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Tuesday, 4 May 2021

अप्रत्याशित अनूठी "साईं कृपा"----------

घर में थोड़ी समस्या तो चल रही थी पर समयान्तर जो अनुभव हुआ;उसका अनुमान बिलकुल न था। विवरण है इस प्रकार --

    किसी भी पूजा-स्थल से हमारा कोई विरोध नहीं है तथापि हम लोग प्रायः हनुमान- मन्दिर,राम-मन्दिर और शिव-मन्दिर ही जाते रहे हैं।अचानक एक घटना से लगा जैसे "साँई" हमारे इष्ट बन कर कुछ दिन के लिए घर आये और हमारी बेटी को  आशीर्वाद देकर अन्तर्धान  होगये।मेरे पति को किसी अज्ञात प्रेरणा ने साँई मन्दिर जाने के लिए प्रेरित किया;आश्चर्य तो हुआ पर उनकी आस्था और श्रद्धा का प्रश्न था।यदा-कदा मैं भी,बहू-बच्चे भी साथ जाने लगे।प्रति वृहस्पति वार को दोपहर मन्दिर जाना,भोग लगाना और घर आकर श्रद्धा पूर्वक प्रसाद पाना,सबको वितरित कर भोजन करना यह क्रम कुछ समय नियमतः चलता रहा।

      मन्दिर की परम्परा के अनुसार भक्तों के द्वारा चढ़ाई गयी चुनरी समय-समय पर भक्तों को ही बाँट दी जाती थीं।भक्तों की संख्या अधिक होती थी चुनरी कम होती थीं  इसलिए भाग्यशाली भक्त ही प्राप्त करपाते थे,मेरे पति उन्हीं भाग्यशालियों में से एक थे।पुजारी जी ने स्वयं लाकर उन्हें चुनरी दी।लाकर पति ने मुझे दिखाई,बहुत ख़ुशी हुई बेटी  के विवाह की तैयारी भी चल रही थी,सोचा ये उसी के लिए आयी है,विदा इसी से करेंगे।ऐसा किया भी।इत्तिफ़ाक़ से बिटिया को रिटायरमेंट में स्मृति-चिह्न के रूप में साँई की ही तसवीर मिली थी,अन्य विदाई के सामान के साथ भेंट स्वरुप उसे भी देकर बेटी का विदाई-समारोह सम्पन्न किया। 

      कुछ समय ये मन्दिर जाने का क्रम और चला पर कब ये नियम समाप्त होगया नहीं पता।सब कुछ सामान्य था किन्तु जब बेटी पुनः घर आयी और उसने जो बताया तब भगवान् की कृपा का रहस्य ज्ञात हुआ।उसने बताया कि उसके ससुराल में सब साँई के अनन्य भक्त हैं और उन पर अटूट श्रद्धा और विश्वास है।

    लगा भगवान् भी अपनी कृपा के लिए कोई माध्यम चुनते हैं।इस बार साँई को माध्यम  बनाकर बिटिया का घर बसाया।शतशः नमन के साथ भगवान् को धन्यवाद अर्पित किया। 


                                          " जय साँई राम "

                                           " ॐ साँई राम "

                                                 **** 
    




           

Friday, 30 April 2021

एक निस्पृह अवस्था

एक निस्पृह,अनचाही लावारिश अवस्था !!


अचानक दिल की तलहटी से निकले ये शब्द -

सहसा ही पास बैठे किसी को, 

चौंकाने के लिए काफ़ी थे,कि -

एक आवाज़ ने चौंकाया,-

"भई ये कौनसी अवस्था है !" 

 अरे वही -

"जिसमें सब कुछ धुँधला-धुँधला नज़र आता है।"

"आइसोलेटेड है " ये पूरी तरह से -

"पर ये तो वृद्धावस्था होती है,"

नज़र धुँधली हो जाती है,

पर लावारिस कैसे !!

क्योंकि ये अवाँछनीय है,कोई नहीं चाहता इसे;

चारों ओर खालीपन ही खालीपन;

"कोरन्टाइन है," 

हर कोई परेशान !

सिर्फ और सिर्फ धूमिल सी आकृति ;

टेड़ी-मेड़ी सी ,

जो अपने ही पन का अहसास कराती है।

"ओह ! तो ये बात है,

ये तो सामान्य है।"   

हाँ , पर अब ये असामान्य है।

और लाइलाज़ भी ------------- 

अगर एक मुस्कान भी "एक्सचेंज" न हो किसी के साथ !

तो और इसे क्या कहें।  


                      ***  


 



  

    

Wednesday, 7 April 2021

ब्लॉग का आरम्भ

      और तब शरू हुआ ब्लॉग का आरम्भ !!लेखन-कार्य मेरा बहुत प्रारम्भ से ही चल रहा था पर वो समय ऐसा न था कि इस ओर किसी का ध्यान जाता 1967 में मेरी माँ के ऑफिस से किसी कुलीग ने उनसे कहा- मैडम,हमारी पत्रिका के लिए रचना चाहिए कोई हो लिखने वाला तो उसे कहिये।मेरी माँ मेरी इस लेखन कार्य से अवगत थीं। उनके कहने पर लिखी मेरी पहली क्रान्तिकारी  रचना "ये समाज है"। "पत्रिका में प्रकाशित हुई। इस से मुझे प्रोत्साहन मिला किन्तु इसके बाद जीवन में आये एक नए मोड़ से लेखन की गति में विराम आगया किन्तु जब-तब लेखन चलता रहा जो कटे-पिटे कागज़ के टुकड़ों में जमा होता रहा। 

        अचानक ही 5 फरवरी २०१३ की उस काली भयावह रात्रि ने,जिसमें जीवन का सब कुछ स्वाहा होगया, पुनः एकबार बंद पड़ी मेरी लेखनी में प्राणों का संचार कर दिया।और मेरी "कविता-कामिनी" उठ खड़ी हुई।जीवन में आये खालीपन और अभिव्यक्ति की अधीरता ने फिर से अंदर की सोई हुई प्रतिभा को जगाया और लेखन शुरू हुआ।रचनायें लिखीं ,समाचार-पत्र में भी प्रकाशित हुईं किन्तु कोई स्थिर स्तम्भ नहीं मिला जहाँ ये रचनाएँ संकलित करती तभी मेरे बेटे ने कागज़ों पर लिखी इन रचनाओं को देखा कुछ-सोच विचार के उपरान्त बोला माँ, आप अपना ब्लॉग बनाकर इन रचनाओं को उसमें लिखो।बेटे ने कम्प्यूटर पर लिखना तो  सिखा दिया था लेकिन अब अपना पर्सनल लैपटॉप की ज़रुरत थी उसका भी प्रबन्ध बेटी और दामाद ने कर  दिया। इस तरह बेटे के आग्रह और परामर्श ने मुझे आगे बढ़ने की राह दिखाई,सबसे पहले उन कटे-पिटे कागज़ों पर लिखी रचनाओं को टाइप किया उसके बाद बेटे,बहू, पौत्री से भी निरंतर आजतक कम्प्यूटर की तकनीक में सहायता मिलती रही है।और मेरा लेखन सहजता पूर्वक आज तक चल रहा है अब जीवन में खालीपन को कोई स्थान नहीं लेखन चलता रहेगा --------  

            अभी कुछ समय पहले बेटे ने मेरा ब्लॉग देखा तो बोला - "मम्मी आप अपनी किताब पब्लिश कराओ।" तो दिमाग ने इस ओर काम करना शुरू किया। इस प्रकार ----  

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Monday, 5 April 2021

    
        यादों के झरोखों से ----------

कोशिशें होती  रहीं ,       हम सामना करते रहे ;
मन दुखा,और दिल भी टूटा,अश्रु भी बहते रहे। 

          देख कर सपने नए नित ,साथ कोई ढूँढ लेंगे ; 
          जो नहीं बातें कभी की ,  खूब सारी वो करेंगे।
 
"तुम बताओ तुम हो कैसे , हम बताएँ हम हैं कैसे ;
 बिन हमारे तुम हो कैसे , बिन तुम्हारे हम हैं कैसे। 

           रह रहे हैं ठाठ से कैसे ,  तुम्हारे बिन भी    हम ;
           मौन रहकर,मूक रहकर भी तुम्हारे साथ हैं हम।
 
तुम बड़े कमज़ोर दिल के, हम बड़े मजबूत हैं ;
छोड़ करके तुम गए ,  पर हम बड़े मजबूर हैं।
 
         कर्म का लेखा  समझ कर , जीत लेंगे जिंदगी ;
         फिर मिलेंगे , फिर मिलेंगे , फिर मिलेंगे जिंदगी। 


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Saturday, 27 February 2021

भाई के प्रति

भाई के प्रति 

अच्छा ही हुआ मेरे भाई ,जो तुम चले गए ,

मोह-माया ,आसक्ति के भ्रम-जाल से मुक्त गए ,

याद तो बहुत आते हो मेरे भाई ,क्योंकि तुम बहुत प्रिय थे, 

किन्तु बहाना बना कर गए  ,ये अच्छा नहीं लगा।  

चाहे-अनचाहे कर्मों को भी भोग लिया ,

स्वास्थ्य भी साथ नहीं दे रहा था ,

इसलिए अब तुम्हारा जाना ही ठीक लगा। 

आँसू नहीं रुकते ,पर किसी अव्यक्त दुःख से -

मुक्ति मिली ,मेरे भाई, इसलिए 

तुम्हारा जाना ही ज़्यादा अच्छा लगा। 

जहां भी हो खुश रहना ,भाई मेरे। 

    शुभाशीष के साथ -

       बहिन। 

                ****

Sunday, 10 January 2021

                                       दो शब्द 

             

भावों और विचारों की अभिव्यक्ति है ये मेरा ब्लॉग ! समाज,संस्थाओं,परिवार,पड़ोस और मेरे शिक्षण-कार्य  क्षेत्र व साहित्य जगत से जुड़े मेरे अपने गहन अनुभवों का संग्रह है ये मेरा ब्लॉग ! जीवन की यादें ,संस्मरण,कविता,कहानी,हास्य आदि जैसे जीवन से  जुड़े विषयों को मैने अपने ब्लॉग का विषय बनाया है। जीवन के कुछ ग़मगीन महत्त्वपूर्ण पल भी मेरे इस ब्लॉग का विषय हैं। प्रबुद्ध भावुक पाठक सम्भवतः इसे पढ़ना पसन्द करें। प्रयास यही रहा है कि  भाषा सरल,सहज हो पर कभी भावों की गूढ़ता के अनुसार भाषा में साहित्यिकता का भी निर्बहण हुआ है जो स्वाभाविक ही लगता है। 

                                                                 ******************

Friday, 13 November 2020

अभूत पूर्व व्यक्तित्व : श्रद्धेय नानाजी

            अभूतपूर्व व्यक्तित्व :श्रद्धेय नाना जी 

                  

       नगर के प्रतिष्ठित श्रेष्ठ वकीलों में  था उनका नाम। बहुत ही सादा - सरल जीवन जीने वाले,प्रगतिशील विचार  रखने वाले ,केवल औरों के लिए जीने वाले थे हमारे आदरणीय  नानाजी।माँ का विवाह एक अच्छे संपन्न घराने में हुआ। किन्तु विवाह के कुछ समय उपरान्त ही मेरे पापा के अस्वस्थ रहने के कारण मेरे नानाजी परेशान रहने लगे , दादाजी ने बहुत उपचार करवाया,तराजू में वज़न के बराबर सिलवर ( चाँदी ) भी दान की लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ,इस बीच हम तीन बहनों का जन्म भी हुआ,मैं पांच वर्ष की थी जैसा मुझे याद है,पापा ने जॉब पर भी जाना बंद कर  दिया।तब नानाजी ने माँ के साथ हमको अपने पास बुला लिया क्योंकि माँ के बेबी होना था। दादाजी भी पापा के  कारण परेशां थे,नानाजी ने हमारा स्कूल में दाखिला करा दिया,हमारी पढ़ाई शुरू हुई।कुछ समय बाद हमारे भाई ने जन्म लिया। ननिहाल में परिवार  काफी बड़ा था सबका भरण-पोषण नानाजी ही कर रहे थे, अब हम चार भाई बहिन कुल मिलाकर पच्चीस-तीस लोग जिनका पोषण नानाजी बिना किसी तनाव के कर रहे थे। तभी नानाजी के एक मित्र ने सलाह दी कि वे  मेरी माँ की पढ़ाई शुरू कराएँ,परिवर्तनशील विचारों वाले नाना जी ने सही सोच कर उन्हें दसवीं ,द्वादस और बी ए कराया,उसके बाद तीन महीने की सोशल वर्कर की ट्रेनिंग के लिए लखनऊ भेजा,उसके बाद शहर के ही एक महिला अस्पताल में सरकारी नौकरी लगवा कर,एक बड़ी ज़िम्मेदारी पूरी की।

             हम लोग भी संयुक्त परिवार में रहते हुए बिना किसी उलझन के अपनी पढ़ाई करते रहे,माँ की तरफ और उनकी मानसिक स्थिति की तरफ किसी का ध्यान नहीं गया।अंदर ही अंदर माँ घुटतीं रहीं। परिवार-नियोजन विभाग में कार्य रत थीं,उन्हें पास के ही गाँव-गाँव में जाना होता था,लेकिन पिता के घर में बच्चों के  साथ रहना आसान नहीं था ,वो बीमार रहने लगी,स्नोफीलिया जैसी बीमारी से वो पीड़ित हुईं ,नानाजी प्रतिष्ठित एडवोकेट थे,अच्छा उपचार करवाया लेकिन कोई अंतर नहीं आरहा था भगवान की कृपा से सर्विस चलती रही इतना संतोष था। बीच-बीच में पापा आते रहते थे,अपनी परेशानी बताते थे। अब उनका इलाज भी बंद था,खाने-पीने की समस्या होती थी,जब आते थे तो लम्बी-लम्बी दाड़ी, टूटा चश्मा, गंदे कपड़े होते थे।जब भी आते नानाजी उनके लिए नाई बुलाते,दरजी बुलाते कपड़े सिलवाते, पापा खुश हो कर रहते, स्वास्थ्य सुधरने लगता, लेकिन कुछ ही समय में शायद ससुराल सोच कर उनका स्वाभिमान जागता और पुनः बापस जाने के लिए कहते,समझाने पर भी नहीं मानते तो नानाजी उन्हें दस रुपये देते जिसमें उनके आने-जाने का किराया होजाता था। जिन्हे लेकर वो चले जाते और कुछ समय बाद जब मन होता आजाते। यही क्रम चलता रहा।

              तभी अचानक एक दिन खबर मिली,पापा हमें छोड़ कर भगवन के पास चले गए। ये खबर हमें किसी जानकार के द्वारा आठ-नौ दिन बाद मिली थी,इस खबर ने तो हमें तोड़ ही दिया। माँ, मैं, नानाजी मांमां जी गए लेकिन वहाँ अधिक समय नानाजी को रुकना ठीक नहीं लगा और हम भारी मन से बापस आगये।जिंदगी का नया मोड़ शुरू  हम तीनों बहिन,भाई जॉब भी करने लगे थे,नानाजी ने ये भी परमीशन बहुत सोच विचार के बाद दी थी। स्वाबलम्बन से थोड़ा आत्मविश्वास बढ़ा, अब एक विचार आया कि मैं बी एड करूँ जिसके लिए पुनः नानाजी की परमीशन चाहिए थी,क्योंकि हमारे शहर में कोई कॉलेज नहीं था जहां मैं बी एड कर सकती,मेरी मांसी  बनस्थली में थीं,नानाजी ने बी एड का फॉर्म मंगाया और मुझसे भरवाकर कॉलेज भेज दिया। जहां से इंटरव्यू के लिए बुलाया गया मैं बनस्थली गयी,इन्टरव्यू क्लियर किया और मैं एक वर्ष के लिए बी एड करने बनस्थली गयी ,परिवर्तनशील नानाजी का सदैव आशीर्वाद रहा,बी एड पूरा हुआ और वहाँ प्रिन्सिपल ने मुझे जॉब भी ऑफर किया जिसे नानाजी से पूछ कर मैंने स्वीकार किया।सफलता पूर्वक सेवाकाल पूरा कर रही थी कि नानाजी ने मेरे विवाह के लिए कहा, इसलिए सेवाकाल पूरा कर विवाह बंधन स्वीकार किया। 

                  धीरे धीरे हम तीनों बहिनों के विवाह की भी ज़िम्मेदारी नानाजी ने पूरी की,पर भाई का विवाह करने से पूर्व उनका जीवन काल समाप्त होगया। इस पूरे जीवन कालमें नानाजी ने इतना ही नहीं ,परिवार की कई लड़कियों के विवाह किये,कभी किसी से कोई मदद नहीं ली,किसी ने की भी नहीं। कभी कोई दोष यानि ग़ुस्सा ,चाह या अन्य किसी प्रकार का कोई आग्रह मैंने उनमें नहींदेखा। हमेशा सबसे मीठा बोलना,मुस्कराते हुए बात करना। भक्ति-पूजा सब कुछ यही था। कोई पाखंड नहीं,समय समय पर सत्य-नारायण कथा, भागवत सप्ताह ,ब्राह्मण-भोज जैसे पुण्य कर्म ही उनका जीवन-क्रम था। न लाउड स्पीकर का शोर न कोई अन्य दिखावा।हर महीने गोवर्धन परिक्रमा,वहीँ साधु-सन्तों को भोजन कराना। यह अवश्य उनका नियम था। कोई तीर्थ यात्रा का औत्सुक्य नहीं , कोई घूमना-घुमाना,सैर-सपाटा यह सब उनके जीवन का हिस्सा नहीं था। घर तीर्थ था , घर में ही रह कर सन्यासी जीवन व्यतीत करना मात्र जीवन था।

    ये थे हमारे नानाजी, शत शत नमन !! 

           श्रद्धानत  

                                                                 ***