जीवन का सार
जीवन की ये कैसी बाध्यता !
क्या स्वीकार्यता ही जीवन है ?
क्या कृत्रिम भाव-शून्यता ही शेष रह गयी है?
क्या ज़िन्दगी के इस पड़ाव का ये भी आवश्यक पहलू है?
क्या यही ज़िन्दगी का सार है?
सब को आनंद देना ही जीवन है ?
यही सच्चा सुख या जीवन है ?
लगता तो ऐसा ही है !
किसी के कष्टों को दूर करने की कोशिश में ही सुख की " इति " है।
विश्वास नहीं होता,पर सत्य यही है।
जीवन का सार भी यही है।
"अपनी अच्छाइयों को समक्ष रखना दोष है और
दूसरों की अच्छाइयों को समक्ष रखना ही सही है।"
यही जीवन का सार है।
जीवन की सोच बदल गयी है ,
इसी "बाध्यता" को समझना होगा।
इसकी अनिवार्यता समझनी होगी।
सबको सुखी देखना ही "परम-सुख" है।
असंभव है, पर सम्भाव्य में ही "परम-आनन्द"है।
मुस्कराते हुए स्वयं को भुला देना ही सही है।
क्योंकि यही जीवन का सार है।
******
No comments:
Post a Comment