पहले ताण्डव और फिर बेसुधी की तन्द्रा --
१३ मई रविवार -
कुदरत का ऐसा रौद्र और विनाशकारी रूप -
उम्र के इतने दशक बीते नहीं देखा।
अचानक चारों तरफ से वायु का वेग -
जिसे तूफ़ान में बदलते देर नहीं लगी।
दरवाज़ों की खड़खड़ाहट से लगा -
मानो तूफ़ान स्वयं आश्रय ढूँढ रहा हो
ऐसा लगा कि आज कुछ अनहोनी होके रहेगी।
शाम ५ से १० बजे तक उसकी विकरालता मन को डरा रही थी
और मैं सहमी सी डरी सी सोगयी !लेकिन
जब उठी तो
सुबह के दृश्य ने तो आँखें ही नम करदीं
स्तब्ध रह गयी।
प्रकृति का वो भयावह रूप !
और अब !
इतनी शांत,इतनी थकी थकी सी प्रकृति
लगा जैसे " शिशु को जन्म देने के बाद ,
महिला गहरी नींद में सो रही हो।"
कोई हल-चल नहीं ,बड़े-बड़े वृक्ष जो भयंकर झंझावात में उलझ गए थे
थके हारे से निश्तब्ध खड़े थे
आच्छादित धूल के आगोश में निष्पन्द थे।
ख़ैर अभी तो
प्रकृति का ताण्डव शान्त होगया, पर
मन विचारों में उलझ गया --
सच तो यह है कि विकास के नाम पर,स्वार्थ के लिए
हम जो प्रकृति के साथ जो क्रूरता और निर्ममता कर रहे हैं
उसका बदला प्रकृति स्वयं को दण्डित करके लेरही है।
अंततः तो भुगतान हमें ही करना है।
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