालक के चहरे की प्रत्येक रेखा पर सूक्ष्म नज़र होने की आवश्यकता है। कोई नहीं चाहता कि उनके बच्चे के साथ कोई दुर्घटना हो तो ध्यान रहे "नज़र हटी और दुर्घटना घटी। "

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