कुछ सनातनी मान्यताएँ
( 1 ) कहते हैं,मानव योनि में पूर्व जन्म के संस्कार विद्यमान रहते हैं।शेष योनियों में केवल उसी योनि के संस्कार जाग्रत रहते हैं,पूर्व योनि के संस्कार दबे रहते हैं।इसीलिए मनुष्य जिस भी संग में रहता है वैसा बन जाता है। क्योंकि संग के द्वारा सजातीय ( पूर्व योनि ) संस्कार जोर पकड़ते हैं और बलबान होकर स्वाभाव बन जाते हैं।
( 2 ) जन्म से पूर्व मनुष्य की सुषुम्ना नाड़ी खुली होती है तो उसे गत जन्म का सब कुछ याद रहता है।अपने किया कर्मों के लिए भगवान से कभी प्रार्थना करता है,कभी मांफी मांगता है कि इस बार कारागार से छुट्टी मिलेगी तो मैं साधना,भजन करके मोक्ष प्राप्त कर लूँगा , लेकिन जन्म के बाद उसकी सुषम्ना नाड़ी बंद हो जाती है और वह सब भूल जाता है। परिणाम फिर भोग-विलास में लिप्त हो जाता है।
( 3 ) पितृपक्ष -श्राद्ध
श्राद्ध पितृपक्ष के दौरान किये जाने चाहिए। लेकिन अमावस्या का श्राद्ध ऐसे भूले-बिसरे लोगों के लिए होता है जिन्हें परिस्थितिवश श्राद्ध का भाग नहीं मिल पाया। इस दिन ज्ञात-अज्ञात पूर्वजों का विधि-विधान से पिंडदान,तर्पण और श्राद्ध कर सकते हैं। इस दिन को ही ' सर्वपितृ-श्राद्ध ' कहा गया है।
मान्यता है कि
पितृ पक्ष के दौरान कुछ समय के लिए यमराज पितरों को मुक्त कर देते हैं ताकि वे अपने वंशजों से श्राद्ध ग्रहण कर सकें। हर व्यक्ति के तीन पूर्वज-पिता,दादा,और परदादा क्रम से वसु,रूद्र औरआदित्य के समान माने जाते हैं। श्राद्ध में वे ही अन्य सभी पूर्वजों के प्रतिनिधि होते हैं। जीवन के पश्चात् प्रत्येक मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण होते हैं। देव ऋण ,ऋषि ऋण,और पितृ ऋण श्राद्ध करके अपने इन तीन ऋणों से मुक्त होता है।
( दैनिक भास्कर ,मधुरिमा - 21 सितम्बर 2016 )
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