मनोगत भाव
भगवान ने हमें दो बहुत खूबसूरत वरदान दिये ,जिनकी परवरिश में उनका पूरा सहयोग रहा , उनकी खशबू फैली सर्वत्र। लेकिन हमारी ओर से ही एक कमी रहगयी ,हमने उन्हें प्यार दिया ,उचित संरक्षण दिया ,लेकिन उसमें जिस लगाव एवं आसक्ति की आवश्यकता होती है ,उसे नहीं दिखा पाये। लगाव और आसक्ति व्यक्ति को प्रायः कमज़ोर बनाती है इसलिए मैं इसे बुरा भी नहीं मानती।पर कमी तो है ही। वैसे ये कमी हमें अधिक महसूस होती है वह भी वृद्धावस्था में ,पर ये कमी उनके जीवन के विकास में कभी बाधा नहीं बनी। पर ऐसा भी नहीं है कि उन्हें कभी महसूस ही नहीं हुई हो। हमेशा होती रहेगी। ये माता -पिता का त्याग है जो कभी उनकी उन्नति में बाधा न बना, न बनेगा। इसीलिये वे पूर्णतया आत्मनिर्भर हैं। शुभकामनाओं के साथ --माँ
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कभी -कभी आप बहुत याद आते हैं, आप पर बहुत प्यार आता है,क्योंकि साथ रहते हुए तो हमेशा आपके अकारण क्रोध से भय-भीत रहती थी। हमेशा मानसिक तनाव में ही रहती थी। आपके जाने के बाद तनाव ख़त्म और अब केवल और केवल आपको याद करती हूँ। साथ रहते हुए तो आपके प्रति सहानुभूति, दया और आदर के ही भाव थे और जब-तब तनातनी ही रहती थी। भर-पूर प्यार को तो आपने कभी मौका ही नहीं दिया। साथ-साथ घूमे-फिरे पर हम दोनों ही एक प्यार का अभाव महसूस करते रहे। आपके जाने के बाद आपकी यादों को ही प्यार करती हूँ।
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कहते हैं कि व्यक्ति की आखिरी इच्छा ज़रूर पूरी करनी चाहिये।अब बताइए मेरी इच्छा कौन पूरी करेगा। आपने तो अपनी सारी इच्छाएँ पूरी करालीं लेकिन मैं ? मैंने चाहा था बच्चों की पोस्टिंग आने वाली है उनके जाने के बाद मैं आपके साथ रहकर आपके मन का खाना खिलाऊँगी तो आपका स्वास्थ्य ठीक हो जायेगा।लेकिन वैसा नहीं हुआ। क्योंकि किसी का घर में रहना,आना,दो घंटे भी टिकना पसंद नहीं था। बच्चे आपकी परमिशन लेकर आये थे ,पर आपको कुछ दिन बाद ही मुश्किल होने लगी थी लेकिन बच्चे हमारे हैं क्या करते और आप चले गए। किसी का कोई कुसूर नहीं था ,समय प्रबल था अच्छा हुआ। पर अब आप बताइये कि मेरी इच्छा कैसे पूरी हो सकती है। आपने हमेशा अपनी इच्छा पूरी कीं और जब नहीं होपाईं तो चल दिए।भाग्य मेरा !!!
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एक वर्ष बहुत दुःखी रही ,बहुत सन्तप्त रही,अपने आप से बहुत ग्लानि होती रही। पर अचानक उत्पन्न ऊर्जा में सब कुछ भस्म होगया। वह पल जिसे मैं घातक समझ रही थी ,मेरी ज़िदगी का प्रेरक पल था ,ईश्वरीय सत्ता से प्रेरित था। इसे मैंने एक वर्ष व्यतीत होजाने पर स्वयं महसूस किया। आज मैं खुश हूँ, संतुष्ट हूँ,शान्त हूँ,मन में शिकवा ,शिकायत नहीं है। यह ऊर्जा ईश्वरीय प्रेरणा ही थी। हे ईश्वर !आपको कोटिशः प्रणाम !!
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मैंने तो चाहा था कि मैं नॉएडा में ही रहूँ और जब-तब जैसे आपके साथ आती - जाती रहती थी वैसे ही बच्चों के पास जाती रहूँगी। लेकिन वैसा हो न पाया। बहुत से सवालों का सामना करना पड़ रहा था। आप तो चले गए ,समय तो मुझे व्यतीत करना था ,वह भी नहीं पता कितना ! फिर सोचा मेरे वहाँ अकेले रहने से अनुपम भी तो चिंतित रहता ही होगा ,वह कुछ कहे या न कहे साथ रहने का आग्रह तो करता ही था। इसलिए सबकुछ भुला कर बच्चों के साथ ही रहने का निश्चय किया और यही ठीक भी लगा। अपनी इच्छाएँ समाप्त करो ,क्या ,क्यों बंद करो और जो है उसी में खुश रहो। बस इसके बाद तो दुःख काहेका ! बल्कि अनुपमके चेहरे पर जो संतोष दिखाई देता है मैं उसी में संतुष्ट। फिर आपकी बहू और ईलू का अच्छा साथ है। ईलू बहुत अच्छी बातें कर हँसाती रहती है। अरमान ज़्यादा न रखो तो तकलीफ किस बात की !बच्चों के साथ खुश हूँ। समय व्यतीत करने में भी कोई मुश्किल नहीं होती। आपको और भगवान को याद कर कट ही रहा है,कब तक यह तो पता नहीं।
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सुहाग के वो आखिरी पल जो ---जुलाई २०१५।
ज़िंदगी के सर्वाधिक दुखदायी पल थे। ह्रदय- विदारक और कष्ट -पूर्ण थे,आँखों के सामने का वह अविस्मरणीय दृश्य,जिसे भोगा जो विचलित करनेवाला अत्यधिक शोक पूर्ण था,बहुत याद आता है। न जाने क्या था उन पलों में कैसा संतोष था उन दुखद पलों में भी, जो यादगार बनगया -
चाय के दो - तीन घूँट पिलाना और -
बीच - बीच में बिस्किट खिलाना उसके बाद
एक सेंड विच का पीस खिलाना और फिर उनकी डाँट -!
"खिलाना है तो बिस्किट खिलादो नहीं तो रहने दो "
आखिरी उनके ये मूल्यवान शब्द,जिसके बाद उनकी वह आवाज़ सदा-सदा के लिए शून्य में विलीन होगयी। वे मर्म-भेदी पल बहुत याद आते हैं पर एक संतोष के साथ। कैसा संतोष ,नहीं पता !
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