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Sunday 28 June 2015

- एक माँ का अहसास

 एक माँ का अहसास
            
 
माधवी लता सी 
वसन्त वाटिका में 
उछलती -कूदती इठलाती उस - 
मासूम ,अबोध बाला  को 
अपनी माँ के दुलार से लिपटे हुए
यौवन की देहलीज़ पर कदम रखते हुए
देखा है उसने !
प्रतीक्षारत ,मानो देख रही थी  
उसमें अपने ही यौवन को पलते हुए -

कि अचानक वह बाला ठिठकी 
वसंत वाटिका में मानों बहार सी आगई 
नहीं पता उस अज्ञात यौवना को "ये क्या है ?
क्यों होता है ?"
" क्या अर्थ होता है ?"पूछ बैठी अपनी " माँ "से -
माँ ने गले लगाया ,नेत्र सजल हुए ,मुस्कराई -
समझाया उसे -
" बेटा ,ये होता है
   ये होता है "मातृत्व का प्रतीक।"
   ये होता है " माँ बनने का अहसास। "
   और वह अल्हड़ बाला उड़ चली एक फूल बनने की चाह में -

उस वृद्धा के शरीर में सिहरन दौड़ गयी और
जर्जरित काया में होने लगा
कभी भी न समाप्त होने वाले अपने ही -------अहसास ! ! !

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जीवन का मर्मस्पर्शी प्रसंग ( एक हास्य- प्रसंग )


जीवन का एक मर्मस्पर्शी प्रसंग 

जिन्दगी स्मूदली चल रही थी,
कर्त्तव्य भी ईश्वरीय - कृपा से पूरे हो चुके थे ,
बच्चों की सहायिका के रूप में जिंदगी खुशहाल थी कि
जीवन में एक अवाँछनीय बदलाव आया।

अपने फौजी बेटे के साथ जाना हुआ
तब तक मैं  " मिसेज तिवारी "और "मैम" ही थी
सब आराम ,सब सुख, एक नयी जिन्दगी नया अनुभव
नए अन्दाज़ के साथ -
कभी डाइनिंग -इन -
कभी डाइनिंग- आउट-
कभी - " टी  "तो -
कभी बड़ा खाना और
कभी विशेष कार्य- क्रम में जाना-आना।

एकबार पहाड़ों के बीच घाटियों में घूमते हुए जारहे थे
वह पल यादगार बन गया -

अचानक पीछे से एक आवाज़ आई -
"गुड-ईवनिंग "मिसेज तिवारी ",गुड-ईवनिंग"मैम -
चौंकी ,मुड़कर प्रत्युत्तर दूँ तबतक एक और आवाज़ सुनाई दी -
नमस्ते माताजी !
बहुत जल्दी ही सब कुछ समझते देर नहीं लगी -
उत्तर दिया -खुश रहो बेटा !

अभिभूत होगयी ,ओठों पर मुस्कान -
इतना बड़ा सम्मान ,गौरवान्वित होगयी
इतने सारे फौजियों की माताजी !
इसके लिए तो कोई मेहनत भी नहीं करनी पड़ी
इस "सम्बोधन "ने तो गद्गद ही कर दिया -और
एक "मधुर-सत्य "से परिचित करा दिया।

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Saturday 27 June 2015

खाली -हाथ

खाली हाथ

विपन्नता यानि -
दुःख ,कष्ट और विषादग्रस्त जीवन ,
छुटकारा पाने का एक सुनहरी मौका !
प्रयत्नरत मानव -
आशावान ,स्वप्नदृष्टा ,उत्साह से भरपूर
भविष्य को प्रकाशमय देखने की  चाह
न कोई चिन्ता ,न परेशानी
सिर्फ और सिर्फ एक लक्ष्य और -
एक दिन सपने साकार हुए और तब
केवल सुख ही सुख !
निराशा का अन्धकार दूर -
चैन की नींद , सन्तोष ही सन्तोष !!

पर मोहग्रस्त  इन्सान को चैन में चैन कहाँ !
पुनः उठा -
एक नयी जागरूकता के साथ
एक नए संकल्प के साथ
एक नए जोश के साथ
अनेक अभाव ,अनेक महत्वाकांक्षाएँ -
और सब कुछ प्राप्त !!

लेकिन न अब कोई सुनहरी स्वप्न
न उत्साह, न आशा ,न आशा की आशा -
थका हुआ ,हताश ,पैरों में लड़खड़ाहट !!
सब दूर ,सब कुछ दूर ,बहुत दूर -
आँखों से ओझल
अब अपना कुछ नहीं !!
 रह गए खाली हाथ !!

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Saturday 21 March 2015

 पौत्री के जन्म दिवस का समायोजन 


           पौत्री का जन्म दिवस था। वह दस साल की होने जारही थी। मन में बड़ी उमंगें थीं उसके। एक बड़ी पार्टी का आयोजन करने के लिए मचलने लगी। आकर कहने लगी दादी,पार्टी में क्या-क्या मैन्यू रखें। मैंने कहा बेटा,आजकल की पार्टी के बारे में मैं क्या बताऊँ ,तुम्हारे खाने भी तो उलटे-पुल्टे होते हैं मैं तो उनके नाम भी नहीं जानती,तुम अपने मम्मी-पापा से पूछो न ! सुन  कर दौड़ कर गई। मम्मी से पूछा उन्होंने एक-दो सुझाव दिए,फिर पापा से भी पूछा,एक-दो सुझाव उन्होंने भी दे दिये।लेकिन पौत्री को संतुष्टि नहीं हुई।  मुझे बताया दादी मुझे कुछ नहीं ठीक लगा आप ही  बताओ। मैंने उसे कहा बेटा ऐसा कर,तुम्हारे जो बहुत करीबी दोस्त हों उनसे मिलकर डिसाइड करो उनकी बात तुम्हें ज़रूर पसंद आएगी।  मेरी बात उसे एकदम भागई।
    अपने चार-पांच दोस्तों को समय देकर घर बुलाया और उन्हें अपनी समस्या बताई। उनसे विचार-विमर्श किया।सुनकर बच्चे बड़े खुश हुए ,बड़े उत्साहित हुए। पहले वैन्यू निश्चित किया कि जी आई पी मॉल में जन्म दिवस मनायेंगे ,उसके बाद मिलकर मैन्यू डिसाइड किया कि स्नैक्स में अमुक-अमुक चीज़ें होंगी। फिर बड़ा सा केक जिसे ऑर्डर देकर विशेष प्रकार का डिजाइनदार  बनवाया जायेगा। बलून भी रंग बिरंगे होने चाहिए। अब बारी थी कि समय क्या हो ,किसी ने कहा शाम छह बजे तो कोई बोला नहीं-नहीं ठण्ड होजायेगी तो कोई बोला शाम चार बजे ठीक रहेगा ,अचानक एक आवाज़ आई लंच का समय रखते हैं सन्डे है।सब बोले यही ठीक  रहेगा ,मम्मी -पापा को भी कोई प्रॉब्लम नहीं होगी। वे छोड़ भी जाएंगे और आराम से ले भी जायेंगे।
    तभी एक आवाज़ आई अरे भाई किसी को सॉफ्ट-ड्रिंक की भी याद है ,वह भी  होनी चाहिए। हम तो बच्चे हैं चाय-कॉफी थोड़े ही पीते हैं। सबने सहमति जताई बोले- अच्छी याद  दिलाई पर कौनसी ? एकदम शांति छागई सोचने लगे। और तभी  चारों तरफ से आवाज़ें आने लगी। कोई बोला-लिम्का तो कोई पैप्सी ,कोई स्प्राइट ,कोई थम्सअप ,कोई कोका-कोला कोई माज़ा सब अपनी-अपनी पसंद बोलने लगे। थोड़ी देर तो सोचा कि  बच्चों की पसंद है क्या करें। अचानक दिमाग में आया ऐसा करते हैं ,पर्चियां निकलबाते हैं जिस ड्रिंक के वोट ज्यादा होंगे उसी का ऑर्डर देंगे। ऑर्डर  देने में भी कोई मुश्किल नहीं होगी ,दूकान वाले को भी दिमाग नहीं लगाना पड़ेगा। सबने सहमति जताई। पर्चियाँ तैयार की गईं और एक प्लेट में डालकर एकबच्चे से उठवाई  गई और उसने वह मुझे दी और बोला लो दादी ,खोलो जो भी ड्रिंक्स का नाम इसमें निकलेगा हम सबको वही मंज़ूर होगा अब आप खोलिए। मैंने एकबार सबकी ओर देखा और फिर पर्ची को खोला ,उसमें नाम  निकला माज़ा । यानि सर्वाधिक बच्चों की पसंद थी माज़ा । सभी खुश।
 दूसरे दिन सारी तैयारियाँ बच्चों ने बड़े उत्साह के साथ कीं। ठीक लंच के समय मन पसंद केक काटा गया। बर्थ डे गीत गाया और निराले अंदाज़ में माज़ा की बॉटल खोलकर पार्टी  का प्रारम्भ हुआ। और गिफ्ट एक्सचेंज के साथ पार्टी का समापन हुआ।आशीर्वाद के साथ बच्चों को उनके अभिभावकों के साथ विदा किया। 
  उसदिन जो पार्टी का आनंद बच्चों ने उठाया हमें भी याद रहेगा।नृत्य-गान सभी ने मन को जीत लिया। 


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Thursday 5 February 2015

खट्टी -मीठी -यादें

समय गुज़र  जाता  है     ,बातें    रह जाती  हैं।
समय व्यतीत करने का साधन बन जातीं   हैं।
जो  बातें पहले कड़वी लगती थीं ,
कैसी अजीब बात है ,अब वही मीठी लगतीं हैं। अबतो सब कुछ मीठा-मीठा याद आता है वह लड़ाई-झगड़ा
अब हास्य बन याद आता है। झगड़ा तो मज़ाक ही था।झगड़ा तो प्यार ही था। झगड़ा तो अधिकार ही था --
एक दूसरे पर। साथ रहने की कहानी कुछ और थी पर अलग रहने की और भी विचित्र। खैर ----

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- मैच में जब भारत जीतता तो कहते ,ये to hokey  by dance ,criket by chance वाली  बात है। और मुस्करा
देते।सुबह उठते ही t.b. खोलने की कहते ,बोलते देखो राजे ,रात ही रात में मैच का क्या हुआ

-चुनाव के समय इतना एक्साइटमेंट कि बोलते टी बी बंद मत करना पता नहीं कौन ऊपर नींचे होजाये। असल में टी बी के बहुत शौकीन थे।

कभी- कभी गर्मी में आकर कहते अब बस अपने हाथ की गरम-गरम आधा कप चाय पिलादो।

कभी आकर कहते मैं पूरे घर में देख कर आकर कहते तू यहां बैठी है ,ऐसे मत किया कर मैं कमज़ोर दिल का आदमी हूँ ,ड र जाता हूँ।एक ही तो मेरी राजे है।

मुश्किल ही कभी घर से बाहर निकलते और घुसते ही कहते बेकार है कहीं आना-जाना जो मज़ा अपने घर में है ,कहीं नहीं। अपनी राजे के हाथ का प्यारा-प्यारा खाना खाओ। बेकार है  यहां जाओ वहां जाओ।

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kabhi kabhi kahte ,ki agar meri shadi tumse nahin hoti to mein to bhooka hi marjata

ऑफिस से लौटकर अक्सर कहते ,जैसे ही छुट्टी होती है लोग भागते हैं बस पकड़ने के लिए ,मैं उनसे कहता हूँ भाई घर जाकर चिल-पों ही ही सुननी है न ,आधा घंटे  बाद सुन लेना। इस तरह बातें करके लोगों को हँसाते जिसे लोग आज याद करते हैं।

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एक बार गुस्से में आपा तो खोते ही थे ,बोले -मैं मर जाऊँ तो रोना मत और मैंने भी बोल दिया ,बिलकुल नहीं रोऊँगी बहुत रुला लिया अबतक। अब सोचती हूँ क्या बचकानेपन की बातें होतीं थी।

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बहुदा कहते ये मकान फिफ्टी पर्सेंट मेरा है।अब कहाँ गए ख़ुद और कहाँ  गया वह फिफ्टी पर्सेंट मकान ,न  मैं उसमें न आप।   क्या था यह सब ,बकबास के अलावा।

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जब कभी पानी बिजली की समस्या से मैँ दुःखी होतीतो कहते देखो राजे अगर ये प्रॉब्लम सबकी है तो मैं बुरा नहीं मानता पर अगर केवल तुम्हारी है तो मैं अपनी ग़लती मान लूँगा। 

 
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ख़ुद बेकार में कभी-कभी गुस्सा होते और मैं चुप होजाती तो कहते बस होगई गुस्सा तुझे पता नहीं मेरे दिलको खोल कर देख राजे ही राजे लिखा है। मैं तो बेफ़्कूफ हूँ पता नहीं क्या-क्या बोल देता हूँ। माँफ भी कर दिया कर। और होगई बात खतम ---
                                                    .


     

मनोगत भाव

                                                            (  1 )

भगवान ने हमें दो बहुत खूबसूरत वरदान दिए ,जिनकी परवरिश में उनका पूरा सहयोग रहा ,  उनकी खशबू फैली सर्वत्र। लेकिन हमारी ओर से ही एक कमी रहगयी ,हमने उन्हें प्यार दिया ,उचित संरक्षण दिया ,लेकिन उसमें जिस लगाव एवं आसक्ति की आवश्यकता होती है ,उसे नहीं दिखा  पाये। लगाव और आसक्ति व्यक्ति को प्रायः कमज़ोर बनाती है इसलिए मैं इसे बुरा  भी नहीं मानती।पर कमी तो है ही। वैसे ये  कमी हमें अधिक महसूस होती है वह भी वृद्धावस्था में ,पर ये  कमी उनके जीवन के विकास में कभी बाधा  नहीं बनी। पर ऐसा भी नहीं है कि उन्हें कभी महसूस ही नहीं हुई हो। हमेशा होती रहेगी। ये माता -पिता का त्याग है जो कभी उनकी उन्नति में बाधा न बना, न बनेगा। इसीलिये वे पूर्णतया आत्मनिर्भर हैं। शुभकामनाओं के साथ --माँ



                                                              ---------

                                                                (  2   )

कभी -कभी आप बहुत याद आते हैं, आप पर बहुत प्यार आता है,क्योंकि साथ रहते हुए तो हमेशा आपके    अकारण क्रोध से भय-भीत रहती थी।हमेशा मानसिक तनाव में ही रहती थी। आपके जाने के बाद तनाव ख़त्म और अब केवल और केवल आपको याद करती हूँ। साथ रहते हुए तो आपके प्रति सहानुभूति, दया और आदर  के ही भाव थे और जब-तब तनातनी ही रहती थी। भर-पूर  प्यार को तो आपने कभी मौका ही नहीं दिया। साथ-साथ घूमे -फिरे पर हम दोनों ही एक प्यार का अभाव महसूस करते रहे। आपके जाने के बाद आपकी यादों को ही प्यार करती हूँ।



                                                            ------------
             
                                                                 (  3  )

कहते हैं कि व्यक्ति की आखिरी इच्छा ज़रूर पूरी करनी चाहिये।अब बताइए मेरी इच्छा कौन पूरी करेगा। आपने तो अपनी सारी इच्छाएँ पूरी करालीं लेकिन मैं ? मैंने चाहा था बच्चों की पोस्टिंग आने वाली है उनके जाने के बाद मैं आपके साथ रहकर आपके मन का खाना खिलाऊँगी तो आपका स्वास्थ्य ठीक हो जायेगा।लेकिन वैसा नहीं हुआ। क्योंकि किसी का घर में रहना,आना,दो घंटे भी टिकना पसंद नहीं था। बच्चे आपकी परमिशन लेकर आये थे ,पर आपको कुछ दिन बाद ही मुश्किल होने लगी थी लेकिन बच्चे हमारे हैं क्या करते और आप चले गए। किसी का कोई कुसूर नहीं था ,समय प्रबल था  अच्छा हुआ। पर अब आप बताइये कि मेरी इच्छा कैसे पूरी हो सकती है। आपने हमेशा अपनी इच्छा पूरी कीं और जब नहीं होपाईं तो चल दिए।भाग्य मेरा  !!!

                                                           -------------
                                                             (  ४  )


एक वर्ष बहुत दुःखी रही ,बहुत सन्तप्त रही,अपने आप से बहुत ग्लानि होती रही। पर  अचानक उत्पन्न ऊर्जा में सब कुछ भस्म होगया। वह पल जिसे मैं घातक समझ रही थी ,मेरी ज़िदगी का प्रेरक पल था ,ईश्वरीय सत्ता से प्रेरित था। इसे मैंने एक वर्ष व्यतीत होजाने पर स्वयं महसूस किया। आज मैं खुश हूँ, संतुष्ट हूँ,शान्त हूँ,मन में  शिकवा ,शिकायत नहीं है।  यह ऊर्जा ईश्वरीय प्रेरणा ही थी। हे ईश्वर !आपको कोटिशः प्रणाम !!


                                                          -------------
                                                           
                                                               ( ५  )

मैंने तो चाहा था कि मैं नॉएडा में ही रहूँ और जब-तब जैसे आपके साथ आती - जाती रहती थी वैसे ही बच्चों के पास जाती रहूँगी। लेकिन वैसा हो न पाया। बहुत से सवालों का सामना करना पड़ रहा था। आप तो चले गए ,समय तो मुझे व्यतीत करना था ,वह भी नहीं पता कितना !फिर सोचा मेरे वहाँ अकेले रहने से  अनुपम भी तो चिंतित  रहता ही होगा ,वह कुछ कहे या न कहे साथ रहने का आग्रह तो करता ही था। इसलिए सबकुछ भुला कर बच्चों के साथ ही रहने का निश्चय किया और यही ठीक भी लगा। अपनी इच्छाएँ समाप्त करो ,क्या ,क्यों बंद करो और जो है उसी में खुश रहो। बस इसके बाद तो दुःख काहेका !बल्किअनुपमके चेहरे पर जो संतोष दिखाई देता है मैं उसी में संतुष्ट हो लेती हूँ। फिर आपकी बहू और ईलू का अच्छा साथ है। ईलू बहुत अच्छी बातें कर हँसाती रहती है। अरमान ज़्यादा न रखो तो तकलीफ किस बात की !बच्चों के साथ खुश हूँ। समय व्यतीत करने में भी कोई मुश्किल नहीं होती। आपको और भगवान को याद कर कट ही रहा है,कब तक यह तो पता नहीं।

                                                     
                                                                (  6  )                        
                                                           

सुहाग के वो आखिरी पल जो  ---जुलाई २०१५।

 
    ज़िंदगी के सर्वाधिक दुखदायी थे ह्रदय- विदारक और कष्ट -पूर्ण थे ,आँखों के सामने का  वह अविस्मरणीय दृश्य ,जिसे भोगा जो विचलित करनेवाला अत्यधिक  शोक पूर्ण था , बहुत याद आता है। न जाने क्या था उन पलों में कैसा संतोष था उन दुखद पलों में भी, जो यादगार बनगया -
     चाय के दो - तीन घूँट पिलाना और -
     बीच - बीच में बिस्किट खिलाना उसके बाद
     एक सेंड विच का पीस खिलाना और फिर उनकी डाँट -
    "खिलाना है तो बिस्किट खिलादो नहीं तो रहने दो "
आखिरी उनके ये मूल्यवान शब्द ,जिसके बाद उनकी वह आवाज़ सदा - सदा के लिए शून्य में विलीन होगयी वे मर्म भेदी पल बहुत याद आते हैं पर एक संतोष के साथ !! न जाने कौनसा सन्तोष !!!
और महसूस होता है जैसे इन पलों में मेरा उनसे साक्षात्कार हो रहा है। शायद यही सन्तोष है।

                                                       ---------------
 
             
                                                           

      

Monday 2 February 2015

कसक

कसक:आन्तरिक - पीड़ा 

मैंने सदा आपका साथ दिया अपने घरवालों  भुला दिया। अपने बच्चों का भी उतना ही साथ दिया जो बहुत आवश्यक था। हमारी बेटी के साथ जो हुआ नियति का ही विधान था। उस समय को याद करती हूँ तो आज भी घबरा जाती हूँ। आप केवल चिन्ता करते थे , गुस्सा करते थे और मानसिक रूप से अस्वस्थ हुए चले जारहे थे उसको भी लेकर परेशान। हमारी बेटी का परेशान चेहरा जिस पर न जाने कितने प्रश्न। ऊपर से वह वकील जोअपना ही नहीं रहा था,हमारी तो सुन ही नहीं रहा था।और हमारी बेटी उसे पूरा पैसा दे रही थी ,उसके  परिवारके लिए भी खाना अरेन्ज करतीं ,जूस लेकर पिलाती।घर से शिकंजी या कुछ और ठंडा लेकर जाती। पूरा भरोसा करती कि सब कुछ ठीक होगा। लेकिन नतीजा ज़ीरो मिला।
      सारी उलझन का असर था कि सब परेशान और ऊपर से  आप तो आप मैं भी अपनी बेटी के साथ  अनुचित और असंगत व्यवहार कर जाती थी जिसका दुःख आज भी मुझे है। कभी आप,कभी बेटी का चेहरा !! बिलकुल अकेली पड़गयी थी मैं। तब किसी तरह बेटी को समझा-बुझाकर नेट पर लड़का ढूँढने का आग्रह किया और ईश्वर ने दया की ,उसे इस काम के लिए आज्ञा दी।सब काम को उसने कितने संतोष व धैर्य से किया आपको कोई मतलब नहीं था। विवाह होने तक आप इस पूरे मुकाम से ऐसे छिटक कर दूर रहे थे जैसे किसी और का काम होरहा है।
    उस समय मैं बेटी को समझाती रहती ,प्रोत्साहित करती उसे सहारा देती क्योंकि काम तो सारा उसे ही करना था। कभी सिटी मजिस्ट्रेट के दफ्तर, कभी नोटरी दफ्तर ,कभी कुण्डली मिलवाने पंडित के पास ,कभी  नॉएडा कोर्ट में पेपर सबमिट करने ,कभी आर्य -समाज मंदिर में ,कभी गिफ्ट देने के लिए सामान खरीदने  लिए जाना ,कभी कैटरर फिक्स करना ,इन सब कामों में आप कहाँ थे। आभारी रहूँगी आपकी कि नकारात्मकता तो दिखाई किन्तु विरोधी बनकर सामने खड़े नहीं हुए ,आगे बढ़ने से रोका नहीं। आपने  खड़े होकर परिवार के सम्मान को बनाये रखा उस पर  आंच नहीं आने दी। और काम सकुशल संपन्न हुआ।
     
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