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Wednesday, 11 October 2023

मेरी नायिका - मेरी पुत्र-वधु 

कर्तव्य और उत्तरदायित्व,दायित्व,ड्यूटी,मान-सम्मान,अधिकार और स्वाभिमान के बीच झूलती वो वृद्धा !!

आज बच्चे ही उसका जीवन हैं। यानि आज असहाय होने की स्थिति में वे उसकी देख-भाल करते हैं। तो लगता है वो स्वयं उनके लिए बोझ है। स्वाभिमान को चोट तो लगती है,लाचारगी,विवशता जैसी स्थिति होजाती है। जो स्वाभाविक भी है।

घुटने का ऑप्रेशन  

वो नायिका सुबह जल्दी उठती है,अलार्म लगाकर केवल अपने घर में रहने वाली उस वृद्धा को चाय बनाने के लिए। और तब वो वृद्धा महसूस करती है कि केवल उस के ही लिए तो उठी है। फिर ९-१० बजे नाश्ता सर्व करती,मध्याह्न दोपहर भोजन की व्यवस्था सिर्फ उसी के लिए करती,क्योंकि वो स्वयं दोपहर में नहीं खाती । और फिर रात्रि ---

इस सबके इतर वो वृद्धा अपने स्वाभिमान को भूल कर,शांत रहकर निश्चिन्त होकर समय व्यतीत करती। सब कुछ प्राप्य किन्तु उदास,असहाय,पराश्रित !!इस जीवन को कैसे पारिभाषित किया जाय। असहाय विवश होने की पीड़ा तो नहीं भूलती। मानसिक अंतर्द्वंद्व तो बहुत सालता। किंतु दूसरा कोई विकल्प भी  नहीं। उत्तरदायित्व पूरे करना दायित्व निभाना ही तो उस वृद्धा के लिए पर्याप्त नहीं होता। उसका मन भी बहुत कुछ अभाव महसूस करता है । 

 ज़िंदगी के सफर में व्यक्ति औफिस जाता है,ड्यूटी निभाता है,वेतन पाता है बस ! इस बीच और कोई विशेष सम्बन्ध नहीं होता। वही उस वृद्धा को महसूस होने लगा है। इस अपरिहार्य परिस्थिति से मुक्ति कैसे संभव है। प्यार,सम्मान,आदर व समर्पण को स्थान कहाँ है ! बहुत कुछ विचार करते हुए वो वृद्धा शांत और गम्भीर बने रहने का प्रयास करती है। 

पर कभी-कभी इस सबके बीच संतुलन डगमगाता सा प्रतीत होता है। हर पल, हर क्षण  दूभर -------!!


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अप्रेल 2024 

मेरे नी (आँतों)का ऑपरेशन 


पर अभी कुछ और भी बाकी था या अभी है नहीं पता। क्या-क्या इसे अभी और  झेलना बाकी है मेरे लिए,ये तो ईश्वर ही जाने। मेरी इस बीमारी में तो मेरी इस नायिका ने अपनी गहन परीक्षा दी और अविश्वसनीय त्याग तपस्या ने तो उसे बहुत बड़ा कद प्रदान कर दिया। मुझे नहीं पता इसने मेरे लिए क्या-क्या किया,प्रायः मैं  बेहोश ही रही,बाद में इसने और मेरी बेटी और बहिन ने बताया कि किस प्रकार दिन-रात दौड़-भाग कर  मुझे मौत के घर से खींच कर बाहर लेआई। क्या नहीं किया इसने यानि सब बेहोशी की अवस्था में जो करना था सब किया। भगवान की दया इस पर सदैव बनी रहे। 

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Saturday, 23 September 2023

मुग्धा अहीरन 

उपाय सुनकर वह भोली-भाली,सरल चित्त महिला-
बड़ी प्रसन्न हुई अब वो समय पर दूध लाती,
ब्राह्मण की डाँट से भी बच गयी। 
ब्राह्मण भी प्रसन्न। 

एक दिन बोला - अम्मा,अब समय पर दूध कैसे लापाती हो ?
महिला बोली-
"आपने ही तो कहा था -
ईश्वर का नाम लेकर तो लोग समुद्र पार कर जाते हैं।"
तो बस,मैंने वही किया। 
अब मैं किसी यात्री,मल्लाह का इन्तज़ार नहीं करती -
ईश्वर का नाम लेती हूँ और नदी पार कर लेती हूँ।"
ब्राह्मण को आश्चर्य हुआ,
बोला - 
मुझे दिखाओ कैसे पार करती हो !

अहीरन ने उसे साथ लिया और उसके सामने 
भगवान का नाम लेकर नदी पर चलने लगी 
पीछे मुड़ कर देखा - 
बोली - महाराज, अब होगया विश्वास ?

उस मुग्धा अहीरन के आगे ब्राह्मण नतमस्तक-
हैरान-परेशान , चमत्कृत !! सोचा -
"मैं तो अपने कपड़े उठा कर भीगने के भय से दूर खड़ा था। 
और 
ये मेरी एक छोटी सी चेतावनी से नदी पार कर गयी। 
और कुछ नहीं बिगड़ा !!
 
ईश्वर के प्रति अटूट आस्था ने -
अहीरन के प्रति ब्राह्मण को अति श्रद्धानत कर दिया।

(संकलित कथानक का काव्य रूप )


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Monday, 21 August 2023

स्वाभिमान

 स्वाभिमान 

   ये शब्द जो आज बात-बात में अंग्रेजी के ईगो शब्द से जाना जाता है,अपने सही अर्थ में स्वाभिमान तो कतई नहीं है। जिस रूप में ये शब्द आज जीया जा रहा है मेरे लिए एक भ्रामकता प्रस्तुत करने वाला है क्योंकि आज जो मैं  देख रही हूँ और समझ पा रही  हूँ वो स्वाभिमान का सकारात्मक अर्थ नहीं है बल्कि इसकी आड़ में एक विकृत रूप है।अब स्वाभिमान अपने छद्म रूप में घमंड और अहं का रूप ले चुका है। 

 मैं झुकने वाला/वाली नहीं हूँ 'क्या ये स्वाभिमान है ? क्या विनत होना,विनम्र होना स्वाभिमान में नहीं आता। घमंडी,अभिमानी, ईगोपरस्त व्यक्ति ही ऐसा समझता है। स्वाभिमानी व्यक्ति तो दूसरे व्यक्ति के स्वाभिमान का भी ध्यान रखता है। किसी को दुःख पहुँचाकर वह क्षमा माँगने की हिम्मत भी रखता है और सम्बन्धों को कभी ख़राब नहीं होने देता। लेकिन ईगो में तो टकराव  की स्थिति पैदा होती है। ज़रा-ज़रा  सी बात पर ईगो हर्ट होना स्वाभिमान को चोटिल समझना एकदम गलत है। 

स्वाभिमान आत्मविश्वास जगाता है ,सभ्य समाज में बैठने योग्य अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाता है। चतुर्दिक वातावरण को ओजमय बनाता है वातावरण को सकारात्मक ऊर्जा से भर देता है। इसके विपरीत ईगोइष्ट तो नकारात्मकता का ही प्रसार करता है।व्यक्तित्व नकारात्मक ऊर्जा से पूरित होकर अति आत्मविश्वास में आकर निरर्थक चीखना चिल्लाना शुरू कर देता है। सामने वाला भी उसकी उपेक्षा करने लगता है। अहंकार के आते ही व्यक्ति का धन-सम्पत्ति सब कुछ भगवान् छीन लेते हैं । 

अहंकार में व्यक्ति सामाजिक प्रतिष्ठा,यश सब कुछ गँवा देता है। धन-रूप,पद,बुद्धि, विद्या, जप-तप दान त्याग लोकप्रियता प्रशंसा आदि अहंकार के माध्यम हैं। इनमें से कोई एक भी गुण अभिमानी के लिया घातक होता है और व्यक्ति का विनाश निश्चित है । अच्छे कार्य करने का भी यदि अभिमान है तो वह भी विनाशक है। इससे सतर्क  रहने की हरपल हरक्षण आवश्यकता है।  


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Monday, 31 July 2023

: मेरी नायिका : मेरी पुत्री

मेरी नायिका ---मेरी पुत्री  (आज के परिप्रेक्ष्य में)

वह भूल चुकी थी सब कुछ। गत-विगत होचुका था।अच्छे पद पर काम कर रही थी जिसे छोड़ना पड़ा।अब एक नए काम की तलाश थी काम भी मिल गया एक अच्छी कंपनी में।अच्छा समय नहीं रहता तो बुरा भी नहीं रहेगा यही सोच कर जुट गयी अपने काम में।अपने माता-पिता के साथ रहकर संतोष था किन्तु भारतीय संस्कार कभी-कभी उसे बेचैन करते थे।प्रतीक्षा थी अच्छे समय की उसे पूर्ण विश्वास था कि वो अवश्य कभी लौट कर आयेगा उसकी जिंदगी में।

 किन्तु अचानक एक दिन मिले एक अदालती फरमान के लिफाफे ने उसे हिला दिया,टूट गयी,धड़ाम से ज़मीन पर गिर पड़ी बेहोश होगयी।उठी तत्काल,सँभाला  अपने आपको,लिफाफा खोला,पढ़ा आश्चर्य ! बिना ही हस्ताक्षर के सम्बन्ध विच्छेद!अब निश्चित तारीख पर कोर्ट में उपस्थित  होना था।इस तरह कोर्ट कचहरी का सिलसिला शुरू।लम्बा समय निकल गया चक्कर लगाते-लगाते, हैरान-परेशां !! समझ नहीं आया क्या करे कब तक ।

 अगली तारीख आने से पहले उसने कोर्ट में एक याचिका डाली थी जिसमें विवाह में दिए हुए सामान की लिस्ट के साथ उचित धन राशि की मांग की गयी थी।जिसके जबाव में एक तारीख मिली,जिस पर जाना था उसे।जाने के लिए तैयार थी ऑटो भी आगया कि अचानक उसमें एक नयी ऊर्जा उत्पन्न हुई,सोचा क्यों उसी शृंखला  में बंध कर समय, पैसा, दिमाग की शांति बर्बाद करूँ और ऑटोवाले  को कुछ पैसे देकर वापस कर दिया।

बैठ कर शांति पूर्वक सोचा,तलाक के पेपर तो उसके हाथ में थे,खड़ी हुई कमरे में और ज़ोरज़ोर से चीखी।हॉल के खिड़की दरवाज़े बंद कर ज़ोर ज़ोर से चीखी,नहीं चाहिए मुझे ऐसा कायर,बुज़दिल मर्द, नहीं लगाने मुझे कोर्ट कचहरी के चक्कर,नहीं चाहिए कोई सामान, नहीं चाहिए कोई एल्युमिनी ! और इस तरह  कोर्ट जाने का इरादा सदा-सदा के लिए छोड़ दिया।सोचा अब मैं आज़ाद होगयी,सब बंधनों से मुक्त,एक नया चमकता भविष्य है मेरे सामने।सोच लूँगी किसी जन्म का कर्ज़ा था चुका दिया,भगवान् की यही इच्छा थी।इस प्रकार उसके बिना हस्ताक्षर के उसे सारे झंझटों और परेशानियों से  मुक्ति मिल गयी। 

अपने मातापिता के साथ,उनकी देख भाल करते हुए अपने कार्यालय के काम में जुट गयी।काम करते हुए अपनी माँ के आग्रह से अब उसने मेट्रीमोनिअल के माध्यम से एक सुयोग्य जीवन साथी तलाशा,बात-चीत की,सब तरह से संतुष्ट होकर उसके माता-पिता से  संपर्क कर अपने माता पिता से संपर्क करवा कर उचित समय पर विधि पूर्वक अदालत में दोनों परिवारों के समक्ष कानूनी तौर से विवाह संपन्न किया। 

आज अपनी हिम्मत से,अपनी सूझ-बूझ से दकियानूसी परम्पराओं को तोड़ कर उसने एक नए सिरे से जीवन की शुरूवात की और अब अपने नए परिवार के साथ सुखी और प्रसन्न है।

ये है मेरी नायिका जिसने अपने जीवन को सँवारा बिना किसी लोक-लाज की चिंता किये।समय की आज यही पुकार है।


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Thursday, 20 July 2023

क्योंकि मैं अपनी ही नहीं सुनती

 क्योंकि मैं अपनी ही नहीं सुनती 

          (आत्म-समीक्षा) 

 

हरबार मन को समझाती हूँ कि अपने को स्वस्थ रखना है तो भूल जा अपना पास्ट,भूल जा कि तू अब वही सब कर सकती है जो अब तक शौक से,बिना किसी परेशानी  के कर पायी ,अब भी कर सकती है। फिर एक तो स्वभाव और फिर शौक काम करने का ,मन नहीं मानता और -------।

कई बार सोचा कि काम करना छोड़ूँ यानि किसी का मुँह देखूँ,आदत ही नहीं किसी से कुछ भी काम के लिए कहने की, तो मुश्किल होती थी ,और फिर चल पड़ती।  सच तो ये है कि ये तो भगवान् भी नहीं चाहते  कि बिना काम किये बैठे रहो,कुछ तो करना होगा बड़ा करने की सामर्थ्य नहीं तो हल्का काम करो पर कुछ तो करना होगा,सोचा कैसे इस आदत से निवृत्ति पाऊँ ,क्या करूँ!पर समाधान नहीं मिला,बार बार मन कहता ,सब छोड़ो,सब हो जायेगा।जब मन कहता है मन को नियंत्रण में रखो,चिंता न करो,औरों को मौका दो,मोह ममता का ही तो रूप है ये कि मन चाहा काम करो, खर्चा करके नहीं,हाथ पैर चला कर लेकिन वो रास्ता नहीं सूझता।और फिर चल देती उसी राह पर !

लेकिन फिर कुछ ऐसा हुआ।मेरे मन की उलझन,परेशानी,समस्या से मुक्ति दिलाने भगवान् ने सख्त रास्ता दिखाकर मार्ग दर्शन किया।असल में घर में साफ़ सफाई का काम शुरू हुआ, उम्र और शारीरिक क्षमता को ध्यान में रखते हुए मन तैयार नहीं था पर बच्चों का मन था,सफाई की आवश्यकता भी थी इसलिए काम शुरू हुआ।

भगवान  का यही मार्गदर्शन था,अवसर था थोड़ा सोचने समझने का लेकिन मनुष्य की यही कमी है कि ठीक से सोचता विचारता नहीं।बस स्वभाव के वशीभूत सामान को हटाना ,लगाना सब में दौड़ती भागती रही,और बस मेरे एक  घुटने ने अचानक साथ छोड़ दिया ,बहुत तकलीफ होगयी,असहाय महसूस करने लगी,बहुत परेशान होगयी,किसी से काम न लेने की आदत कमज़ोर होगयी। वाशरूम तक  के लिए दिन में ३-४ बार बहू को बुलाना पड़ा सहारे के लिए ,अंत में सोचा मेडिकल रिम्बरसमेंट तो होता ही है इसलिए होस्पिटलाइज़्ड होगयी ,एक वीक में सुधार हुआ चलने फिरने लायक हुई तो घर आगयी।(१७फरबरी से २३ फरबरी )

तब से आज तक भगवान ने केवल इस लायक रखा कि अपना काम कर पाऊँ। लेकिन तकलीफ है।समय आज ऐसा है कि अस्पताल,डॉ.पर विश्वास कर पाना मुश्किल होगया है। पर विवशता और मजबूरी अस्पताल और डॉ तक पहुँचा ही देती है। कुछ दिन और प्रतीक्षा की कि शायद अपने आप तकलीफ दूर हो,पर ऐसा हुआ नहीं।अंत में बेटे से कहा बेटा अब तो लगता है घुटने के लिए कुछ करना ही पड़ेगा। तब उसने अपने मित्र और अपने कुछ जानकारों से बात की।उनमें से एक मित्र ने एक डॉ का पता बताया।उसने कहा - अपनी मम्मी का उपचार कराया,अच्छा डॉ है कहीं और जाने की ज़रूरत नहीं।बेटे ने नाम पता लेकर गूगल सर्च किया ,डॉ से बात हुई पता चला वह मेरा स्टूडेंट है,कहा वो मेरी मैंम हैं ,पढ़ाया है मुझे। बेटे ने जब बताया तो अटूट विश्वास के साथ उससे समय माँगा,मीटिंग की ,उससे मिलकर मुझे और अधिक संतोष हुआ।उसने बताया-45 मिनट की सर्जरी है एक दिन  एडमीशन टेस्ट,दूसरे दिन सर्जरी तीसरे दिन डिस्चार्ज भी हो सकते हैं.उसी समय अपॉइटमेंट लिया और 12 जुलाई को एडमिट हो गयी ,13 जुलाई को सर्जरी और 14जुलाई को  डिस्चार्ज कर दिया।

घर आने की हिम्मत न थी दर्द बहुत था चलने मैं बहुत तकलीफ थी,पर डॉ की हिम्मत देने से हिम्मत की और बच्चों के सहारे से झीना चढ़ कर घर आगयी।आज एक महीना होगया तकलीफ बहुत कम है पर अभी भी बहुत है। डॉ ने कहा है एज फैक्टर है और २-३ महीने का समय लगेगा।पर संतोष है।

बात वही कि "मैं अपनी ही नहीं सुनती"। आज अपनी नहीं,ज़रुरत की सुनी और मुझे सहायता के लिए बोलने,कहने की आदत स्वभाव में आगयी।आज जितना संभव है अपना काम स्वयं कर पाती हूँ बाकी बहू-बेटे का सहारा लेती हूँ।संकोच होता है पर कह पाती हूँ कोई परेशानी नहीं।

कभी-कभी स्वाभिमान इतना अधिक आड़े आता है कि फिर जिंदगी तकलीफ उठाने के बाद अपना रास्ता स्वतः ढूँढ लेती है।स्वाभिमान के स्थान पर इसे 'अहं' भी कहा जा सकता है।मुख्य रूप से परेशानी का कारण भी यही बनता है। 

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Saturday, 8 July 2023

दादी-पोती संवाद ( हास्य प्रसंग )

 दादी-पोती संवाद ( हास्य प्रसंग )

कई महीने के बाद मध्य रात्रि 2 बजे पोती अपने हॉस्टल से छुट्टियाँ बिताने घर आयी थी।थकी हुई थी,अपनी दादी से मिलने के बाद तुरंत सोगई।सुबह देर तक सोती रही कि अचानक दादी की प्यार भरी कड़क आवाज़ ने  सोती हुई बच्ची को कुलमुला दिया पुनः आवाज़ दी -अरी बिटिया अभी उठी नहीं! उठके आ मेरा काम कर,-2 दिन को आयी है, दादी याद करेगी फिर - सुनते ही पोती दौड़ी-दौड़ी आयी - बोलो दादी,क्या काम है,जल्दी बताओ मुझे नींद आरही है।  

दादी (हँसती हुई) -अरे अभी सोना बाकी है,अच्छा जा ज़रा मेरी लठिया तो ला,जाना है पड़ौस में भजन कीर्तन है,देर होरही है।

पोती - लो दादी,अब मैं जाऊँ ? 

दादी - अरे मेरा चस्मा तो लाके दे।

पोती-ओके दादी, ये लो चश्मा अब जाऊँ ? 

दादी - ठैर तो लाली, मेरी लम्बी वाली ड्रेस तो ला,जो तेरी माँ ने मंगाई थी।(पहनी हुई ड्रैस की ओर)इशारा कर,ये पहनके थोड़े ही जाऊँगी।

पोती-ओके दादी,कहाँ रखी है।

दादी -वो मेरी  अलवारी में कपड़ों के नीचे चौथे नंबर पै रखी है,जा दौड़के ला,भजन शुरू हो जायेँगे,देर हो रही है।

पोती -लो दादी,अब मैं जाऊँ? 

दादी-अरी मेरा बटुआ तो ला,पैसे भी तो चढ़ाने को चाहिए और ले,तनिक जाकर 2 केले भी मदर डेरी से दौड़के लादे।

पोती हँसते हुए- दादी,मेरी सारी नींद उड़ादी,अब जाऊँ ?

 दादी-अरी बिटिया इतना काम कर दिया,अब मुझे पड़ौसन के घर छोड़ भी आ,बिटिया चौथी मंजिल  पर घर है,कैसे जा पाऊँगी, कहीं गिर गयी तो ---!

पोती- चलो दादी वहाँ भी छोड़ आती हूँ।पोती (छोड़ कर) बोली- अब जाऊँ ?

 अरी थोड़ा बैठ ले,मत्था टेक, भजन सुन,मुझे वापस भी ले चलना,आधा घंटे बाद।(पोती बैठ जाती है)

दादी-चल अब घर चल,चल कर अब सोजाना, नींद पूरी कर लेना,कितनी अच्छी बिटिया है।

पोती (हँसती है),हाथ पकड़ कर,आदर-प्यार से घर ले जाती है।  

अब जाकर जो उसकी हँसी का गुब्बारा फूटा - ज़ोर-ज़ोर से अकेले ही हँसने लगती है।और जब सबने हँसने का कारण पूछा तो  बैठ कर,हँसी के मारे उस से बोला ही न जाये फिर  दादी की ओर देखते हुए घर में सबको सारा किस्सा सुना-सुना कर खूब मजे ले लेकर हँसाया। फिर हँसते हुए-  

बोली दादी- अब जाऊँ सोने ? 

दादी भी पल्लू से मुँहु ढक कर मुस्कराती हैं -------- 

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Tuesday, 4 July 2023

मेरी माँ (जीवन के कुछ अनछुए अंश )

         मेरी माँ (जीवन के कुछ अनछुए अंश ) 

आज माँ बहुत याद आरही थीं तो वह भी आज मेरी लेखनी का आलम्बन बन गयीं और लिखने बैठ गयी उनकी आत्म कथा अपने शब्दों में - जितना बेटी होने के नाते समझ पायी कि विभिन्न परिस्थितियों में वो क्या सोचती होंगीं कल्पना कर लिखने का प्रयास किया है लेकिन बाहरीतौर पर आज इस उम्र में जो समझ पारही हूँ वो इस प्रकार है -(  जो सुना बचपन में और जो देखा आँखों से और जो समझ पारही  हूँ इस पड़ाव पर आकर --)

16 वर्ष की थीं,तब माँ का विवाह हुआ था,धौलपुर के उच्च घराने में जिनके नाम के आगे "रईस" लिखा जाता था।24 वर्ष की अवस्था तक हम तीन बहिनों  का जन्म हो चुका था।इस बीच पापा का स्वास्थ्य ऐसा होगया कि वो काम पर भी नहीं जा पाये, बी ए, ऐल  ऐल बी थे पापा।दादा ने बहुत इलाज कराया मानसिक चिकित्सक से भी कराया लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ तब नानाजी ने हमें हाथरस ही बुला लिया आने के कुछ समय बाद हमारे एक भाई ने जन्म लिया। हम सबकी पढ़ाई नानाजी के पास हो रही थी।भाई भी स्कूल जाने लगा। 

तब नानाजी ने माँ की पढ़ाई के बारे में सोचा और इस तरह धीरे-धीरे माँ ने बी ए तक की शिक्षा प्राप्त करली। अब नानाजी चाहने लगे कि माँ को कोई प्रशिक्षण कोर्स भी  कराया जाय जिस से वो पैरों पर खड़ी हो स्वावलम्बी बने।समय आने पर अपने बच्चों की आगे देख-भाल कर सकें। ये समय माँ के लिए  कितना कठिन रहा होगा।लेकिन वो हालतों को देखते हुए तैयार होगयीं।

आज इस बात का एहसास कर पारही हूँ।अंततः नानाजी के एक मित्र के सहयोग से माँ लखनऊ तीन महीने की ट्रेनिंग के लिए गयीं, जहां से उन्हें सोशल वर्कर का प्रमाणपत्र मिला।वहां से लौट कर उन्हें महिला अस्पताल में फेमिली प्लानिंग डिपार्टमेंट में नियुक्ति मिली।इस कार्य  के लिए माँ को घर से निकलना,नौकरी करने के लिए गॉंव-गाँव घर-घर  घूमना होता था।हर परिवार में जा-जा कर महिलाओं को परिवार नियोजन के बारे में समझाना कितना कठिन रहा होगा वो माँ ही जानती होंगी।इस योजना के लाभ हानि समझाना, उन अशिक्षित महिलाओं को विश्वास में लेना कितना जटिल था कई बार बहुत उल्टा-पुल्टा भी सुनना  पड़ता था पर धीरे धीरे माँ को सफलता मिलती गयी।

सरकारी आदेश के अनुसार एक महीने में २-3 केस लाने  होते थे।भगवान की दया से पुरुष सहकर्मियों से उन्हें इस काम में सहायता मिल जाती थी।तेज धूप,बारिश में घर-घर विजिट करना, दूभर कार्य था।माँ के पैरों में छाले पड़ जाते थे।तब जूते चप्पल भी आज की तरह सुविधा जनक नहीं मिलते थे।सुबह से निकल कर दो पहर के २-3 बज जाते थे। वापिसी के लिए कभी इक्का कभी ताँगा मिलता था।तब तक हम उनकी प्रतीक्षा करते थे।उस पर भी यह कि माँ बाहर का कुछ नहीं खातीं थीं  पानी तक नहीं पीतीं थीं। कभी-कभी किसी के यहाँ स्वच्छता  का विश्वास होता तो पानी लस्सी ग्रहण कर लेती थीं।बस नानाजी का सहारा था कि वह ये सब कर पायीं। 

तब माँ की मानसिक पीड़ा का अनुमान हम नहीं लगा पाते थे। पापा के विषय में कितना कुछ मन में सोचती होंगी,नहीं समझ पाते थे।अपने मन की बात वो किस से करतीं,बच्चों से नहीं,पिता से नहीं,नानी बहुत पहले ही चली गयीं थीं।बाकी भाभी भाई से भी क्या और कैसे ----कभी-कभी पापा आते,हमें अच्छा लगता।अपनी परेशानियां बताते लेकिन अधिक नहीं और फिर धौलपुर जाने के लिए कहते और चले जाते थे।माँ से कहते तुमने पढ़ाई करली है पर नौकरी मत करना। छुप-छुपा कर नौकरी के लिए जातीं। पापा जब हमारे पास होते तो घूमने जाते,बगीची जाते, स्नान आदि वहीँ करते।हमें देख कर खुश होते पर बात बहुत कम करते।उनके सामने हम बच्चे कभी बीमार होते तो  बाजार से दवा भी लाते।पैसे नानाजी देते रहते थे।माँ का मन उस समय क्या सोचता होगा,कितनी  दुखी होतीं होंगी,अकाल्पनिक है।

इस तरह पापा का सामीप्य या प्यार स्नेह कुछ-कुछ अंतराल के बाद मिलता रहता।माँ को भी पापा को इतना भर ही देखने का लाभ हासिल हुआ कि अचानक वो भी सब समाप्त होगया। खबर मिली मामाजी के एक मित्रसे जो धौलपुर वासी थे,उनके ऑफिस में ही कार्य रत थे,उन्होंने बताया कि पापा हमें छोड़ सदा के लिए भगवान् के पास चले गए। टूट गयीं माँ और हम सब।संभाला अपने आपको,नानाजी का वरद  हस्त तो था ही और उससे भी अधिक भगवान् के प्रति विश्वास सर्वोपरि !!   

शांत मन से माँ हमारे बारे में,हमारी शादी के बारे में चिंता करतीं रहती होंगी।इन्हीं सब चिंताओं के कारण  वो बीमार भी रहने लगीं थीं।सारा शरीर सूज जाता था , स्नोफीलिया की भी शिकायत होगयी,इलाज होता रहा,थोड़ा बहुत लाभ  भी होता रहता पर किसी तरह सरकारी सेवा चलती रही।

हम सबकी शादी भी होगयी।पर भाई की करने से पहले नानाजी भी भगवान् के पास चले गए।बाद में भाई की भी शादी मामाजी के सहयोग से होगयी।उसके कुछ समय बाद माँ रिटायर हुईं।किराये के मकान को खाली कर अब वो भाई के पास रहने लगीं थीं।दुखम सुखम समय गुज़रता रहा,नाती पोते के साथ खुशी से समय व्यतीत होता रहा,पर अधिक समय नहीं गुजार पायीं,और वृन्द्रावन में जाकर आश्रम में रहने लगीं।जयपुर जातीं-आतीं रहतीं थीं।सरकार से पेंशन मिलती थी,सेविंग थी,उससे समय व्यतीत होता रहा। कभी बेटियों के पास भी हो आतीं।इस तरह 87 वर्ष की आयु में एक बार जब जयपुर गयीं तो पुनः लौटना नहीं हुआ।

जयपुर में दोपहर मंदिर से दर्शन कर लौटीं,बहू के कथनानुसार माँ ने खाना खाया और सोगयीं।सब सोगये।घर में जब शाम बहू उठी तो देखा,माँ उल्टी करके सोई  हुईं थीं,पता नहीं कब उल्टी हुई, कब क्या हुआ। भाई को फोन कर ऑफिस से बुलाया।अस्पताल लेगये,बस वहां 15 दिन बेहोशी में ही रहीं और एक सुबह उनकी आत्मा परमात्मा में विलीन होगयी।हम उस समय 2 बहिनें पास थीं पर माँ को कुछ नहीं ज्ञात था। हमारे सर से एक आखिरी साया भी सदा के लिए हमसे छूट गया।संक्षेप में ये था हमारी माँ का जीवन के अनछुए अंश --------!! 

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