आशीर्वाद पितरों का
पितृ-सत्ता होती है,उनका आशीर्वाद भी होता है। लोगों को ऐसा विश्वास है,पर अगर सचमुच इसका अहसास प्रत्यक्ष हो तो क्या कहें !मुझे हुआ है। कोई कह सकता है कि भ्रम हुआ होगा,मैं ये सुनने को तैयार हूँ। पर जो मैंने देखा और महसूस किया उसे सबके सामने रखना भी मैं आवश्यक समझती हूँ।
(१ )
हुआ यूँ एक बार मेरे बेटे की परीक्षाएँ चल रही थी ,हमें दिल्ली में हनुमान मंदिर जाना था।मैं,मेरे पति और मेरी बेटी ही मंदिर के लिए रवाना होगये। बेटे के खाना आदि का प्रबंध कर दिया। मंदिर से आते-आते शाम होगयी। जब घर पहुंचे तो बेटे अनुपम ने दरवाज़ा खोला ,अंदर जाकर एक विचित्र ही दृश्य देखा ,एक प्रौढ़ महिला घर में बैठी हुई थी। हमें देखते ही खड़ी हुई और बोली बेटा इसे डांटना नहीं ,मेरी वजह से इसने खाना भी नहीं खाया और मेरा ही ध्यान रखता रहा , पढ़ ही रहा है अब मैं चलती हूँ ,पर बेटा इसे डांटना नहीं।मुझे किसी ने बताया था कि यहां कोई किराये का मकान है पर वैसा कुछ नहीं है खैर थक गयी थी इसलिए बैठी रह गयी।
उसके जाने के बाद सोचा अनुपम नासमझ तो है नहीं ,एक अनजान को कैसे दरवाज़ा खोल कर सहारा दे सकता है। उससे पूछा भी कि क्यों घुसा लिया,कोई ग़लत इंसान हो सकता था पर उसके पास कोई उचित जवाब नहीं था।बहुत सोच विचारने के बाद उस महिला की बातें याद कर समझ आया कि ये महिला कोई और नहीं शायद बेटे की दादी ही थीं परीक्षाओं में व्यस्त पोते को अकेला नहीं देख सकीं। और उसका सहारा बन कर आगयीं थी।
(२ )
एक और इसी तरह की घटना ! पितृ-पक्ष चल रहा था। बेटा अनुपम पड़ौस से ही पंडितजी को बुलाने गया था। पंडितजी ने कहा तुम चलो बेटा मैं आरहा हूँ। अनुपम बापस आरहा था कि साइड की सड़क से एक बुज़र्ग से व्यक्ति आये पास आकर बोले-बेटा चलो ,कहाँ जाना है ,मैं साइकल से छोड़ देता हूँ। अनुपम ने कहा -नहीं अंकल मैं चला जाऊंगा। फिर भी उन्होंने बार-बार उससे छोड़ने के लिए कहा और उसके मना करने पर वह दूसरी दिशा में चले गए। अनुपम सोचते-सोचते आ रहाथा तभी उसने पीछे मुड़ कर देखा वहां कोई नहीं था,दूर तक कोई नहीं दिखाई दिया। जब श्राद्ध कार्य समाप्त हुआ ,पंडितजी खाना खाकर चले गए तब बेटे ने सारा वृत्तान्त बताया। समझते देर नहीं लगी कि यह उसके दादाजी ही थे। लगा खाना खाने ज़रूर आये होंगे। सोच कर बहुत अच्छा लगा। विश्वास हुआ कि हमारे परिवार पर पित्रों का आशीर्वाद है।
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हुआ यूँ एक बार मेरे बेटे की परीक्षाएँ चल रही थी ,हमें दिल्ली में हनुमान मंदिर जाना था।मैं,मेरे पति और मेरी बेटी ही मंदिर के लिए रवाना होगये। बेटे के खाना आदि का प्रबंध कर दिया। मंदिर से आते-आते शाम होगयी। जब घर पहुंचे तो बेटे अनुपम ने दरवाज़ा खोला ,अंदर जाकर एक विचित्र ही दृश्य देखा ,एक प्रौढ़ महिला घर में बैठी हुई थी। हमें देखते ही खड़ी हुई और बोली बेटा इसे डांटना नहीं ,मेरी वजह से इसने खाना भी नहीं खाया और मेरा ही ध्यान रखता रहा , पढ़ ही रहा है अब मैं चलती हूँ ,पर बेटा इसे डांटना नहीं।मुझे किसी ने बताया था कि यहां कोई किराये का मकान है पर वैसा कुछ नहीं है खैर थक गयी थी इसलिए बैठी रह गयी।
उसके जाने के बाद सोचा अनुपम नासमझ तो है नहीं ,एक अनजान को कैसे दरवाज़ा खोल कर सहारा दे सकता है। उससे पूछा भी कि क्यों घुसा लिया,कोई ग़लत इंसान हो सकता था पर उसके पास कोई उचित जवाब नहीं था।बहुत सोच विचारने के बाद उस महिला की बातें याद कर समझ आया कि ये महिला कोई और नहीं शायद बेटे की दादी ही थीं परीक्षाओं में व्यस्त पोते को अकेला नहीं देख सकीं। और उसका सहारा बन कर आगयीं थी।
(२ )
एक और इसी तरह की घटना ! पितृ-पक्ष चल रहा था। बेटा अनुपम पड़ौस से ही पंडितजी को बुलाने गया था। पंडितजी ने कहा तुम चलो बेटा मैं आरहा हूँ। अनुपम बापस आरहा था कि साइड की सड़क से एक बुज़र्ग से व्यक्ति आये पास आकर बोले-बेटा चलो ,कहाँ जाना है ,मैं साइकल से छोड़ देता हूँ। अनुपम ने कहा -नहीं अंकल मैं चला जाऊंगा। फिर भी उन्होंने बार-बार उससे छोड़ने के लिए कहा और उसके मना करने पर वह दूसरी दिशा में चले गए। अनुपम सोचते-सोचते आ रहाथा तभी उसने पीछे मुड़ कर देखा वहां कोई नहीं था,दूर तक कोई नहीं दिखाई दिया। जब श्राद्ध कार्य समाप्त हुआ ,पंडितजी खाना खाकर चले गए तब बेटे ने सारा वृत्तान्त बताया। समझते देर नहीं लगी कि यह उसके दादाजी ही थे। लगा खाना खाने ज़रूर आये होंगे। सोच कर बहुत अच्छा लगा। विश्वास हुआ कि हमारे परिवार पर पित्रों का आशीर्वाद है।
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