अध्यापक की वेदना
एक समय था ,शिष्यों की याद आते ही -
फ़क्र से सर ऊँचा होजाता था ;
अभिमान होने लगता था ,अपने रोज़गार पर-
इतना मान-सम्मान ,स्नेह मिलता था।
पर आज तो समय के चक्रव्यूह में वह सब कुछ मानो स्वाहा ही होगया।
आज तो वस्तु -स्थिति यह है -
कि वह बेचारा है,मास्टर है ,व्यवसायी है
नहीं जानते कि विश्व के बड़े -बड़े
वैज्ञानिकों,चिकित्सकों ,और शिक्षाशास्त्रियोँ की -
नींव डालने वाला -
वह बेचारा अध्यापक ही होता है।
नहीं जानते कि कुछ घंटे पढाने वाला अध्यापक -
कितने घंटे उसकी तैयारी करता है ?
अपने परिवार की कितनी उपेक्षा करता है ?
मनोविनोद से कितनी दूर रहता है ?
किन्तु -
इन प्रश्नों का जवाब आज केवल -
"महीने की पगार पर आकर रुक जाता है "और -
वह बेचारा सदा बेचारा का बेचारा ही रह जाता है।
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एक समय था ,शिष्यों की याद आते ही -
फ़क्र से सर ऊँचा होजाता था ;
अभिमान होने लगता था ,अपने रोज़गार पर-
इतना मान-सम्मान ,स्नेह मिलता था।
पर आज तो समय के चक्रव्यूह में वह सब कुछ मानो स्वाहा ही होगया।
आज तो वस्तु -स्थिति यह है -
कि वह बेचारा है,मास्टर है ,व्यवसायी है
नहीं जानते कि विश्व के बड़े -बड़े
वैज्ञानिकों,चिकित्सकों ,और शिक्षाशास्त्रियोँ की -
नींव डालने वाला -
वह बेचारा अध्यापक ही होता है।
नहीं जानते कि कुछ घंटे पढाने वाला अध्यापक -
कितने घंटे उसकी तैयारी करता है ?
अपने परिवार की कितनी उपेक्षा करता है ?
मनोविनोद से कितनी दूर रहता है ?
किन्तु -
इन प्रश्नों का जवाब आज केवल -
"महीने की पगार पर आकर रुक जाता है "और -
वह बेचारा सदा बेचारा का बेचारा ही रह जाता है।
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