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Tuesday, 2 July 2024

मेरे पापा और उनका परिवार

मेरे पापा और उनका परिवार 

   अपने पापा के विषय में अन्यत्र भी प्रासंगिक रूप से थोड़ा बहुत लिख चुकी  हूँ। पर आज मैं कुछ अधिक विशेष जानकारी  देने का प्रयास कर रही हूँ। मेरे दादा धौलपुर निवासी श्री राम नाथ शर्मा रईस के नाम से विख्यात थे। तब राजा-तंत्र था। वे वहां के नर्सिंग भगवान के मंदिर के पुजारी थे। मंदिर में जब भी कोई पारम्परिक उत्सव होता था तो पूरा परिवार राजसी घराने के राजस्थानी लिबास से सुसज्जित होकर उपस्थित होता था। माँ का विवाह बहुत ही शानदार तरीके से हुआ। बारात की चार दिन तक आवभगत की गयी। भर-पूर लेनदेन व शानो सज्जा के साथ सम्बन्ध स्थापित हुआ।

   हमारे पापा सबसे पहली संतान थे , उस से पहले दादाजी तक सब गोद ली हुई संतान थी। बहुत ही लाढ़-प्यार से पापा का लालन-पालन हुआ। उनकी शिक्षा बी ए ,एल एल बी तक हुई। माँ के विवाह के तीन वर्ष बाद मेरा जन्म हुआ था। मेरे बाद मेरी दो बहिनों का जन्म हुआ। तीन लड़कियों के लिए माँ को बहुत सुनना पड़ता।जब माँ पापा से कहतीं तो पापा कहते कोई कुछ भी कहे भी कहे चिंता मत करो, मैं अपनी बेटियों को पढ़ा-लिखा कर योग्य बनाउँगा उसके बाद ही  विवाह करेंगे। इस  तरह सब ठीक ही चल रहा था। 

  पर अचानक पापा को दिमागी रूप से कुछ परेशानी होने लगी। हुआ यूँ कि हमारे पापा अंग्रेज़ मजिस्ट्रेट के अधीन काम करते थे जो उन्हें अपने अनुसार गलत पेपर पर सिग्नेचर करने के लिए बाद्ध्य करता था जो पापा को मंज़ूर नहीं था। और ऐसे  ही विवादों के होते हुए उन्हें एक दिन नौकरी से हटा दिया गया। मैं छोटी थी इसलिए अधिक नहीं जानती पर जो याद है वो ये कि शायद उसके बाद ही अचानक एक दिन पापा घवराये हुए  घर आये और कहने लगे कि दादा पुलिस आरही है और उन्होंने अपनी सारी लॉ की किताबें जलादीं, बस चुप  होगये।घर में सन्नाटा छा गया।  बहुत उपचार कराया लेकिन कोई सुधार नहीं हुआ। काम पर जाना बंद कर दिया,कभी-कभी अनावश्यक रूप से घर में जो मुझे याद है माँ पर गुस्सा होते,फिर शांत होजाते। बस यहीं से हमारे जीवन की दिशा बदल गयी।

  मुझे अपने पापा के साथ के कुछ मधुर पल भी याद हैं जैसे मुझे शाम को साइकल पे घुमाने लेजाना,शाम को ठंडाई घोटना,कभी भल्ले वाले को बुला लाना घर पर। बुआ को आवाज़ लगाकर बुलाना। पर इस सब के साथ माँ का जीवन अति संघर्षपूर्ण था। तीन लड़कियाँ,पापा का काम छूटना, और सौतेली माँ यानि मेरी दादी का उलाहने देना, आदि से परेशां माँ नानाजी से पत्र द्वारा बतातीं। तो नानाजी को दुखी होकर यह निश्चय लेना पड़ा कि वो माँ सहित हमें अपने पास बुलाएँ, और फिर हमारे भविष्य को सोच कर अपने पास ही बुला लिया। लेकिन हम सबके लिए विशेष रूपसे माँ-पापा के लिए ये निर्णय अधिक परेशानी का था। पापा ने कुछ नहीं कहा वो मिस करते थे। कहते कुछ नहीं कम ही बोलते थे बहुत ही अभावग्रस्त जीवन जीने को विवश हो रहे थे।

  आज हम महसूस कर बहुत दुखी होते हैं। तब तो हम बहुत छोटे थे। इतना ही ज्ञान था कि हमारे पापा की तबियत ठीकनहीं है। यदा-कदा  वो हमारे पास आते थे, तभी की कुछ स्मृतियाँ आज भी तरोताज़ा हैं, जैसे जब वो आते तब चुपचाप आकर छत पर पड़ी कुर्सी पर बैठ  जाते। दौड़ते-भागते जब हम देख लेते तो ख़ुशी से भाग कर माँ आदि सबको बताते, माँ पापा आगये हैं। हम सब उनके काम में लग जाते, उनका बहुत ध्यान रखते। किन्तु ये ख़ुशी अधिक दिन नहीं रहती और वो चले जाते। नानाजी किराये के पैसे दे देते क्योंकि उनके पास पैसे तो होते ही नहीं थे , उन्हीं पैसों में से कुछ पैसे बचा के संभाल के रखते उनसे ही जब मन करता अपने बच्चे परिवार की याद  आती तो फिर हमारे पास,हाथरस आजाते।

  जब आते थे उनका स्वास्थ्य बहुत कमज़ोर होता था। जितने दिन हमारे पास रहते  अच्छी देख-भाल होती तो उनका स्वास्थ्य अच्छा हो जाता था। लेकिन अचानक पता नहीं धौलपुर की हुड़क होती और फिर जाने के लिए  कहने लगते और तब समझाने पर भी नहीं रुकते। नानाजी किराया देते और चले जाते।कुछ दिन वहां रहते किन्तु वहां की मुश्किलों से परेशान होकर पुनः हमारे पास आजाते। लेकिन जब आते थे तो उनकी दशा देख कर बहुत दुःख होता था। टूटा हुआ चश्मा जिसका प्रयोग धागा बाँध कर करते थे। फटे पुराने गंदे कपडे,बढ़ी हुई दाड़ी कि पहचानना मुश्किल होता। नानाजी उसी समय दर्जी बुलाते, कपडे सिलवाते,नाई को बुलाते ,डॉक्टर के पास लेजाकर आँख टेस्ट कराते।चश्मा बनबाते।इस प्रकार पापा की स्थिति ठीक होती।

 पापा की दिनचर्या पूर्णतया नियमित रहती।सुबह चार बजे उठना,टहलने जाना,और वहीँ बगीची पर स्नान करना,ग्यारह साढ़े  ग्यारह बजे तक घर आना,खाना खाना दोपहर में आराम करना और शाम को पुनः घूमने जाना और वहां से नानाजी के ऑफिस  जाना,वहां जाकर ऐल ऐल बी की बुक्स पढ़ना यही उनका क्रम रहता था। कमी थी तो ये कि एक सामान्य व्यक्ति के समान एक नौकरी पैसा जीवन न था। किन्तु स्वाभिमान में कोई कमी न थी, तभी तो अनेकों अभावों के बीच, धौलपुर जाने को तैयार होजाते। 

  जिंदगी के इस पड़ाव पर जब पापा को सोचती हूँ तो मन बहुत व्यथित होता है।  दादी तो मेरी छोटी बहिन को दूध में अफीम भी देने लगी थी जिसका ज्ञान माँ को न था। तब एकदिन पापा की बुआ ने बताया कि  तेरी मौड़ी को वो अफीम दे रही है ताकि वो सोती रहे। इन सब बातों से दुखी हो माँ ने एक बार ये सारी बात हमारे नानाजी से कहीं। परेशां होकर कुछ दिन बाद हमारे नानाजी ने हम सबको अपने पास बुला लिया।लेकिन उसके बाद हम कभी वहां नहीं गए। 

 आज अब मैं सोचती हूँ कि अगर हम आज के समान तब जागरूक होते तो पापा को स्वस्थ कर लेते, हम तो क्या हमारी माँ उस समय बीस-इक्कीस साल की रही होंगी वो भी आज के बच्चों की तरह समझदार तो नहीं थी फिर हम कैसे कुछ ------पर आज मैं इतना तो विश्वासपूर्वक कह सकती हूँ हमारे पापा को भी वो निश्चितरूप से खाने आदि में अफीम देती रही होंगी। जिसके परिणाम स्वरुप पापा शांत व सोचने समझने की शक्ति खो बैठे थे। यहां तक कि  उन्हें पागल जैसे उपेक्षित और अपमानजनक शब्द भी बोले गए। जबकि पागल जैसा सा तो कुछ था ही नहीं। सौतेली माँ यानि हमारी दादी को किसी ने कहा था कि  तुम्हारे एक लड़का होगा वो थे हमारे पापा। इन दादी के छः लड़कियां थीं, अफीम  के ही प्रभाव से हमारे पापा की ऐसी स्थिति हुई होगी। तभी उनके लड़का हुआ। 

 यद्यपि मैं ऐसी दकियानूसी बातों पर विश्वास नहीं करती तथापि जो दिखता है तो सोचने पर विवश हूँ। उनका ये लड़का यानि हमारे चाचा हम चारों बहिन-भाइयों से छोटा है। हमारे आने के बाद हमारे पापा को घर में भी नहीं रहने दिया,मंदिर जिसके दादा स्वयं पुजारी थे वहां रहते थे। हमें नहीं पता वहां उन्होंने कैसे जीवन जीया,नित्यप्रति के कार्य,खाना-नहाना कैसे करते होंगे ! हम सबका ही ये दुर्भाग्य ही था। नानाजी के सहयोग से आज हम सब बहुत ठीक हैं लेकिन पापा का जीवन चलचित्र की भाँति जब सामने घूमता है तो बस कुछ समझ नहीं आता। 

 जब मैं  एम् ए कर स्कूल में पढ़ाने का कार्य कर रही थी तब 1967 में हमें पापा के न रहने का समाचार मिला। वह भी 9 दिन बाद !पापा को केवल प्यार व स्नेह की आवश्यकता थी जो सबको मिलता है। इस तरह माता-पिता, हम बच्चे एक परिवार किन्तु अलग-अलग रह कर जीवन व्यतीत कर रहे थे। हम तो आदरणीय नानाजी के स्नेहिल संरक्षण में थे कि अपने पापा को भी कभी-कभी ही याद करते किन्तु पापा का एकाकी जीवन अति दुर्लभ था। माँ तो अपना दर्द किस से कहतीं,नानी भी नहीं थी,अंदर ही अंदर घुटती रहती थीं। हम चार बहिन-भाई के बीच बड़ी मैं ही हूँ इसलिए मुझे कुछ बातें घर की और पापा के साथ की याद हैं पर बाकी बहिन-भाई को कुछ भी याद नहीं। भाई का तो जन्म भी उस घर में नहीं हुआ था। और अब उसे भी कोविद ने छीन लिया,माँ भी नहीं रहीं।

  हम ही तीनों बहिनें अपना गत-विगत समय को याद कर दुखी होती रहतीं हैं। ये था हमारे "बिलवेड पापा का अनपेक्षित जीवन !!" जिसमें उन्हें उनके  परिवार का भी साथ यदा-कदा ही मिला ।   

                                             **      

                                           





   



Wednesday, 22 November 2023

धन्यवाद प्रभु !!


प्रभु ; आपने तो सब कुछ दिया ,

जीने के समुचित साधन उपलब्ध कराये ,

शान्त्योचित उपकरण भी ! 

फिर भी अशांति !!

प्रभु हर समय यही उलझन ;

ये नहीं,

वो नहीं,

ऐसा क्यों ?

वैसा क्यों ?

उत्तर ----

अरे ! ये कारण तो मैंने नहीं दिए, 

ये तो मन के अंदर से भी नहीं, 

तो क्या बाहर से ?

शायद !

तो इन्हें बाहर करो 

घुसने ही नहीं दो तो 

क्या बचा ?

शांति !!

बस !यही कारण है अशांति का 

बाहर से आने वाली परेशानियों को छोड़ो

शांति का ही वास होने दो !

            ॐ शान्ति शान्ति शान्ति !! 

















 


 

Wednesday, 11 October 2023

गाथा : एक कर्मठ योगी की

 

जन्म तो माता की गोद में ही हुआ ;

चार वर्ष के बाद वह छोड़ गयीं ;

पिता के संरक्षण ने पाला ;

बहुत ही प्यार भरा जीवन !

पिता की सरकारी नौकरी से प्राप्त,पर्याप्त था। 

कि एक अनपेक्षित मोड़ ने -

जीवन की दिशा-दशा ही बदल दी !

छूट गया सब !

पिता का दूसरा विवाह !!

सौतेली माँ का आगमन !

अनचाहे आगमन और उपेक्षित व्यवहार से 

उसका जीवन बिखर गया। 

घर पराया होगया। 

14 वर्ष की आयु में मानसिक आघात था ,

4-5 बार घर छोड़ा,

पहले एक माँ ने छोड़ा 

फिर घर छूटा ,

मिथ्या सम्बधों में भी 3-3 माँओं के आश्रय में 

हायर सेकंडरी तक शिक्षा प्राप्त की,

फिर वे भी छूट गयीं।  

पिता के सहयोग से सरकारी नौकरी भी मिली ,

और अब एक नयी ज़िम्मेदारी !

परिवार ! विवाह हुआ ,

परिवार की ज़िम्मेदारी,और फिर -

केवल ज़िम्मेदारी का अहसास 

मोह रहित जीवन !

कर्म-निर्वाह में रत ,

कहीं भी कोई उपेक्षा ,अवहेलना नहीं,

संतान के अनपेक्षित दुःख !

40 वर्ष का अनवरत कर्तव्य-निर्वाह

किन्तु- 

जब संतान के सुख देखने का समय आया; 

तो सब कुछ बिना देखे ही योगी ने 

इस दुनिया से विदा लेली  !

एक कर्तव्यपरायण कर्म-योगी !

निरंतर कर्तव्य-पथ पर सवार 

अंतहीन दिशा की ओर बढ़ चला ;

दुखों को भी छोड़ा ,

सुखों को भी छोड़ा 

कर्तव्य और अधिकार

सबसे मुँहु मोड़ कर विरक्त-भाव से। 

कोई ग़म नहीं;कोई सुख नहीं;कोई दुःख नहीं। 

और चला गया अपने  मुक्ति-पथ पर !!

      (अनु और श्वेता के पिता )

                             **** 



 




 



 






 













   





 









 



मेरी नायिका - मेरी पुत्र-वधु 

कर्तव्य और उत्तरदायित्व,दायित्व,ड्यूटी,मान-सम्मान,अधिकार और स्वाभिमान के बीच झूलती वो वृद्धा !!

आज बच्चे ही उसका जीवन हैं। यानि आज असहाय होने की स्थिति में वे उसकी देख-भाल करते हैं। तो लगता है वो स्वयं उनके लिए बोझ है। स्वाभिमान को चोट तो लगती है,लाचारगी,विवशता जैसी स्थिति होजाती है। जो स्वाभाविक भी है।

घुटने का ऑप्रेशन  

वो नायिका सुबह जल्दी उठती है,अलार्म लगाकर केवल अपने घर में रहने वाली उस वृद्धा को चाय बनाने के लिए। और तब वो वृद्धा महसूस करती है कि केवल उस के ही लिए तो उठी है। फिर ९-१० बजे नाश्ता सर्व करती,मध्याह्न दोपहर भोजन की व्यवस्था सिर्फ उसी के लिए करती,क्योंकि वो स्वयं दोपहर में नहीं खाती । और फिर रात्रि ---

इस सबके इतर वो वृद्धा अपने स्वाभिमान को भूल कर,शांत रहकर निश्चिन्त होकर समय व्यतीत करती। सब कुछ प्राप्य किन्तु उदास,असहाय,पराश्रित !!इस जीवन को कैसे पारिभाषित किया जाय। असहाय विवश होने की पीड़ा तो नहीं भूलती। मानसिक अंतर्द्वंद्व तो बहुत सालता। किंतु दूसरा कोई विकल्प भी  नहीं। उत्तरदायित्व पूरे करना दायित्व निभाना ही तो उस वृद्धा के लिए पर्याप्त नहीं होता। उसका मन भी बहुत कुछ अभाव महसूस करता है । 

 ज़िंदगी के सफर में व्यक्ति औफिस जाता है,ड्यूटी निभाता है,वेतन पाता है बस ! इस बीच और कोई विशेष सम्बन्ध नहीं होता। वही उस वृद्धा को महसूस होने लगा है। इस अपरिहार्य परिस्थिति से मुक्ति कैसे संभव है। प्यार,सम्मान,आदर व समर्पण को स्थान कहाँ है ! बहुत कुछ विचार करते हुए वो वृद्धा शांत और गम्भीर बने रहने का प्रयास करती है। 

पर कभी-कभी इस सबके बीच संतुलन डगमगाता सा प्रतीत होता है। हर पल, हर क्षण  दूभर -------!!


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अप्रेल 2024 

मेरे नी (आँतों)का ऑपरेशन 


पर अभी कुछ और भी बाकी था या अभी है नहीं पता। क्या-क्या इसे अभी और  झेलना बाकी है मेरे लिए,ये तो ईश्वर ही जाने। मेरी इस बीमारी में तो मेरी इस नायिका ने अपनी गहन परीक्षा दी और अविश्वसनीय त्याग तपस्या ने तो उसे बहुत बड़ा कद प्रदान कर दिया। मुझे नहीं पता इसने मेरे लिए क्या-क्या किया,प्रायः मैं  बेहोश ही रही,बाद में इसने और मेरी बेटी और बहिन ने बताया कि किस प्रकार दिन-रात दौड़-भाग कर  मुझे मौत के घर से खींच कर बाहर लेआई। क्या नहीं किया इसने यानि सब बेहोशी की अवस्था में जो करना था सब किया। भगवान की दया इस पर सदैव बनी रहे। 

                                              **

 



 

      





 




 



    

Saturday, 23 September 2023

मुग्धा अहीरन 

उपाय सुनकर वह भोली-भाली,सरल चित्त महिला-
बड़ी प्रसन्न हुई अब वो समय पर दूध लाती,
ब्राह्मण की डाँट से भी बच गयी। 
ब्राह्मण भी प्रसन्न। 

एक दिन बोला - अम्मा,अब समय पर दूध कैसे लापाती हो ?
महिला बोली-
"आपने ही तो कहा था -
ईश्वर का नाम लेकर तो लोग समुद्र पार कर जाते हैं।"
तो बस,मैंने वही किया। 
अब मैं किसी यात्री,मल्लाह का इन्तज़ार नहीं करती -
ईश्वर का नाम लेती हूँ और नदी पार कर लेती हूँ।"
ब्राह्मण को आश्चर्य हुआ,
बोला - 
मुझे दिखाओ कैसे पार करती हो !

अहीरन ने उसे साथ लिया और उसके सामने 
भगवान का नाम लेकर नदी पर चलने लगी 
पीछे मुड़ कर देखा - 
बोली - महाराज, अब होगया विश्वास ?

उस मुग्धा अहीरन के आगे ब्राह्मण नतमस्तक-
हैरान-परेशान , चमत्कृत !! सोचा -
"मैं तो अपने कपड़े उठा कर भीगने के भय से दूर खड़ा था। 
और 
ये मेरी एक छोटी सी चेतावनी से नदी पार कर गयी। 
और कुछ नहीं बिगड़ा !!
 
ईश्वर के प्रति अटूट आस्था ने -
अहीरन के प्रति ब्राह्मण को अति श्रद्धानत कर दिया।

(संकलित कथानक का काव्य रूप )


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Monday, 21 August 2023

स्वाभिमान

 स्वाभिमान 

   ये शब्द जो आज बात-बात में अंग्रेजी के ईगो शब्द से जाना जाता है,अपने सही अर्थ में स्वाभिमान तो कतई नहीं है। जिस रूप में ये शब्द आज जीया जा रहा है मेरे लिए एक भ्रामकता प्रस्तुत करने वाला है क्योंकि आज जो मैं  देख रही हूँ और समझ पा रही  हूँ वो स्वाभिमान का सकारात्मक अर्थ नहीं है बल्कि इसकी आड़ में एक विकृत रूप है।अब स्वाभिमान अपने छद्म रूप में घमंड और अहं का रूप ले चुका है। 

 मैं झुकने वाला/वाली नहीं हूँ 'क्या ये स्वाभिमान है ? क्या विनत होना,विनम्र होना स्वाभिमान में नहीं आता। घमंडी,अभिमानी, ईगोपरस्त व्यक्ति ही ऐसा समझता है। स्वाभिमानी व्यक्ति तो दूसरे व्यक्ति के स्वाभिमान का भी ध्यान रखता है। किसी को दुःख पहुँचाकर वह क्षमा माँगने की हिम्मत भी रखता है और सम्बन्धों को कभी ख़राब नहीं होने देता। लेकिन ईगो में तो टकराव  की स्थिति पैदा होती है। ज़रा-ज़रा  सी बात पर ईगो हर्ट होना स्वाभिमान को चोटिल समझना एकदम गलत है। 

स्वाभिमान आत्मविश्वास जगाता है ,सभ्य समाज में बैठने योग्य अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाता है। चतुर्दिक वातावरण को ओजमय बनाता है वातावरण को सकारात्मक ऊर्जा से भर देता है। इसके विपरीत ईगोइष्ट तो नकारात्मकता का ही प्रसार करता है।व्यक्तित्व नकारात्मक ऊर्जा से पूरित होकर अति आत्मविश्वास में आकर निरर्थक चीखना चिल्लाना शुरू कर देता है। सामने वाला भी उसकी उपेक्षा करने लगता है। अहंकार के आते ही व्यक्ति का धन-सम्पत्ति सब कुछ भगवान् छीन लेते हैं । 

अहंकार में व्यक्ति सामाजिक प्रतिष्ठा,यश सब कुछ गँवा देता है। धन-रूप,पद,बुद्धि, विद्या, जप-तप दान त्याग लोकप्रियता प्रशंसा आदि अहंकार के माध्यम हैं। इनमें से कोई एक भी गुण अभिमानी के लिया घातक होता है और व्यक्ति का विनाश निश्चित है । अच्छे कार्य करने का भी यदि अभिमान है तो वह भी विनाशक है। इससे सतर्क  रहने की हरपल हरक्षण आवश्यकता है।  


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Monday, 31 July 2023

: मेरी नायिका : मेरी पुत्री

मेरी नायिका ---मेरी पुत्री  (आज के परिप्रेक्ष्य में)

वह भूल चुकी थी सब कुछ। गत-विगत होचुका था।अच्छे पद पर काम कर रही थी जिसे छोड़ना पड़ा।अब एक नए काम की तलाश थी काम भी मिल गया एक अच्छी कंपनी में।अच्छा समय नहीं रहता तो बुरा भी नहीं रहेगा यही सोच कर जुट गयी अपने काम में।अपने माता-पिता के साथ रहकर संतोष था किन्तु भारतीय संस्कार कभी-कभी उसे बेचैन करते थे।प्रतीक्षा थी अच्छे समय की उसे पूर्ण विश्वास था कि वो अवश्य कभी लौट कर आयेगा उसकी जिंदगी में।

 किन्तु अचानक एक दिन मिले एक अदालती फरमान के लिफाफे ने उसे हिला दिया,टूट गयी,धड़ाम से ज़मीन पर गिर पड़ी बेहोश होगयी।उठी तत्काल,सँभाला  अपने आपको,लिफाफा खोला,पढ़ा आश्चर्य ! बिना ही हस्ताक्षर के सम्बन्ध विच्छेद!अब निश्चित तारीख पर कोर्ट में उपस्थित  होना था।इस तरह कोर्ट कचहरी का सिलसिला शुरू।लम्बा समय निकल गया चक्कर लगाते-लगाते, हैरान-परेशां !! समझ नहीं आया क्या करे कब तक ।

 अगली तारीख आने से पहले उसने कोर्ट में एक याचिका डाली थी जिसमें विवाह में दिए हुए सामान की लिस्ट के साथ उचित धन राशि की मांग की गयी थी।जिसके जबाव में एक तारीख मिली,जिस पर जाना था उसे।जाने के लिए तैयार थी ऑटो भी आगया कि अचानक उसमें एक नयी ऊर्जा उत्पन्न हुई,सोचा क्यों उसी शृंखला  में बंध कर समय, पैसा, दिमाग की शांति बर्बाद करूँ और ऑटोवाले  को कुछ पैसे देकर वापस कर दिया।

बैठ कर शांति पूर्वक सोचा,तलाक के पेपर तो उसके हाथ में थे,खड़ी हुई कमरे में और ज़ोरज़ोर से चीखी।हॉल के खिड़की दरवाज़े बंद कर ज़ोर ज़ोर से चीखी,नहीं चाहिए मुझे ऐसा कायर,बुज़दिल मर्द, नहीं लगाने मुझे कोर्ट कचहरी के चक्कर,नहीं चाहिए कोई सामान, नहीं चाहिए कोई एल्युमिनी ! और इस तरह  कोर्ट जाने का इरादा सदा-सदा के लिए छोड़ दिया।सोचा अब मैं आज़ाद होगयी,सब बंधनों से मुक्त,एक नया चमकता भविष्य है मेरे सामने।सोच लूँगी किसी जन्म का कर्ज़ा था चुका दिया,भगवान् की यही इच्छा थी।इस प्रकार उसके बिना हस्ताक्षर के उसे सारे झंझटों और परेशानियों से  मुक्ति मिल गयी। 

अपने मातापिता के साथ,उनकी देख भाल करते हुए अपने कार्यालय के काम में जुट गयी।काम करते हुए अपनी माँ के आग्रह से अब उसने मेट्रीमोनिअल के माध्यम से एक सुयोग्य जीवन साथी तलाशा,बात-चीत की,सब तरह से संतुष्ट होकर उसके माता-पिता से  संपर्क कर अपने माता पिता से संपर्क करवा कर उचित समय पर विधि पूर्वक अदालत में दोनों परिवारों के समक्ष कानूनी तौर से विवाह संपन्न किया। 

आज अपनी हिम्मत से,अपनी सूझ-बूझ से दकियानूसी परम्पराओं को तोड़ कर उसने एक नए सिरे से जीवन की शुरूवात की और अब अपने नए परिवार के साथ सुखी और प्रसन्न है।

ये है मेरी नायिका जिसने अपने जीवन को सँवारा बिना किसी लोक-लाज की चिंता किये।समय की आज यही पुकार है।


                                              ***