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Tuesday 30 August 2016

खुद से सवाल करो ; खुद ही जवाब दो !!


समस्या का समाधान :
खुद से सवाल करो;खुद ही जवाब दो.

          परेशानी क्या है !
          ------(मन में )पता नहीं ,कहा फोन मत करना ,मुझसे बात मत करो ,मुझे किसी से बात नहीं करनी।

          पर क्यों ?
          -----नहीं मालूम !
       
         कारण क्या हो सकता है ?
         अनुमानतः  --1 बीमार पति छोड़ कर ,कहीं और जाकर नौकरी करने के लिए मना किया था।
                             2 उसके पति के कहने से नौकरी छोड़ने को पुनः कहा था।
                             3 उसकी नौकरी की बात मामाजी ने मुझसे कही थी।
                             4 उसके बच्चों को अपने पास रखने से मना किया था।
                              5 उसकी बेटी की शादी में  नहीं जा पायी थी।

          पर ये कारण तो नहीं लगते ,इतनी बड़ी बात के लिए -
          ? फिर !
          अब क्या करना है ?

जैसा बोला गया है उसी पर टिके रहना !
आजीवन उसी संकल्प पर टिके रहना !

कि "न बोलो न बात करो। "
       
      मैं shocked हूँ ,क्योंकि मैंने कभी किसी को चोट पहुँचाने वाली कोई बात नहीं कही है ,मेरा कभी किसी से कोई झगड़ा भी नहीं हुआ है।पर जाने-अनजाने या पूर्व जन्म में कोई पाप हुआ तो ज़रूर है। भगवान् ही हिम्मत देंगे।

                                      -----------




Monday 11 July 2016

एक बात बताऊँ ---!


सबसे बड़ा सच / एक बात बताऊँ ---!

जब भी कोई कहता है कि
" उसके जैसा दुःखी कोई नहीं।"
तो सच मानिये ,इसे मज़ाक न समझें वाकई -
  " सबसे बड़ा सच "वही होता है।

क्योंकि -
           जिन परिस्थितियों में ,
           जिन     दबावों     में ,
           उसने उस छोटे से दुःख को सहा है ,
           वही जानता है कि -
           उसका " दुःख कितना बड़ा "है।
उसके लिए वही " सबसे बड़ा सच " है।
 
  यहाँ अमीरी गरीबी ऐशो-आराम सुख सुविधा सब एक तरफ ,
     और उसका दुःख " सबसे बड़ा सच  ----"

                    -------------

Friday 29 January 2016

दिल की डायरी से-


दिल की डायरी से- 

कभी कभी हठात मुझे मेरे लिए सुनाई देता है कि " एक दुःख है वैसे तो बेटे की वजह से सारे सुख हैं।"
         ग़लत एकदम ग़लत !! लोग जिसे दुःख कहते हैं,मेरी दृष्टि मैं उसे पूर्ण सुख समझती हूँ क्योंकि यह दुःख उनके लिए सुख का कारण बना। जिस दुःख से मेरे पति उस समय गुज़र रहे थे उससे उन्हें मुक्ति मिली और वह सुखी होगये इसलिए मैं सुखी ही हूँ। 
          दूसरी बात उन्होंने मेरे लिए इतना कर दिया है कि शायद मुझे उसकी आवश्यकता भी न पड़े। 
          तीसरी बात बेटे के  साथ रहकर जो सुविधाएँ मिलरही हैं,वो तो मेरे  पति के आशीर्वाद से ही हैं। उन्होंने मुझे हमेशा आराम देना चाहा ,लेकिन वैसा नहीं कर पाये,वो चाह अपने बेटे के माध्यम से पूरा कर रहे हैं। इसलिए मैं खुश हूँ ,बिलकुल दुखी नहीं हूँ। पर सुविधा रहित जीवन को ही मैं पसंद करती हूँ। 
                                     " उनके दुःख में मैं दुखी थी अब उनके सुख  में मैं सुखी हूँ।" यही है सत्य , मेरी शेष ज़िंदगी का सत्य !!    

                                                             -----------------------
    

Thursday 19 November 2015

जीवन दर्शन ( १९७३ -२०१३ )

जीवन दर्शन
 

केवल सच्चाई , ईमानदारी और ईश्वर पर विश्वास बस यही थी अपनी पूजा ! यही लेकर पति के घर में प्रवेश किया।न कभी अभाव महसूस किया न बहुत चाहना की न किसी के साथ की आवश्यकता समझी न कभी किसी से तुलना या समानता की. भगवान से हमेशा बुद्धि की याचना हर समय की। सिमट कर रह गयथा जीवन!  किन्तु संतोष था भरपूर !कठिनाइयाँ थी लेकिन कोई घबराहट नहीं थी ,सामना करने की ताकत थी। मालूम था घर में केवल पति ही हैं परिवार का साथ नहीं है इसलिए शिकायत या डर किसी बात का नहीं था। परंपरा -रीति-रिवाज़ के तौर पर कोई बंधन नहीं था क्योंकि घर में कोई बड़ा था ही नहीं दिशा दिखाने वाला।जो अपने घर में देखती आरही थी वो और भगवान का सच्चे दिल से स्मरण ,यही थे रीति-रिवाज़ !
            घर में हम दो थे फिर वरदान स्वरुप दो  बच्चे परिवार में दाखिल हुए। भगवान द्वारा दीगई सूझ-बूझ से और उनके आशीर्वाद से परिवार में संवर्धन होता रहा। बच्चे बड़े हुए ,आवश्यकताएँ बढ़ीं ,ईश्वर की कृपा से वे पूरी होती रहीं। बच्चों का भी पूर्ण सहयोग रहा उन्हें भी भगवान ने सही विवेक-बुद्धि दी। कभी अधिक उन्होंने माँगा नहीं। हमारी भी बच्चों के प्रति कुछ इच्छाएँ होतीं थीं पर न कभी कहा न कभी इस्रको लेकर दुखी ही हुए। भगवान ने ऐसा कभी होने नहीं दिया। लेकिन समय आने पर इतना दिया जिसको कभी सोचा न था। भगवान पर गर्व है कि  कमी को कभी महसूस नहीं होने दिया और उपलब्धि पर कभी घमण्ड नहीं होने दिया।सच्चाई-ईमानदारी व संतोष देकर शायद जीवन में की गई गलतियों को भी क्षमा कर दिया।मैंने महसूस यही किया है कि भगवान मेरे साथ सदैव रहे हैं और विश्वास के साथ कह सकती हूँ  कि मुझे उनका साक्षात्कार भी हुआ है।
          प्रार्थना है कि शेष जीवन में भी अपना वरद-हस्त  मेरे सर पर बनाये रखें। समय-समय पर सचेत करें,सहनशीलता, समर्पण,त्याग आदि सद्गुण प्रदान करें। साभार !!   

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Tuesday 27 October 2015

छोड़ दो !!

    छोड़दो !! 


" छोड़दो।"
आखिर क्यों ?
कहते हैं  " पीना " अच्छा नहीं होता।"
"ज़हर" है ,यह -
तुम्हेँ अन्दर ही अन्दर जला  रहा है।
कहते हैं,अपना भविष्य सँभालो,आगे बढ़ो -

पर मुझे तो उसके बिना कुछ भी अच्छा नहीं लगता
अधूरी लगती है ज़िन्दगी
कहते हैं,माँ भी तो यही चाहती है
पर क्यों,अगर मुझे उससे सुकून मिलता है -
तो क्यों हो किसी को एतराज़ ?
फिर मुसीबत में तो अच्छे-अच्छे साथ नहीं छोड़ते -
तो मैं क्यों छोड़ूँ ?
उन्हें नहीं पता कि उसे छोड़ने की कल्पना मुझे कितना व्यथित करती है और
उसके साथ रहने की कल्पना भी मुझे कितना रोमांचित करती है -
सहारा है वह मेरा !
सर्वस्व है वह मेरा !
फिर बुराई-दोष किसमें नहीं होते !
फिर उसकी अच्छाई क्यों नहीं दिखाई देती किसी को !
मुझे तो उसके साथ की  कल्पना से भी नींद भी अच्छी आती है,
शान्ति मिलती है ,सन्तुष्टि मिलती है और -
सुबह तरो-ताज़ा होती है।

पर कभी-कभी ये उसका भ्रम भी होता है और -
       मनुष्य ऐसे  दोराहे पर आकर अटक जाता है,अन्य-मनस्क होजाता है !!!

लेकिन ये क्या !
अचानक छोड़दो छोड़दो छोड़दो की गूँज -
एक अलग सा राहत भरा एहसास-
आँखों के सामने एक ज्योतिर्मय पथ दिखाई दिया -
लगा यही है मेरी ज़िन्दगी का रास्ता
जो मेरी ही प्रतीक्षा कर रहा था
ख़त्म हुयी अन्य मनस्कता।
छोड़ दिया उसे सदा सदा के लिये।

मानली सबकी बात ! और-
सँभाल ली अपनी ज़िंदगी !!!

                हे ईश्वर !

               कोटिशः प्रणाम !!! 
               शतशः नमन !!!


एक महात्मा का प्रभाव ( एक कहानी )

एक महात्मा का प्रभाव ( कहानी )


मनोरम वातावरण ! उन्मुक्त प्रकृति विलास ! चिड़ियों की चहचहाहट !मेमनों की मिमियाहट !कल- कल बहती नदी और झर- झर झरते प्रपात !इन सबके बीच घाटी में बसा एक गाँव !बहुत ही कम आबादी किन्तु लूट-मार, ईर्ष्या-द्वेष ,लड़ाई -झगड़ा ! पूरी तरह आतंक के साये में जी रहा गाँव !!
                 कि अचानक एक प्रातः स्वोद्भूत गुफा में एक महात्मा के दर्शन ने पूरे गाँव को चकित कर दिया।  अद्भुत अपूर्व तेज ,आकर्षक व्यक्तित्व ,न जाने कैसा था जादुई प्रभाव ! कि आपसी द्वेष ,मार-काट सब भूल गए। गाँव में कोलाहल !  "एक महात्माजी आये हैं गाँव में, समाधि ग्रस्त हैं।" उमड़ पड़ा सारा गाँव। आकर महात्माजी के चरणों में बैठ गया। समाधि टूटी तो श्रद्धालुओं ने नत मस्तक हो प्रणाम किया। धीरे-धीरे भक्त जनों की भीड़ बढ़ने लगी। उपहारों के ढेर; भोजन,वस्त्र,ओढन,बिछावन सब कुछ महात्माजी की सेवा में समर्पित !शांत और प्रसन्न मुद्रा। महात्मा जी प्रवचन करने लगे। ध्यान मग्न श्रद्धालु विभोर होगये। नित्य ही का यह क्रम बनगया। जनता आती,भगवत-चर्चा ,भजन-कीर्तन,संस्कार जनित बातें होती।  गाँव अब एक आध्यात्मिक -नगरी बन चुका था।प्रभाव इतना गंभीर कि एकदिन ग्राम-वासी एक विस्मयकारी प्रस्ताव लेकर महात्माजी के पास आये। हाथ जोड़ कर विनम्र स्वर में बोले -" इस पुण्य -भूमि में एक मंदिर बनाने का प्रस्ताव !मुग्ध हो गए महात्माजी,तुरंत बोले -उत्तम विचार ,कल एकादशी है कल का दिन श्रेष्ठ है।
       प्रसन्न-चित्त गाँव वाले दूसरे ही दिन राज-मजूर और अन्य सामग्री लेकर गन्तव्य पर पहुँच गए। किन्तु ये क्या महात्माजी की कुटिया खाली ! कहाँ गए महात्माजी !सभी स्तब्ध !हतप्रभ कौन थे ,क्यों आये ,कहाँ गए वे सन्त ? लेकिन मंदिर बना आस्था का ! लोग पूर्व-वत आते रहे ,भगवत-चर्चा होती रही, भजन-कीर्तन चलता रहा। लोग पूरी तरह धार्मिक होगये।
         एकदिन जब सत्संग,चलरहा था,तभी एक आवाज़ ने चौंकाया,अरे महात्माजी आगये -----और महात्माजी अपने समाधि स्थल पर आखड़े हुए,आभा-मण्डित,सर झुकाये।अपना नकाब हटाया--और बोले -सारे गाँव के हालात देखकर मन बहुत व्यथित था,उद्विग्न था यही सोचकर ये नकाब--- इतना कहते-कहते वहीं गिर गए
और चिर समाधि लेली। आत्मा परमात्मा में विलीन होगई----------
      सभी हकबके से,
      सर्वत्र सन्नाटा ,
      कोई हलचल नहीं ,
विस्फारित नेत्रों से एक दूसरे को देखने लगे। तभी एक आवाज़ आयी ,अरे ये ए ए ए तो ओ ओ ओ नुक्कड़ पर बैठने वा आ आ ला आ आ दीन-हीन,उपेक्षित मोची --
भक्त-जनों की आँखों से अविरल अश्रुधारा प्रवाहित होनेलगी।उन्हीं में से एक और आवाज़ ----एक मोची सारे गाँव का सुधार करगया।
         महात्माजी की जय ,महात्माजी की जय ----समस्त दिशाओं से एक ही ध्वनि गूँज उठी --
           अब मंदिर के साथ साधु महात्मा का स्मारक भी बना। न कोई झगड़ा न कोई फसाद !!केवल और केवल
भजन-कीर्तन ,सुख-शान्ति की नगरी बना गाँव !!

                                                            ------------------

  

     

            

स्वानुभव ( यथार्थ एवं रोमांचक )

जीवन में घटित कुछ चकित करने वाली घटनाओं का वर्णन --------
                                                1 

  " जो ठीक लगे वह करें।"
और अस्पताल चली गयी क्योंकि वो अस्पताल में एडमिट थे।
           सब कुछ गत-विगत हो गया। उनके जाने के बाद जैसे भी था समय बहुत ही ऊहा-पोह में व्यतीत हो रहा था।  समझ ही नहीं आरहा था कि आगे क्या होगा। आँसू बहते कभी सूखते। ऐसे में अचानक एकदिन उक्त वाक्य दिमाग में कौंधा। रोम-रोम काँप उठा,कुछ याद आया.ऐसा लगा जैसे अंदर से आवाज़ आरही हो कि अब क्यों रोरही हो तूने तो कहा था " जो ठीक लगे वो करना " .हाँ, 5 . 2 . 2013 को सुबह अस्पताल जाने से पहले भगवान के सम्मुख नतमस्तक हुई थी तब मैंने यही वाक्य बोला था और मैं चली गयी। मतलब कि क्या मुझसे किसी ने कुछ पूछा था जिसके उत्तर में मैंने ये कहा था।क्या था ये !नहीं पता। कुछ नहीं कह सकती। मन उद्विग्न हो उठा,बेचैनी सी होने लगी। थोड़ा सँभलने के बाद यह सब अपनी बहू से कहा वह तुरन्त ही बिना कुछ सोचे बोली -" ये तो संवाद है।"
                                             
                                               ******

                                                 2 

     1st.2014 अप्रेल को घटी घटना ने बुड्ढी से बूढ़ी बना दिया।सुबह पाँच बजे उठकर बाथ रूम में जाकर गरम पानी के लिए रोड की तरफ जैसे ही झुकी,हाथ बढ़ाया,कि इतने ज़ोर का धक्का लगा कि केवल दो फ़ीट की दूरी रही होगी दीवार की,उससे मेरा सर क्रिकेट बॉल की तरह ( गिरते हुए )दो बार इतने ज़ोर से टकराया कि दूसरे रूम में सो रही बहू जाग कर आई ५ मिनट तक आवाज़ देती रही  मम्मी मम्मी दरवाज़ा खोलो हमें डर लग रहा है ,क्या हुआ।मुझे बहू की कोई आवाज़ नहीं सुनाई दी,गिरते ही मैं तो किसी दूसरी ही दुनिया में थी , एकदम खुश थी, भगवान से कह रही थी हे भगवानजी,ये तो बहुत ही आसान मौत देदी।तभी बेटे की आवाज़ सुनाई दी --मम्मी मम्मी ,मैनें कहा,आई एक मिनट ( मानो अपनी  दुनिया में बापस आगयी )खिसक-खिसक कर दरवाज़े तक आई ,चिटकनी खोली,बस इसके बाद पेट की साइड में जो सीवियर पेन शुरू हुआ उसे  परिवार  ही जानता है।

    सात हफ्ते तो बिलकुल उठने की कंडीशन में नहीं थी।बहुत रोना आता था,भगवान पर  गुस्सा भी आता था  मौत देकर फिर छीनी क्यों?सोचती क्या यमराज से ही गलती होगयी या कुछ और ही था। कुछ दिन बाद पूरे शरीर से स्किन हटगई,जीभ के ऊपर के छाले या स्किन भी हटगए,हाथों के रोम भी गायब होगये ,पैर की दसो उंंगली गहरे नीले रंग की होगईं।शरीर की स्किन का कलर लाल होगया , सबकुछ मरणोपरान्त के ही लक्षण थे , ये तो पुनर्जन्म ही हुआ पर क्यों ?इस अवस्था में तो इसकी ज़रूरत भी नहीं थी।शरीर को लेकर पुनः यथावत खड़ी होगयी हूँ। न जाने कबतक के लिए।काम करती रहूँ,किसी पर भार न बनूँ ,बस यही भगवान से प्रार्थना है। 
           
            उक्त वृतान्त भले ही असहज व भ्रम-पूर्ण अविश्वसनीय प्रतीत हो किन्तु भगवान पर भरोसा है तो ये कुछ भगवान के संकेत हैं, जिन्हे समझना समझ से परे है।


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