मेरे पापा और उनका परिवार
अपने पापा के विषय में अन्यत्र भी प्रासंगिक रूप से थोड़ा बहुत लिख चुकी हूँ। पर आज मैं कुछ अधिक विशेष जानकारी देने का प्रयास कर रही हूँ। मेरे दादा धौलपुर निवासी श्री राम नाथ शर्मा रईस के नाम से विख्यात थे। तब राजा-तंत्र था। वे वहां के नर्सिंग भगवान के मंदिर के पुजारी थे। मंदिर में जब भी कोई पारम्परिक उत्सव होता था तो पूरा परिवार राजसी घराने के राजस्थानी लिबास से सुसज्जित होकर उपस्थित होता था। माँ का विवाह बहुत ही शानदार तरीके से हुआ। बारात की चार दिन तक आवभगत की गयी। भर-पूर लेनदेन व शानो सज्जा के साथ सम्बन्ध स्थापित हुआ।
हमारे पापा सबसे पहली संतान थे , उस से पहले दादाजी तक सब गोद ली हुई संतान थी। बहुत ही लाढ़-प्यार से पापा का लालन-पालन हुआ। उनकी शिक्षा बी ए ,एल एल बी तक हुई। माँ के विवाह के तीन वर्ष बाद मेरा जन्म हुआ था। मेरे बाद मेरी दो बहिनों का जन्म हुआ। तीन लड़कियों के लिए माँ को बहुत सुनना पड़ता।जब माँ पापा से कहतीं तो पापा कहते कोई कुछ भी कहे भी कहे चिंता मत करो, मैं अपनी बेटियों को पढ़ा-लिखा कर योग्य बनाउँगा उसके बाद ही विवाह करेंगे। इस तरह सब ठीक ही चल रहा था।
पर अचानक पापा को दिमागी रूप से कुछ परेशानी होने लगी। हुआ यूँ कि हमारे पापा अंग्रेज़ मजिस्ट्रेट के अधीन काम करते थे जो उन्हें अपने अनुसार गलत पेपर पर सिग्नेचर करने के लिए बाद्ध्य करता था जो पापा को मंज़ूर नहीं था। और ऐसे ही विवादों के होते हुए उन्हें एक दिन नौकरी से हटा दिया गया। मैं छोटी थी इसलिए अधिक नहीं जानती पर जो याद है वो ये कि शायद उसके बाद ही अचानक एक दिन पापा घवराये हुए घर आये और कहने लगे कि दादा पुलिस आरही है और उन्होंने अपनी सारी लॉ की किताबें जलादीं, बस चुप होगये।घर में सन्नाटा छा गया। बहुत उपचार कराया लेकिन कोई सुधार नहीं हुआ। काम पर जाना बंद कर दिया,कभी-कभी अनावश्यक रूप से घर में जो मुझे याद है माँ पर गुस्सा होते,फिर शांत होजाते। बस यहीं से हमारे जीवन की दिशा बदल गयी।
मुझे अपने पापा के साथ के कुछ मधुर पल भी याद हैं जैसे मुझे शाम को साइकल पे घुमाने लेजाना,शाम को ठंडाई घोटना,कभी भल्ले वाले को बुला लाना घर पर। बुआ को आवाज़ लगाकर बुलाना। पर इस सब के साथ माँ का जीवन अति संघर्षपूर्ण था। तीन लड़कियाँ,पापा का काम छूटना, और सौतेली माँ यानि मेरी दादी का उलाहने देना, आदि से परेशां माँ नानाजी से पत्र द्वारा बतातीं। तो नानाजी को दुखी होकर यह निश्चय लेना पड़ा कि वो माँ सहित हमें अपने पास बुलाएँ, और फिर हमारे भविष्य को सोच कर अपने पास ही बुला लिया। लेकिन हम सबके लिए विशेष रूपसे माँ-पापा के लिए ये निर्णय अधिक परेशानी का था। पापा ने कुछ नहीं कहा वो मिस करते थे। कहते कुछ नहीं कम ही बोलते थे बहुत ही अभावग्रस्त जीवन जीने को विवश हो रहे थे।
आज हम महसूस कर बहुत दुखी होते हैं। तब तो हम बहुत छोटे थे। इतना ही ज्ञान था कि हमारे पापा की तबियत ठीकनहीं है। यदा-कदा वो हमारे पास आते थे, तभी की कुछ स्मृतियाँ आज भी तरोताज़ा हैं, जैसे जब वो आते तब चुपचाप आकर छत पर पड़ी कुर्सी पर बैठ जाते। दौड़ते-भागते जब हम देख लेते तो ख़ुशी से भाग कर माँ आदि सबको बताते, माँ पापा आगये हैं। हम सब उनके काम में लग जाते, उनका बहुत ध्यान रखते। किन्तु ये ख़ुशी अधिक दिन नहीं रहती और वो चले जाते। नानाजी किराये के पैसे दे देते क्योंकि उनके पास पैसे तो होते ही नहीं थे , उन्हीं पैसों में से कुछ पैसे बचा के संभाल के रखते उनसे ही जब मन करता अपने बच्चे परिवार की याद आती तो फिर हमारे पास,हाथरस आजाते।
जब आते थे उनका स्वास्थ्य बहुत कमज़ोर होता था। जितने दिन हमारे पास रहते अच्छी देख-भाल होती तो उनका स्वास्थ्य अच्छा हो जाता था। लेकिन अचानक पता नहीं धौलपुर की हुड़क होती और फिर जाने के लिए कहने लगते और तब समझाने पर भी नहीं रुकते। नानाजी किराया देते और चले जाते।कुछ दिन वहां रहते किन्तु वहां की मुश्किलों से परेशान होकर पुनः हमारे पास आजाते। लेकिन जब आते थे तो उनकी दशा देख कर बहुत दुःख होता था। टूटा हुआ चश्मा जिसका प्रयोग धागा बाँध कर करते थे। फटे पुराने गंदे कपडे,बढ़ी हुई दाड़ी कि पहचानना मुश्किल होता। नानाजी उसी समय दर्जी बुलाते, कपडे सिलवाते,नाई को बुलाते ,डॉक्टर के पास लेजाकर आँख टेस्ट कराते।चश्मा बनबाते।इस प्रकार पापा की स्थिति ठीक होती।
पापा की दिनचर्या पूर्णतया नियमित रहती।सुबह चार बजे उठना,टहलने जाना,और वहीँ बगीची पर स्नान करना,ग्यारह साढ़े ग्यारह बजे तक घर आना,खाना खाना दोपहर में आराम करना और शाम को पुनः घूमने जाना और वहां से नानाजी के ऑफिस जाना,वहां जाकर ऐल ऐल बी की बुक्स पढ़ना यही उनका क्रम रहता था। कमी थी तो ये कि एक सामान्य व्यक्ति के समान एक नौकरी पैसा जीवन न था। किन्तु स्वाभिमान में कोई कमी न थी, तभी तो अनेकों अभावों के बीच, धौलपुर जाने को तैयार होजाते।
जिंदगी के इस पड़ाव पर जब पापा को सोचती हूँ तो मन बहुत व्यथित होता है। दादी तो मेरी छोटी बहिन को दूध में अफीम भी देने लगी थी जिसका ज्ञान माँ को न था। तब एकदिन पापा की बुआ ने बताया कि तेरी मौड़ी को वो अफीम दे रही है ताकि वो सोती रहे। इन सब बातों से दुखी हो माँ ने एक बार ये सारी बात हमारे नानाजी से कहीं। परेशां होकर कुछ दिन बाद हमारे नानाजी ने हम सबको अपने पास बुला लिया।लेकिन उसके बाद हम कभी वहां नहीं गए।
आज अब मैं सोचती हूँ कि अगर हम आज के समान तब जागरूक होते तो पापा को स्वस्थ कर लेते, हम तो क्या हमारी माँ उस समय बीस-इक्कीस साल की रही होंगी वो भी आज के बच्चों की तरह समझदार तो नहीं थी फिर हम कैसे कुछ ------पर आज मैं इतना तो विश्वासपूर्वक कह सकती हूँ हमारे पापा को भी वो निश्चितरूप से खाने आदि में अफीम देती रही होंगी। जिसके परिणाम स्वरुप पापा शांत व सोचने समझने की शक्ति खो बैठे थे। यहां तक कि उन्हें पागल जैसे उपेक्षित और अपमानजनक शब्द भी बोले गए। जबकि पागल जैसा सा तो कुछ था ही नहीं। सौतेली माँ यानि हमारी दादी को किसी ने कहा था कि तुम्हारे एक लड़का होगा वो थे हमारे पापा। इन दादी के छः लड़कियां थीं, अफीम के ही प्रभाव से हमारे पापा की ऐसी स्थिति हुई होगी। तभी उनके लड़का हुआ।
यद्यपि मैं ऐसी दकियानूसी बातों पर विश्वास नहीं करती तथापि जो दिखता है तो सोचने पर विवश हूँ। उनका ये लड़का यानि हमारे चाचा हम चारों बहिन-भाइयों से छोटा है। हमारे आने के बाद हमारे पापा को घर में भी नहीं रहने दिया,मंदिर जिसके दादा स्वयं पुजारी थे वहां रहते थे। हमें नहीं पता वहां उन्होंने कैसे जीवन जीया,नित्यप्रति के कार्य,खाना-नहाना कैसे करते होंगे ! हम सबका ही ये दुर्भाग्य ही था। नानाजी के सहयोग से आज हम सब बहुत ठीक हैं लेकिन पापा का जीवन चलचित्र की भाँति जब सामने घूमता है तो बस कुछ समझ नहीं आता।
जब मैं एम् ए कर स्कूल में पढ़ाने का कार्य कर रही थी तब 1967 में हमें पापा के न रहने का समाचार मिला। वह भी 9 दिन बाद !पापा को केवल प्यार व स्नेह की आवश्यकता थी जो सबको मिलता है। इस तरह माता-पिता, हम बच्चे एक परिवार किन्तु अलग-अलग रह कर जीवन व्यतीत कर रहे थे। हम तो आदरणीय नानाजी के स्नेहिल संरक्षण में थे कि अपने पापा को भी कभी-कभी ही याद करते किन्तु पापा का एकाकी जीवन अति दुर्लभ था। माँ तो अपना दर्द किस से कहतीं,नानी भी नहीं थी,अंदर ही अंदर घुटती रहती थीं। हम चार बहिन-भाई के बीच बड़ी मैं ही हूँ इसलिए मुझे कुछ बातें घर की और पापा के साथ की याद हैं पर बाकी बहिन-भाई को कुछ भी याद नहीं। भाई का तो जन्म भी उस घर में नहीं हुआ था। और अब उसे भी कोविद ने छीन लिया,माँ भी नहीं रहीं।
हम ही तीनों बहिनें अपना गत-विगत समय को याद कर दुखी होती रहतीं हैं। ये था हमारे "बिलवेड पापा का अनपेक्षित जीवन !!" जिसमें उन्हें उनके परिवार का भी साथ यदा-कदा ही मिला ।
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