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Monday, 17 February 2014

श्रद्धांजलि -----पुत्री के उद्गार

पुत्री के उद्गार: अपने पापा के प्रति 

पापा ,आप मेरे कारण दुखी थे
पर पापा उसमें मेरा क्या दोष था ?
आपके दुःख के कारण शादी करने का निश्चय किया -
और की भी !
आपका भी सारा काम मैंने कर -
आपकी परेशानी दूर की।
आपका आशीर्वाद भी मिला -
मैं खुश भी देखी आपने -
आपके आशीर्वाद से घर भी बना
आपने देखा भी "पा "
आपने नाती को भी देखा।
और इसके बाद, 
हमें इतना बड़ा "अभाव" देकर चले गए -
पापा, ये आपने अच्छा नहीं किया -
पर मुझे महसूस ज़रूर हुआ है अनेक बार -
"आप मेरे पास ही हैं"-
और हमें वह सब दे रहे  हैं, 
जो पहले नहीं दिया,पापा!

           आपका आशीर्वाद बना रहे ।
              श्रद्धानत आपकी बेटी।  

                          ----------- 

श्रद्धांजलि (पुत्र के उद्गार )

पुत्र के उद्गार:अपने पापा के प्रति 
 
पापा आपने कहा था -
मेरी कब्र पर ये पंक्तियाँ लिखवा  देना 
-
    "ये ज़िंदगी के मेले दुनिया में 
     कम न होंगे अफ़सोस हम न होंगे ---"

पापा मुझे नहीं पता था इतनी गहराई थी 
आपके इस कथन में ----
पापा मैंने पेपर में निकलवा दिया -
लेकिन पापा मैं किसे दिखाऊँ 
कौन गलतियाँ  निकालेगा। 
इतनी जल्दी छोड़ कर चले जायेंगे 
मुझे नहीं मालूम था कि आप मुझे 
"अपने बिना" भी छोड़ सकते हैं। 
आपने नहीं सोचा, 
आपका बेटा कितना नादान है -
मैं क्या करूंगा आपके बिना -
क्यूँ आपने ऐसा किया पापा ?

पर ठीक है पापा 
आपके जाने के बाद मैंने समझा 
आप अनेक बीमारियों से जूझ रहे थे 
आप कह भी नहीं पा  रहे थे 
कम से कम आपको, 
उन कष्टों से मुक्ति मिली ,पापा !
मुझे मालूम है पापा, 

आप मुझे बहुत सारा आशीर्वाद,प्यार और हिम्मत देकर गए हैं। 
मैं उसी के सहारे आपके बताये अनुसार ही सब काम  करूँगा।

          आपका आशीर्वाद बना रहे। 
             श्रद्धानत आपका बेटा।  

                        ***

                      
                           
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Saturday, 15 February 2014

जीवन का वो आख़िरी दिन ---

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स्मृति

स्मृति 

आपने कहा था- ( हॉस्पिटल में )
"तुमने भी इतना सहा, इतना सहा  कि तोड़के तो दिखा",मतलब मैं समझ गई थी कि आप क्या कहना चाहरहे हैं। मेरी आँखें तब अश्रु-पूरित होगईं।
          आपका यह वाक्य मुझे हमेशा हिम्मत देता रहेगा।

                                  *****
       








दिवा-स्वप्न (परस्पर सम्वाद ) 6.2. 2013

दिवास्वप्न (परस्पर सम्वाद)

     कभी पापा!कभी बापू!कभी पा!कभी पापाजी!कभी दादा!  कभी दादू!कभी श्रीमानजी!लेकिन अब कुछ नहीं क्या ? मेरी जगह खाली होगयी ? क्या ऐसा ही होता है ? क्या यही है सच्चाई ?
      हाँ,प्रकृति का तो यही है नियम!और यह नियम तो सबके लिए समान है। आपकी  खाली जगह तो यूँ ही वीरान, बीहड़ पड़ी है। हर पल हर समय सालती है, चुभती है,बहुत दर्द देती है। बहुत पीड़ा देती है। एकांत में बहुत रुलाती है।
           तभी एक आवाज़ सुनाई देती है।पगली मैं कहीं नहीं गया, तुम्हारे ही पास हूँ। मैं वैसा ही हूँ,तुम्हें देखता रहता हूँ,चिंता-मुक्त हूँ। सोचता हूँ,मैं बच्चों को दुनियादारी सिखाने की बातें करता था पर मैं तो सबको अकेला छोड़कर खुद ही चला आया। यहाँ भगवान् भी मुझसे यही सवाल पूछते हैं जो मैं कहता था कि ------तब मैं चुप ही रहता हूँ,मेरे पास उनके सामने कोई जबाव नहीं होता। सिर्फ़ मेरा परिवार मेरे सामने होता है और उनकी आँखों में भी बहुत से सवाल मुझे दिखाई देते हैं। 
           यह बात तो सही है,सवाल तो बहुत हैं श्रीमानजी,मुश्किलें भी बहुत है  किन्तु जब भी समस्याएँ आती हैं,तो ऐसे सुलझ जाती हैं जैसे आप ही ने सुलझा दी हों,महसूस होता है ऐसा,कईबार हुआ है ऐसा। पर उलझनें  आने पर कभी-कभी तो लगता है कि कहीं से आकर आप  एक दहाड़ लगादें , सबठीक होजायेगा।

              किन्तु आपने बिलकुल अच्छा नहीं किया।बहुत दुखी किया है आपने। 


                                                      **
                                                                                                                                                                                                                           ----------------------- 

६ फरवरी २०१३ की वो काली भयावह रात

६फरवरी २०१३ की वो काली भयावह रात !

देखते -देखते चले गए 
मैं देखती रह गयी
मैं बातें करती रह  गयी ,चिल्लाती रह गयी
फटी हुई आँखें  बंद करती रह गई -
और तुम विदा लेगये !
डॉक्टर की टीम आगई --
कृत्रिम साँसें देते  रहे  लेकिन --
तुम नहीं लौटे और तभी एक आवाज़ ने -
"माताजी धड़कनें बंद हो चुकी हैं."मुझे
स्तब्ध कर दिया ,मैं जड़वत हो गई ---
मैं ठगी सी ज़मीन पर बैठ  गयी-
गले की आवाज़ बंद ,रोना बंद ,
पैर चलने को तैयार नहीं,पर चली -
लिफ्ट चलाना भूल गई -
सीढ़ी से उतरी ,उतरा न जाए -
बैठ गयी -
फिर बढ़ी,उतरी -
जैसे-तैसे ट्रौमा-सेंटर तक पहुँची -
हत-प्रभ ,हत-प्रभ ,हत -प्रभ !!!

       एक पल में सब कुछ ख़तम
       रह गया  तो एक काली भयावह रात का सन्नाटा ------!!!

                                  ---------

Wednesday, 5 February 2014

एकाकीपन


एकाकीपन

एकाकीपन जीवन की  वह साधनावस्था है,जिसमें मानव एकाकी बैठ कर चिंतन करे कि अबतक उसने क्या किया और क्या करना शेष है। यह साधना कठिन नहीं होती ,केवल उसे भावी -जीवन का मार्ग दर्शन करेगी।

एकाकीपन !
यह जीवन का अटूट-सत्य है।              
हर प्राणी अकेला ही है -
क्षणिक मिथ्या-सम्बन्धों को सही मानकर -
स्वयं को भ्रमित कर ,दुखी करता है।              
 
वह भीड़ में भी अकेला होता है ,
समुदाय में भी अकेला होता है -
यहाँ तक कि परिवार में भी अकेला होता है।

जब भी कोई दुर्घटना घटित होती है तो -
सबको छोड़ कर अकेला ही चल देता है।

मानव केवल कर्त्तव्य निभाने के लिए जन्म लेता है-
और इसमें यदि कोई दूसरा मोह-ग्रसित होजाता है और
उससे वियुक्त होने पर दुखी होता है ,पछताता है -
ये तो उसीकी अज्ञानता है ,विमूढ़ता है

वह अकेला ही है ,जब तक जीवन है अकेला ही रहेगा।
अच्छे और बुरे कर्मों के अनुसार केवल ईश्वर से ही जुड़ा है
वह दुखी तब होता है जब स्वयं को ईश्वर से जुड़ा नहीं समझता।

अच्छा हो एकाकी रहकर अपने कर्मों का लेखा -जोखा खुद करें और आत्म-विश्लेषण करे।

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