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Monday, 21 August 2017

ढूँढती ऑंखें


 ढूँढती आँखें --

कागज़ों पर लिखते-लिखते आँखें खोई- खोई सी
शून्य को ताकती हैं
ढूँढती हैं कहीं कुछ ऐसा दिखाई दे
जिसे वो चाहतीं हैं।
दीवारों की टूटी-फूटी चटकनों में
न जाने कितने चेहरे दिखाई देते हैं
बादलों की टुकड़ियों में
यत्र-तत्र अनेक आकृतियाँ दिखाई देती हैं
ढूँढती रहती हैं,देखती रहती हैं
कहीं कोई पहचाना दिखाई दे
पर ढूँढती हैं किसे,नहीं पता !!
चारों तरफ चेहरे ही चेहरे किन्तु
टिकता कोई नहीं,अदृश्य हो जाते हैं कुछ ही पलों में !
अन्ततः हार कर लौटती हैं वहाँ
जो सदैव पास रहता है
कभी अदृश्य नहीं होता
सदैव मुस्कराता रहता है।
आनन्द आनन्द परमानन्द !!
                     
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